उर्जा

भारत में कोयला खनन परियोजना का भारी विरोध कर रहे हैं स्थानीय निवासी

पश्चिम बंगाल सरकार, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कोयला खदान को विकसित करने की दिशा में काम कर रही है। वहां अगले साल विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं। इस कारण उनके लिए यह सपना, एक बुरे सपने के रूप में तब्दील होता दिख रहा है।
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पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले के बरमसिया गांव की सुनीता हांसदा अपने घर और खेत से निकाले जाने के डर से लगभग टूट गई हैं। वह उस जगह पर सबसे ऊंचाई पर रहती हैं जहां के बारे में दावा किया जा रहा है कि वहां दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कोयला खदान होगी।

45 वर्षीय हांसदा और उनके पति राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 200 किलोमीटर दूर अपने दो एकड़ खेत में धान उगाते हैं। वह रोते हुए कहती हैं, “हमारा पांच लोगों का परिवार, जमीन के इस छोटे से टुकड़े पर निर्भर है। हम पीढ़ियों से किसान रहे हैं। हमने कभी भी कोई अन्य काम करने या कहीं और जाकर बसने के बारे में सोचा भी नहीं है। लेकिन अब अपने क्षेत्र में प्रस्तावित कोयला खनन परियोजना के बारे में सुन रहे हैं। तब से हमारी रातों की नींद हराम हो गई है क्योंकि यह भूमि हमारी आय का एकमात्र स्रोत है और हम किसी भी कीमत पर इसे खोना नहीं चाहते हैं। हम अपने जीवन से काफी खुश हैं और यहां कोई भी कोयला खदान नहीं चाहते हैं।

हांसदा को अपने खेत के नीचे कोयले के भंडार के बारे में नहीं पता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अनुसार, देओचा-पचामी-हरिनसिंह-दीवानगंज ब्लॉक में 2,102 मिलियन टन कोयले के अनुमानित भंडार हैं। बनर्जी ने कहा है कि यह 12,000 करोड़ (1.63 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का निवेश ला सकता है और इस परियोजना से लगभग 100,000 स्थानीय नौकरियां पैदा की जा सकती हैं।

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ हैं स्‍थानीय लोग

कोयले को प्राप्त करने के लिए, राज्य सरकार को स्‍थानीय निवासियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो अपनी भूमि के बदले किसी भी मुआवजे या पुनर्वास पैकेज को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। प्रस्तावित कोयला खदान का विस्‍तार 11,200 एकड़ तक फैला होगा। इसमें 9,100 एकड़ से अधिक जमीन स्‍थानीय निवासियों की हैं, जिसमें अधिकांश यहां के मूल बाशिंदे हैं।

40 वर्षीय एक स्थानीय अधिकार कार्यकर्ता, जो खोकन मरडी में रहते हैं, यह प्रस्तावित कोयला खदान एवं उसके आसपास की 53 गावों में से एक है, का दावा है कि खदान का काम शुरू होने से लगभग 70,000 लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। वह कहते हैं, “सरकार दावा कर रही है कि सिर्फ 784 परिवारों को विस्थापित किया जाएगा, लेकिन आंकड़ों में हेर-फेर किया जाता है क्योंकि खनन एक बड़े क्षेत्र में किया जाएगा जो जल निकायों, जंगल, कृषि भूमि और घरों को खा जाएगा। हम कहां जाएंगे? वे बस हमारे किसी अन्य स्थान पर पुनर्वास के प्रयास कर रहे हैं लेकिन हमारी आजीविका के बारे में क्या? इस बात का उनके पास बस कोई जवाब नहीं है।”

बरमसिया के हांसदा की 25 साल की पड़ोसी सरस्वती मरडी कहती हैं कि वह पहले से ही पत्थर की खदानों और क्रशर्स के कारण होने वाली धूल से पर्यावरण प्रदूषण का सामना कर रहे हैं, जो ज्यादातर अवैध कोयला खनन के कारण हो रहा है। वह कहती हैं, “हम पहले से ही पत्थर की अवैध खदानों और क्रशर के कारण पानी की कमी और स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं का सामना कर रहे हैं, जो आसपास के गांवों तक फैले हुए हैं। यहां पर ग्रीष्मकाल के दौरान, 600 फीट की गहराई पर भी पानी उपलब्ध नहीं होता है और हमें पानी इकट्ठा करने के लिए अन्य गांवों में जाना पड़ता है। वहां पर पानी के लिए लंबी-लंबी लाइनें लगती हैं और कई बार झगड़ा-बवाल भी होता है। कोयला खनन हमारी समस्याओं को बढ़ाएगा और हमारे अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो जाएगा।

बहुत पहले से रह रहे निवासियों का कहना है कि वे अकसर सांस संबंधी रोगों से पीड़ित होते हैं। बत्ती मार्डी ने कहती हैं, “हवा के साथ आने वाली धूल के कारण हमें रात में भी खिड़कियां खुली रखना मुश्किल हो जाता है। हम सांस लेने में समस्या का सामना करते हैं और श्वसन संबंधी बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं, लेकिन इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। पानी की गुणवत्ता खराब होने के कारण बच्चे भी गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। प्रशासन से भी कोई भी हमारी बदहाल स्थिति के बारे में पूछताछ करने नहीं आया है और अब सरकार एक कोयला खदान विकसित करना चाहती है। नई परियोजना के आने से पहले हमें मार देना चाहिए क्योंकि हम अब जीवित लोगों में नहीं गिने जा सकते।”

इस तरह के सैकड़ों स्टोन क्रशर्स वायु को प्रदूषित कर रहे हैं। वहीं, पत्थरों की पट्टियां उन जगहों पर भूमिगत जल का उत्खनन करती हैं, जहां पर खदान का काम शुरू होने वाला है। [Image by: Gurvinder Singh]
इस तरह के सैकड़ों स्टोन क्रशर्स वायु को प्रदूषित कर रहे हैं। वहीं, पत्थरों की पट्टियां उन जगहों पर भूमिगत जल का उत्खनन करती हैं, जहां पर खदान का काम शुरू होने वाला है। [Image by: Gurvinder Singh]
जीवन शैली और संस्कृति का नुकसान

सामाजिक कार्यकर्ता खोकन मार्डी कहते हैं, “हम अपनी आजीविका के लिए भूमि और जंगलों पर निर्भर हैं। कोयला खनन, न केवल हमारे घरों को छीन लेगा बल्कि हमें कंगाली में धकेल देगा। हमारे लिए जंगल,  जलाऊ लकड़ी, पत्तियों और औषधीय जड़ी-बूटियों का एक प्रमुख स्रोत है। खनन से ये सब कुछ खत्म हो जाएगा। हमें सरकार से किसी तरह के आर्थिक लाभ या मुआवजे की जरूरत नहीं है। हम जंगल को अपना देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। हम किसी को भी इसे नष्ट करने की अनुमति नहीं देंगे।“ मार्डी कहते हैं कि प्रशासन द्वारा स्थानीय युवाओं को खदानों में नौकरी देने का आश्वासन एक ढकोसला है।

कोयला खदानों के खिलाफ अभियान चलाने वाले पर्यावरण कार्यकर्ताओं को प्रशासन द्वारा धमकी दी जा रही है कि वे इससे दूर रहें। परियोजना से प्रभावित पर्यावरण संरक्षण संगठन (पीएपीए) के महासचिव स्वराज दास ने कहा, “सरकार ओपन-कास्ट माइनिंग की योजना बना रही है, जो सब कुछ खत्‍म कर देगा। हमने पिछले साल अपने आदोलन की शुरुआत, परियोजना के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए घरों और गांवों की दीवारों के बाहरी हिस्से को पेंट करके की थी, लेकिन प्रशासन लगातार हमें धमकी दे रहा है कि हम इससे दूर रहें या फिर गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। प्रशासन ने अभियान को रोकने के लिए दीवारों को वापस सफेद कर दिया है। सरकार को बिजली उत्पादन के लिए कोयले की बजाय ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों की तलाश करनी चाहिए।”

स्थानीय निवासियों ने प्रस्तावित खदान परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन  करना भी शुरू कर दिया है। 9 सितंबर को, लगभग 1,000 लोगों ने तीन घंटे तक स्थानीय पुलिस स्टेशन के सामने प्रदर्शन किया। पिछले दिसंबर में, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्वीकार किया था कि कोयला खदान की वजह से स्‍थानीय लोगों का विस्‍थापन, एक समस्या है। उन्होंने कहा था, “हमने वहां खनन शुरू करने का फैसला किया है, जहां इस तरह की समस्या नहीं है। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां हम कोयला निकालना शुरू कर सकते हैं। अगर हम जल्द ही काम शुरू करते हैं, तो हमें दीवानगंज और हरिनसिंह में 24 महीनों के भीतर कोयला मिलना शुरू हो जाएगा, जहां हमें केंद्र से मंजूरी मिल गई है। निकट भविष्य में, कोयले से हमारे राज्य में बिजली उत्पादन, आने वाले 100 वर्षों तक सुनिश्चित होगा।”

राजनीतिक संतुलन

सितंबर 2018 में, भारत की केंद्र सरकार और राज्य सरकार के स्वामित्व वाली पश्चिम बंगाल पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके बाद निगम को भूमि आवंटित की गई। दो साल से, राज्य सरकार जमीन पर काम शुरू करने में विफल रही है। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को अच्छी तरह याद है कि जबरदस्‍ती भूमि अधिग्रहण का प्रयास ही, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाली राज्य सरकार की हार का प्रमुख कारण बना था। उस समय ममता बनर्जी ने ही भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया था।

अगले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होंगे। अब तृणमूल कांग्रेस को राज्य में बड़ी संख्या में स्थानीय मतदाताओं की नाराजगी से भी बचना है और

एक उद्योग समर्थक पार्टी के रूप में भी काम करके संतुलन बनाना है जिससे नौकरियों का सृजन होता है।

प्रशासन की स्थानीय लोगों को लुभाने की कोशिश

महीनों से, पश्चिम बंगाल सरकार के अधिकारी, निवासियों के डर को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अब तक बहुत कम सफलता मिली है। इस साल 9 जुलाई को, राज्य सरकार में तत्कालीन मुख्य सचिव, राजीव सिन्हा ने निवासियों के साथ बैठक की। उन्होंने स्थानीय लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि परियोजना उनके समग्र विकास के साथ राज्य का भी विकास करेगी। प्रशासन द्वारा निवासियों की मनमानी और जबरदस्ती विस्‍थापन के आरोपों का खंडन करते हुए सिन्हा ने स्पष्ट किया कि सरकार पुनर्वास योजना पर काम कर रही है। उन्होंने कहा, “हम किसी को भी जमीन से नहीं निकाल रहे हैं। हमारा विशेष ध्‍यान पुनर्वास पर है और इस दिशा में अनेक कदम उठाए जा रहे हैं।“

उसी दिन, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ट्वीट किया कि यह पूरे भारत में बड़ी परियोजनाओं के लिए एक “मॉडल” की तरह होगा। राज्य सरकार के अधिकारियों ने मुआवजे या पुनर्वास पैकेज के बारे में कोई ठोस बात नहीं कही है, केवल इतना कहा गया है कि जो भी होगा “उचित” होगा वो किया जाएगा।

इस इलाके के कुछ ऐसे क्षेत्रों में शरद ऋतु में सरकंडे का फूल खिलते हैं जहां पर प्रदूषण नहीं है। स्थानीय लोग ऐसी साफ-सुथरे जल स्रोतों पर निर्भर हैं। [Image by: Gurvinder Singh]
इस इलाके के कुछ ऐसे क्षेत्रों में शरद ऋतु में सरकंडे का फूल खिलते हैं जहां पर प्रदूषण नहीं है। स्थानीय लोग ऐसी साफ-सुथरे जल स्रोतों पर निर्भर हैं। [Image by: Gurvinder Singh]
कोयले का अर्थशास्त्र

विस्थापन और पर्यावरण को नुकसान के मुद्दों के अलावा, विशेषज्ञ कोयला खनन में होने वाले निवेश की आर्थिक समझ पर सवाल उठा रहे हैं। भारत के ऑनलाइन बिजली बाजार में, कोयले से चलने वाले संयंत्रों की तुलना में, सौर और पवन ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं से मिलने वाली बिजली सस्ती है।

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के निदेशक संजय वशिष्ठ ने कहते हैं, “कोयला जलाने से बिजली उत्पादन की तुलना में अक्षय ऊर्जा अब अधिक विश्वसनीय, सस्ती और स्वच्छ है। कोयले का उपयोग करने का कोई मतलब नहीं है, खासकर जब आप स्वास्थ्य और पर्यावरण नुकसान पर विचार कर रहे हैं,जब कोई कोयला का उपयोग करता है तो लोगों को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। कोयले में निवेश, अब नेतृत्व की कमी को दर्शाता है। कोयले को जमीन में ही छोड़ देना चाहिए। रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियारों के लिए जीवाश्म ईंधन के लिए एक अप्रसार संधि बनायी जानी चाहिए। ”

Gurvinder Singh कोलकाता के एक पत्रकार हैं।