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पानी की किल्लत से बुंदेलखंड में महिलाओं की ज़िंदगी हो रही है मुश्किल

एक एनजीओ के अनुमान के मुताबिक, मध्य भारत में सूखे के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में पानी की भारी कमी से 70 फीसदी तक महिलाएं प्रभावित हैं।
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<p>कमलावती अपने पति रघुनंदन यादव के साथ दूध पहुंचाने का काम करती हैं। असमान बारिश, जरूरी सुविधाओं की कमी और कठिन भौगोलिक स्थितियों के बीच बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी का इंतजाम करना एक बहुत मुश्किल काम है। यहां पानी लाने की जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं के ऊपर ही होती है। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)</p>

कमलावती अपने पति रघुनंदन यादव के साथ दूध पहुंचाने का काम करती हैं। असमान बारिश, जरूरी सुविधाओं की कमी और कठिन भौगोलिक स्थितियों के बीच बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी का इंतजाम करना एक बहुत मुश्किल काम है। यहां पानी लाने की जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं के ऊपर ही होती है। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

गर्मी के मौसम में हर दिन कमलावती यादव सुबह छह बजे उठकर, आधा किलोमीटर पैदल चलकर, एक निजी बोरवेल वाले घर तक जाती हैं। कमलावती कहती हैं, ”मैं सबसे पहले पानी का इंतजाम करती हूं। पानी का एक डिब्बा अपने सिर पर रखती हूं और दूसरा अपने हाथ में।”

घर लौटकर वह अपने बेटों को जगाती हैं, जो गर्मी के कारण, घर के बाहर अपनी खाट पर सो रहे होते हैं। 

अपने परिवार के पांच लोगों की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनको शाम को फिर वही चक्कर लगाना पड़ता है। दोनों वक्त को मिलाकर वह 72 लीटर पानी अपने घर लाती हैं। वह कहती हैं, “हमें प्रतिदिन चार बाल्टी पानी से ही अपना काम चलाना पड़ता है।” वह अपनी बेटी की मदद से कंटेनरों को घर के अंदर ले जाती हैं।

Kamlawati wakes up one of her sons, who has been sleeping outside the house where it is cooler.
कमलावती अपने बेटे को जगाती हैं जो घर के बाहर एक ठंडी जगह पर सो रहा है। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

जब कमलावती के पति रघुनंदन यादव को पशुओं की देखभाल से समय मिलता है तो वो भी कभी-कभी उनके साथ बोरवेल तक जाते हैं और कंटेनर को अपनी साइकिल पर ले आते हैं। कभी-कभी उनके बेटे भी मदद करते हैं, लेकिन परिवार के लिए पानी सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी अंततः उन पर ही होती है। 

यादव परिवार बुंदेलखंड के सतना जिले के बरुआ गांव में रहता है। बुंदेलखंड, मध्य भारत में एक पहाड़ी, सूखा-प्रवण क्षेत्र है, जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। बुंदेलखंड में 1.8 करोड़ से भी अधिक की आबादी निवास करती है। 

भारत के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के एक प्रभाग प्रमुख, अनिल गुप्ता ने 2015 में लिखा कि बुंदेलखंड हाल के दशकों में “सूखे, बेरोजगारी और पूरे साल पानी की किल्लत का दूसरा नाम बन चुका है।”

पानी की बढ़ती किल्लत

भारत के आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय की अनुशंसा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक व्यक्ति को एक दिन में 55 लीटर पानी उपलब्ध होना चाहिए।

लेकिन अगर कमलावती के परिवार का उदाहरण देखें तो उनके परिवार के पांच सदस्यों को चार बाल्टी पानी मिल पाता है। यानी हर एक इंसान के लिए प्रति दिन केवल 29 लीटर पानी ही उपलब्ध है। यह अनुशंसित न्यूनतम मात्रा का लगभग आधा है। 

बुंदेलखंड में पानी की कमी और विशेष रूप से महिलाओं पर इसके प्रभाव के बारे में सीमित आंकड़े ही मौजूद हैं। 

बांदा और चित्रकूट जिलों में जल प्रबंधन और महिलाओं के सशक्तिकरण से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले एक एनजीओ, अभियान के जिला समन्वयक सुनील कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि उनके संगठन के पास कोई विश्वसनीय आंकड़े नहीं हैं और न ही सरकार की ओर से कोई आंकड़ा उपलब्ध है।

बुंदेलखंड में पानी की कमी वाले किसी भी क्षेत्र में 60-70 फीसदी तक महिलाएं इस समस्या की चपेट में हो सकती हैं। 
सुनील कुमार श्रीवास्तव, अभियान

हालांकि वह यह भी कहते हैं, “मेरे अवलोकन के अनुसार, चित्रकूट के मानिकपुर क्षेत्र में लगभग 70 फीसदी महिलाएं पानी की भारी कमी से प्रभावित होंगी। वास्तव में, बुंदेलखंड के किसी भी इलाके में जहां पानी की कमी है, वहां 60-70 फीसदी महिलाएं इस समस्या से जूझ रही होंगी।” ऐसा इसलिए है क्योंकि घरेलू जरूरतों में पानी की अहम भूमिका होती है और इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी महिलाओं की मानी जाती है।

चित्रकूट के जिलाधिकारी शुभ्रांत कुमार शुक्ला ने द् थर्ड पोल को बताया कि चित्रकूट का पाठा क्षेत्र विशेष रूप से जल-संकट से प्रभावित है। इस क्षेत्र में 50-60 ग्राम पंचायतें शामिल हैं। यह इलाका सूखा और चट्टानी है। 

प्रबंधन की समस्या

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम के पैटर्न में बदलाव आ रहा है, बुंदेलखंड में बारिश का रवैया भी बदल रहा है। साल 2013 और 2018 के बीच, इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा में 60 फीसदी की गिरावट आई है।

इसके बावजूद, 2020 में भू-वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि इस क्षेत्र में औसत वर्षा “पर्याप्त” है। हालांकि उन्होंने बुंदेलखंड को पानी की कमी वाली श्रेणी में चिह्नित किया है। शोधकर्ताओं ने लिखा है कि इसका कारण “चट्टानी सतह, उच्च तापमान, पानी का तेज बहाव, भूजल कम होने और ऊपरी ढलानों के वनों की कटाई जैसे विभिन्न पर्यावरणीय कारक” हैं। 

चित्रकूट में स्थित पर्यावरणविद गुंजन मिश्रा ने खनन और कठोर चट्टानों को इसके पीछे प्रमुख कारणों के रूप में उजागर किया है। खनन की वजह से पानी को भूमि के अंदर पहुंचाने वाले रास्ते बाधित हो जाते हैं।  पथरीला इलाका इस समस्या को और बढ़ा देता है। इसकी वजह से बारिश का पानी बह जाता है और भूजल रिचार्ज नहीं हो पाता।

बुंदेलखंड में अंडरग्राउन्ड जल स्तर की स्थिति बिगड़ी है।
गुंजन मिश्रा, पर्यावरणविद

वह कहते हैं, “ललितपुर, चित्रकूट, महोबा जिलों में चल रहे खनन और कठोर चट्टानों के कारण [बारिश के बाद] भूजल की कमी में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां किसानों ने [वर्षा जल संचयन करने के लिए] तालाब बनाए हैं, लेकिन यह [भूजल] के स्तर को केवल एक किलोमीटर के दायरे में बढ़ाने में मदद करता है। इसलिए, हम कह सकते हैं कि भूमिगत जल स्तर की स्थिति इस क्षेत्र में खराब हुई है।” 

कमलावती के परिवार ने इस गिरावट का अनुभव किया है। उनके गांव बरुआ में सरकार द्वारा बनवाया गया एक कुआं और एक हैंडपंप है। ग्रामीणों ने द् थर्ड पोल को बताया कि पहले दोनों में, पूरे गर्मी के महीनों में पानी हुआ करता था, लेकिन 2009 में यह बदल गया।

अब केवल मार्च और शुरुआती अप्रैल के बीच ही पानी कमलावती 400 मीटर चलकर हैंडपंप से पानी ला सकती हैं। इसका पानी अप्रैल समाप्त होने से पहले ही सूख जाता है और अगस्त या सितंबर तक यह इसी तरह रहता है। इसलिए कमलावती का परिवार पानी के लिए किसी के एक निजी बोरवेल पर आश्रित है।

Raghunandan Yadav points to show how far away the family’s source of water is during the summer months (Image: Jigyasa Mishra)
रघुनंदन यादव बताते हैं कि गर्मी के महीनों के दौरान परिवार के पानी का स्रोत कितना दूर है। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

अधिकारियों ने द् थर्ड पोल के साथ बातचीत के दौरान बताया कि बुंदेलखंड के इस हालात को ठीक करने के लिए वे कदम उठा रहे हैं। जिलाधिकारी शुक्ला कहते हैं, “हम [चित्रकूट में] 62 गांवों में पानी के टैंकरों की आपूर्ति करते हैं, जो विभिन्न बस्तियों के बीच चलते रहते हैं और लोग इनसे पानी प्राप्त करते हैं।” 

वह बताते हैं, “यह काम अप्रैल से शुरू होता है और जून तक चलता है, जब तक कि मानसून नहीं आ जाता और कुएं तथा पंप काम करना शुरू नहीं कर देते।”

शुक्ला कहते हैं, “दीर्घकालिक समाधान के लिए हम जल शक्ति मंत्रालय के तहत जल जीवन मिशन द्वारा कार्यान्वित ‘हर घर जल’ कार्यक्रम के लिए काम कर रहे हैं, जिसके तहत पाइपलाइनों का काम चल रहा है और इस साल के अंत तक, हम चित्रकूट और उसके आसपास के हर गांव में पाइप से पानी की आपूर्ति करने में सक्षम होंगे।”

सरकारी दावों के बावजूद सफाई की समस्या बरकरार

पानी की कमी से स्वच्छता भी प्रभावित होती है। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि सतना जिला, बुंदेलखंड के अन्य जिलों की तरह, अब खुले में शौच से मुक्त हो गया है। लेकिन द् थर्ड पोल से बातचीत करने वाली महिलाओं के जीवन से यह दावा मेल नहीं खाता।

कमलावती कहती हैं, “हमारे पास बाथरूम भी नहीं है। गांव में बहुत कम लोगों के पास है। हम करेंगे भी क्या, जब वहां पानी ही नहीं है?” वह कहती हैं, “हम सब नहाने के लिए कुएं के पास जाते हैं।”

Santo Devi bathes at the well in Michkurin village of Bundelkhand then (Image: Jigyasa Mishra)
बुंदेलखंड के मिचकुरिन गांव में संतो देवी कुएं पर स्नान करती हैं। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)
The 72-year-old then hauls water up from a well
foot of a woman filling up an old plastic container with water from a well
72 वर्षीय एक बुजुर्ग महिला कुएं से पानी निकालती हैं। पानी से एक पुराने प्लास्टिक के कंटेनर को भरती हैं। इस कंटेनर में पहले खाना पकाने वाला तेल होता था। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

कमलावती के गांव से बमुश्किल 10 किलोमीटर दूर संतो देवी भी एक कुएं से पानी लाने के लिए रोजाना आधा किलोमीटर पैदल चलती हैं। संतो देवी 72 साल की हैं। उनका कहना है कि मॉनसून के दौरान, जब वह एक खेत में शौच के लिए गईं तो वह एक बार कीचड़ में फिसलकर गिर गईं और उनकी कलाई टूट गई।

संतो अपने बेटे और बहू के साथ मिचकुरिन गांव में रहती है। उनका घर एक व्यस्त मुख्य सड़क से बमुश्किल 100 मीटर की दूरी पर है। यहां रात में ट्रक गुजरते हैं और दुर्घटनाओं का खतरा होता है। साथ ही, अजनबी लोगों का भी डर रहता है।

वह द् थर्ड पोल से कहती हैं, “अगर शाम, रात या बहुत सुबह के वक्त मेरी बहू को शौच जाने की जरूरत पड़ जाए तो वह अकेले नहीं जा सकती क्योंकि यह जगह सुरक्षित नहीं है।” 

जिलाधिकारी ऐसी स्थितियों के लिए ‘स्थापित हो चुकी जड़ सामाजिक धारणाओं’ को जिम्मेदार ठहराते हैं। शुक्ला ने दावा किया कि शौचालय की सुविधा मौजूद होने के बावजूद, “ऐसे एकाकी परिवार उभर रहे हैं जो खुले में शौच का विकल्प चुनते हैं। इसके अलावा, यह एक व्यवहार संबंधी बदलाव है और अब हम उन 90 फीसदी लोगों में सकारात्मक बदलाव देखते हैं, जो कुछ साल पहले तक खुले में शौच करते थे।”

लेकिन समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती। कमलावती का कहना है कि जब उनकी बेटी को मासिक धर्म हो रहा होता है, तो उसे नहाने और सैनिटरी कपड़े धोने के लिए एक हैंडपंप तक जाने के लिए 2 किलोमीटर तक चलना पड़ता है।

कमलावती की बेटी 15 वर्षीय अनुराधा कहती हैं, “पहले दिन से चौथे तक और कभी-कभी पांचवें दिन तक, दर्द और चिलचिलाती धूप में मुझे चार किलोमीटर तक आना-जाना पड़ता है। मैं यहां अपने एक कमरे के घर में कपड़े नहीं बदल सकती और न ही घर में सीमित पानी से इसे खुलेआम धो सकती हूं… कभी-कभी, जब असहनीय दर्द होता है तो मैं एक ही कपड़े को घंटों तक इस्तेमाल करती हूं क्योंकि तब मैं चलने में असमर्थ हो जाती हूं।” 

Kamlawati with her daughter Anuradha (Image: Jigyasa Mishra)
कमलावती अपनी बेटी अनुराधा के साथ (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

रफीक अंसारी चित्रकूट के जिला अस्पताल में प्रसूति-स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। वह कहते हैं, “ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का प्रजनन स्वास्थ्य वैसे भी खराब है। जलवायु संबंधी चरम परिस्थितियों, एक महामारी और कभी न खत्म होने वाले जल संकट के कारण यह समस्या निश्चित रूप से बढ़ जाती है। पानी की कमी उन्हें अधिक श्रम करने के लिए मजबूर करती है और [उन्हें] स्वच्छता बनाए रखने में बाधक बनती है।” 

जाति भी बढ़ा रही कठिनाइयां 

भौगोलिक और लैंगिक स्थितियों की वजह से उत्पन्न समस्याएं जाति की वजह से और भी जटिल हो जाती हैं। कमलावती कहती हैं, “जिस परिवार से हम पानी लेने जाते हैं, उनका अपना [बोरवेल] है और वे हमें रोजाना चार बाल्टी पानी आसानी से दे देते हैं। इससे पहले हमें एक किलोमीटर दूर अन्य परिवार से पानी मिलता था। एक दिन, उन्होंने हमसे चार बाल्टी पानी के लिए 50 रुपये वसूलना शुरू कर दिया। हालांकि, वे ठाकुरों से कोई पैसा नहीं लेते।” 

कमलावती और उनका परिवार अन्य पिछड़ा वर्ग समूह का हिस्सा हैं, जो भारत के आधिकारिक आंकड़ों में चार व्यापक सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों में से एक है। ये चार श्रेणियां हैं: अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य श्रेणी। केवल सामान्य श्रेणी को ही “उच्च जाति” माना जाता है।

Raghunandan milks one of his buffaloes (Image: Jigyasa Mishra)

रघुनंदन अपनी एक भैंस से दूध निकाल रहे हैं। (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

परिवार के पास छह भैंस हैं और वह उन्हें पानी पिलाने के लिए स्थानीय तालाब पर निर्भर हैं।

स्टील के एक बर्तन में भैंस से निकालकर रखे गए ताजे दूध की तरफ इशारा करते हुए कमलावती के पति रघुनंदन कहते हैं, “यह हमारी आय का एकमात्र स्रोत है। मैं इसे 30 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से बेचता हूं। महीने भर की हमारी कुल आय केवल 2700 रुपये होती है।”

वह भैंस से दूध निकालना बंद करते हैं और निकाले गए ताजे दूध को आगे पहुंचाने के लिए निकल जाते हैं।

इस आलेख में कुछ लोगों के नाम उनकी गोपनीयता बनाए रखने के लिए बदल दिए गए हैं।