जलवायु

हीटवेव के कारण कश्मीर में चरवाहें कर रहे हैं अपने भविष्य की चिंता

इस साल चले प्रचंड लू के कारण जम्मू-कश्मीर का चरवाहा समुदाय परेशान है क्योंकि गर्मी की वजह से घास नष्ट हो चुकी है और पानी की उपलब्धता भी कम हो गई है। दुनिया में बढ़ते तापमान को देखते हुए कई लोगों के मन में भविष्य को लेकर अनिश्चितता और तमाम आशंकाएं पनप रही हैं।
हिन्दी
<p><span style="font-weight: 400;">कश्मीर के ओल्ड बनिहाल कार्ट रोड में अपनी बकरियों और भेड़ों के झुंड के साथ एक चरवाहा। अपने इस झुंड के लिए चारगाहों की खोज करना इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। (फोटो: कलीम गीलानी)</span></p>

कश्मीर के ओल्ड बनिहाल कार्ट रोड में अपनी बकरियों और भेड़ों के झुंड के साथ एक चरवाहा। अपने इस झुंड के लिए चारगाहों की खोज करना इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। (फोटो: कलीम गीलानी)

इस साल, कश्मीर के हरे-भरे चरागाहों की तरफ़ गुर्जरों और बकरवालों का वार्षिक प्रवास बीते कुछ सालों की तरह नहीं था। आमतौर पर, ये दोनों चरवाहा समुदाय, नवंबर से अप्रैल तक जम्मू में बिताते हैं और मई से अक्टूबर तक कश्मीर में। लेकिन हीटवेव यानी भीषण गर्मी की वजह से उन्होंने इस साल की शुरुआत में ही जम्मू छोड़ देने पर मजबूर हो गए। 

मार्च के अंत में, कश्मीर के बनिहाल पास पर पहुंचकर, बकरवाल समुदाय की सदस्य फूला बेगम और उनका परिवार अपनी भेड़ों को चराने के लिए अच्छे चरागाह खोजने के लिए संघर्ष कर रहा है। वह कहती हैं, “प्राकृतिक संसाधन हमारी आय का एकमात्र स्रोत हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वे अब सिकुड़ रहे हैं। हमारे पशुओं के झुंड के लिए हर दिन जगह कम होती जा रही है। पर्याप्त घास उपलब्ध नहीं है। यह हम सभी के लिए बेहद चिंता की बात है।”

people on a paved road in hilly area
अपने परिवार के साथ फूला बेगम। इस चित्र में पीछे दिखने वाले हिस्से को वह “सूखे और जले हुए” चरागाह कहती हैं।  (फोटो: कलीम गीलानी)
गुर्जर और बकरवाल कौन हैं?

गुर्जर और बकरवाल समुदाय भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में खानाबदोश चरवाहे हैं। ये मुख्य रूप से बकरियां और भेड़ चराते हैं। भारतीय संविधान के तहत, उन्हें “अनुसूचित जनजाति” के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ये वे स्थानीय समुदाय हैं जो अक्सर सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित हैं। जनगणना के अनुसार, 2011 में यह आदिवासी आबादी 13 लाख थी, जो जम्मू और कश्मीर की कुल आबादी का लगभग 12 फीसदी थी।

हर साल गर्मियों में, चरवाहे जम्मू के जंगली मैदानों से कश्मीर के अल्पाइन घास के मैदानों की ओर पलायन करते हैं। इस प्रवास की वजह है उनके पशुओं के लिए चरागाह ढूंढना क्योंकि गर्मियों में जम्मू सूखा रहता है। ये खानाबदोश समुदाय, एक महीने तक, पहाड़ी ढलानों और सड़कों को पार करते हैं। रास्ते में केवल कुछ समय के लिए ही रुकते हैं।

ऐसी हीटवेव कभी नहीं देखी

इस साल, गुर्जर और बकरवाल समुदाय, असामान्य लू से प्रभावित हुए। गर्मी ने इस साल मार्च और अप्रैल में नए रिकॉर्ड बनाए। एक स्वतंत्र मौसम भविष्यवक्ता फैजान आरिफ केंग के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में मार्च में, कई दिनों तक ये तापमान सामान्य से 10 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।

भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, ऊंचे पहाड़ों में बसे शहर श्रीनगर ने इस साल 131 वर्षों में सबसे गर्म मार्च का अनुभव किया। वहीं, श्रीनगर से तकरीबन 250 किमी दूर मैदानी शहर जम्मू ने साल 1982 के बाद से दूसरे सबसे गर्म मार्च का अनुभव किया। 

केंग ने द् थर्ड पोल को बताया कि बढ़ते तापमान की यह प्रवृत्ति पूरे क्षेत्र में देखी जा रही है। केंग ने यह भी कहा कि अप्रैल में पहलगाम और बनिहाल ने एक दशक में अपना उच्चतम तापमान दर्ज किया जिसमें बटोटे में दो दशकों में सबसे अधिक तापमान दर्ज किया गया। ये एक बड़े जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में मौसम की स्थिति चरम सीमाओं की ओर बढ़ गई है।

लू ने चरागाहों की घास को नष्ट कर दिया और पानी की उपलब्धता को कम कर दिया, जिससे चरवाहों को जल्दी पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन, कश्मीर पहुंचने पर, चरवाहों ने पाया कि गर्मी ने वहां भी चरागाहों और पानी को प्रभावित किया है।

rocky stream with low water level
कश्मीर घाटी के वेरिनाग में स्थित ओमोह नद में एक असामान्य रूप से सूखी धारा। चरवाहों का कहना है कि अगस्त के अंत तक इस धारा में जलस्तर बहुत अधिक होना चाहिए।  (फोटो: कलीम गीलानी)

करीबन 50 वर्षीय चरवाहा अल्ताफ कोशी द् थर्ड पोल से कहते हैं, “एक समय था, जब हम अपने मवेशियों और भेड़ों को विशाल भूमि में चराने का आनंद लेते थे, लेकिन वे सुखद दिन अब खत्म हो गए। अब वही भूमि एक रेगिस्तान के रूप में दिखती है। इन सब वजहों से हमारे पशुओं को भोजन की कमी का सामना करना पड़ता है।”

कम चारा, सीमित पानी से जूझते कश्मीर के चरवाहें

चरवाहा समुदाय, जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं। अपने खानाबदोश जीवन शैली के कारण, उनमें से ज्यादातर के पास जमीन नहीं है और वे अपनी आजीविका के लिए वन संसाधनों पर निर्भर रहते हैं। 62 वर्षीय मोहम्मद शफी बोकडा का मानना है कि इस भयानक लू ने उनके परिवार के पारंपरिक जीवन शैली पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जिससे उन्हें अपने पशुओं के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए नए तरीके खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

cattle in rocky stream looked over by man sitting on large rock
एक चरवाहा, वेरिनाग में स्थित ओमोह नद में एक धारा में पानी पीते अपने पशुओं को देख रहा है। यह धारा अब काफी सिकुड़ गई है। (फोटो: कलीम गीलानी)

बोकडा द् थर्ड पोल को बताते हैं, “मेरे 100 भेड़ों के झुंड को खिलाने के लिए, कभी-कभी धान की खेती करने वाले स्थानीय किसानों से पुआल खरीदने के अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता है। एक ऐसा भी समय था, जब मैंने 200 से अधिक भेड़ें पाल रखी थी, लेकिन भोजन की इतनी अधिक कमी मैंने कभी नहीं देखी।” 

बढ़ते खर्च को पूरा करने में असमर्थ बोकडा अब अपने आधे पशुओं को बेचने पर विचार कर रहे हैं। वह कहते हैं, “कल उन सभी को भूख से मरते हुए देखने से कम में रहना बेहतर है। अब तक, मैंने घास की खरीद पर लगभग 10 हजार रुपये  खर्च किए हैं। मुझे नहीं लगता कि अब मैं इससे अधिक खर्च कर पाने की स्थिति में हूं।”

children sitting in grassy, hilly area surrounded by shrubs
हरियाली के बीच एक तस्वीर के लिए पोज़ देते बच्चे। चरवाहों का कहना है कि उनके पशुओं को खिलाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। (फोटो: कलीम गीलानी)
person standing in hilly pasture with dry vegetation
वेरिनाग में स्थित ओमोह नद के ऊपरी हिस्सों में स्थित चरगाहों में इस साल सीमित वनस्पति है।  (फोटो: कलीम गीलानी)

बढ़ते तापमान के कारण कई अन्य लोगों को भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गुर्जर और बकरवाल समुदाय के एक नेता चौधरी हारून खटाना ने द् थर्ड पोल को बताया कि चरागाहों के सिकुड़ने से चरवाहा समुदाय के लिए दूरगामी परिणाम हैं। वह कहते हैं, “इस मौसम में चरवाहों के परिवार न केवल अपने अधिकांश पशुधन बेच रहे हैं, बल्कि अनगिनत भेड़ और मवेशी घातक बीमारियों का शिकार हो रहे हैं, जो हमारे लिए भोजन की सीमित उपलब्धता के कारण कुपोषण का प्रत्यक्ष परिणाम है।”

बारिश मामूली राहत प्रदान करती है

पिछले कुछ हफ्तों में कभी-कभार हुई बारिश ने हालांकि कुछ राहत दी है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि प्रचंड लू ने काफी ऊंचाई पर स्थित जमा बर्फ के भंडार को कम कर दिए हैं, जिससे मौसम के शुरुआत में ही असामान्य रूप से उच्च नदी का प्रवाह शुरू हो जाता है और गर्मियों के लिए जल संसाधनों में कमी आती है।

कश्मीर विश्वविद्यालय के एक प्रमुख भू-सूचना विज्ञान शोधकर्ता इरफान राशिद ने द् थर्ड पोल को बताया, “वर्तमान में, 4,300 मीटर [समुद्र तल से ऊपर] से नीचे के अधिकांश लैंडस्केप, बर्फ विहीन हैं। हमारा अनुमान है कि अगर कश्मीर क्षेत्र के ऊपर बना वायुमंडलीय प्रवाह पैटर्न, नमी लेकर नहीं आता है, तो गर्मियों के दौरान, कम प्रवाह, सिंचित कृषि को प्रभावित कर सकता है।”

पिछले दो वर्षों में, कश्मीर में वार्षिक वर्षा में गिरावट आई है। 2020 और 2021 में, भारत मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के अनुसार, क्रमशः 22 फीसदी और 29 फीसदी वर्षा की कमी थी। इस साल मार्च से मई के बीच 70 फीसदी बारिश कम हुई है।

women on street carrying vessels on their heads
शहनाजा (बाएं), उसके दोस्त और परिवार के लोग पास की एक धारा से पानी लेकर घर जाते हुए। (फोटो: कलीम गीलानी)

चरवाहों को ग्लेशियरों से बहने वाली धाराओं से पानी मिलता है, इसलिए पानी की संभावित कमी बहुत चिंताजनक है। 19 साल की शहनाजा ने द् थर्ड पोल को बताया, “यह हमारे पानी का एकमात्र स्रोत है। अगर इसमें और गिरावट जारी रही, तो हमारे पास पानी नहीं रहेगा।” 

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि एक हीटवेव समस्या नहीं है, बल्कि, पहाड़ों में लगातार बढ़ता तापमान, चरागाह उत्पादकता और अल्पाइन लैंडस्केप में जल संतुलन को प्रभावित कर रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय के राशिद कहते हैं, “इसका अल्पकालिक प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन यह देखते हुए कि क्षेत्र के लिए जलवायु अनुमान भविष्य में अपेक्षाकृत गर्म तापमान की ओर इशारा करते हैं, ये रुझान चिंताजनक हैं।”