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सौर ऊर्जा वाले करघों से बदल रही है भारत के रेशम बुनकरों की ज़िंदगी

दिल्ली का एक सोशल एंटरप्राइज पूरे भारत में महिला रेशम बुनकरों को सौर ऊर्जा से चलने वाले करघे बेच रहा है जिसका उद्देश्य आत्मनिर्भरता, सहूलियत और टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
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<p>एक रेशम बुनकर, बुधरी गोयारी असम के भौरागवाजा गांव में अपने घर पर सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीन &#8216;सिल्की स्पिन&#8217; के साथ। यह मशीन उनके स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा 2019 में वितरित की गई थी। ( (फोटो: श्री घाना कांता ब्रह्मा के द्वारा दी गई)</p>

एक रेशम बुनकर, बुधरी गोयारी असम के भौरागवाजा गांव में अपने घर पर सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीन ‘सिल्की स्पिन’ के साथ। यह मशीन उनके स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा 2019 में वितरित की गई थी। ( (फोटो: श्री घाना कांता ब्रह्मा के द्वारा दी गई)

असम के कोकराझार जिले के भौरागवाजा गांव में बुधरी गोयारी, अपने आंगन में ‘एरी’ रेशम के कोकून की रीलिंग में व्यस्त हैं। रेशम के कोकून के अपने कंटेनर के पास, गोयारी, सौर ऊर्जा से चलने वाली रीलिंग मशीन के साथ बैठी हैं।

बोडो जनजाति की गोयारी, भारत के आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों की उन 20,000 महिलाओं में से एक हैं, जिनके पास दिल्ली स्थित एक सामाजिक उद्यम, रेशम सूत्र द्वारा निर्मित सौर ऊर्जा से चलने वाली रीलिंग मशीनें हैं। बोडो असम का एक अल्पसंख्यक स्थानीय समुदाय है। 

2019 में सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीन पर स्विच करने से पहले, गोयारी थाई-वीविंग की पारंपरिक तकनीक का उपयोग करती थीं। यह प्रक्रिया बहुत मेहनत वाली और दर्दनाक थी। वह बताती हैं, “उसमें रेशम के कोकून की रीलिंग  के लिए पैर मोड़ करके बैठना होता था और इन फिलामेंट्स को अपने हाथों से घुमाना होता था।” 

इस प्रक्रिया में जांघों पर चकत्ते और घाव होना एक आम बात है। 

वह बताती हैं, “मुझे [भी] रोजाना पीठ, गर्दन और पैरों में दर्द का अनुभव होता था, क्योंकि मुझे दिन में पांच से छह घंटे एक ही स्थिति में बैठना पड़ता था।” 

वह यह भी बताती हैं कि चूंकि उनके गांव में बिजली की आपूर्ति अक्सर बाधित रहती थी, उस वजह से उनको अकसर कम रोशनी में काम करना पड़ता था, जिससे उनकी आंखों पर भी दबाव पड़ता था।

गोयारी बताती हैं कि इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद, वह केवल 100 ग्राम रेशम का उत्पादन कर पाती थीं। इससे उनको रोजाना मुश्किल से 100 रुपये की कमाई होती थी। लेकिन जब से उन्होंने सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीन का उपयोग करना शुरू किया है, उनका उत्पादन और आय दोगुनी हो गई है। 

गोयारी अब प्रतिदिन लगभग 250 ग्राम रेशम की रीलिंग करती हैं और उस रेशम के धागे को व्यापारियों को बेचकर 250 रुपये कमाती हैं। इस तरह से उनका उत्पादन और कमाई पहले की तुलना में दोगुने से भी अधिक हो गई है। उनको अब चोट या दर्द की दिक्कत भी नहीं झेलनी पड़ती। 

रेशम उद्योग से जुड़ी ज़रूरी समस्याओं को हल करना 

रेशम सूत्र के संस्थापक और निदेशक कुणाल वैद का कहना है कि सौर ऊर्जा से चलने वाली बुनाई मशीनों की पहल कई कारकों से प्रेरित थी। इस सेक्टर से काफी लंबे समय से जुड़े वैद का कहना है कि जब वह इन कामों सिलसिले में झारखंड और उत्तर-पूर्व भारत के अन्य राज्यों में जाते थे, तो देखते थे कि इस काम में लगे रेशम बुनकरों को किस तरह से चोट और तकलीफों का सामना करना पड़ता था। 

बुनकरों के साथ बातचीत के माध्यम से, उन्होंने पाया कि युवा पीढ़ी आम तौर पर थाई-रीलिंग के पारंपरिक काम को जारी रखने में रुचि नहीं रखती थी। उनका कहना है कि इन अहसासों ने उन्हें और उनकी टीम को ऐसी मशीनों के साथ इनोवेशन के लिए प्रेरित किया जो रेशम बुनाई से जुड़े कारीगरों पर पड़ने वाले भौतिक प्रभाव को कम करेगी और इसे रोजगार का एक आकर्षक और व्यवहार्य स्रोत बनाएगी।

जब से गोयारी ने सौर ऊर्जा से चलने वाली रीलिंग मशीन का उपयोग करना शुरू किया, तब से उन्हें अपने करघे के लिए सौर ऊर्जा की निर्बाध आपूर्ति होने लगी है।

सोशल एंटरप्राइज रेशम सूत्र, बैक-अप सोलर बैटरी भी देती है। इससे वह रात में और बरसात के मौसम में भी काम कर सकती हैं। दरअसल, यह ऐसा समय होता है जब सोलर पैनलों को प्रत्यक्ष ऊर्जा स्रोत के रूप में उपयोग करने के लिहाज से बहुत बादल होते हैं। इसके अलावा, काम करने के लिए एक लाइट बल्ब भी रेशम सूत्र की तरफ़ से दिया जाता है जिससे वह कभी भी काम कर सकें। 

A solar-powered silk weaving machine
सौर ऊर्जा से चलने वाली रेशम बुनाई मशीन ‘सिल्की स्पिन’, सोशल एंटरप्राइज रेशम सूत्र द्वारा डिजाइन की गई है और उसी के द्वारा निर्मित भी है। (फोटो: श्री घाना कांता ब्रह्मा के द्वारा दी गई)

वैद कहते हैं, 2019 में अपनी शुरुआत के बाद से यह पहल, प्रत्यक्ष खरीद और सरकारी वितरण दोनों के माध्यम से 16 राज्यों के 350 गांवों तक पहुंच गई है। लेकिन यह कार्यान्वयन चुनौतियों से रहित नहीं है, जैसे कि बुनकरों द्वारा रेशम बुनाई की नई पद्धति को पूरी तरह से अपनाने को लेकर सामान्य अनिच्छा।

वह कहते हैं, ”ग्रामीण इलाकों से महिलाओं को एकजुट करना और उन्हें मशीनों के इस्तेमाल के लिए मनाना काफी मुश्किल है।” हालांकि डीजल से चलने वाले करघों की तुलना में अधिक किफायती, रेशम सूत्र की मशीनें अभी भी 10 हजार से 40 हजार रुपये तक आती हैं। यह रकम गोयारी की पहले की दैनिक आय से लगभग 100 गुना अधिक है।

इस निवेश के बारे में चिंताओं को कम करने के लिए, रेशम सूत्र ने स्थानीय स्तर पर सामाजिक कार्य करने वालों के साथ जागरूकता सत्र आयोजित किए। 

इन सत्रों में रेशम बुनकरों को मशीनों और सौर ऊर्जा के लाभों के बारे में बताया गया। बुनकर आम तौर पर इस बात को लेकर चिंतित रहते थे कि मशीनों का उपयोग कैसे किया जाएगा, कितने समय तक ये उत्पादक रहेंगी, उन्हें चलाना  कितना आसान है और क्या इससे बनने वाला रेशम उच्च गुणवत्ता का होगा। रेशम सूत्र को काफी हद तक इस पहल में सफलता मिली है। संस्था ने पिछले चार वर्षों में सौर ऊर्जा से चलने वाली 20,000 बुनाई मशीनें बेची हैं।

रेशम सूत्र के करघों की लागत को देखते हुए, यह संस्था मशीनों की खरीद में वित्तीय सहायता के लिए इच्छुक रेशम बुनकरों को बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों जैसे अन्य ऋणदाताओं से जोड़ रही है।

रेशम उद्योग की रीढ़ महिलाओं को सशक्त बनाना

रेशम भारत के सबसे महत्वपूर्ण निर्यातों में से एक है। वैश्विक उत्पादन में लगभग 18 फीसदी हिस्सेदारी के साथ चीन के बाद भारत, दुनिया में कच्चे रेशम का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। रेशम उत्पादन या रेशम की खेती, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है। असम सरकार के रेशम उत्पादन निदेशालय के अनुसार, रेशम-बुनाई के काम में 60 फीसदी महिलाएं हैं।

थाई-रीलिंग से मशीन रीलिंग की ओर कदम बढ़ाने से महिलाओं को अधिक आय प्राप्त होने की संभावना रहती है। दरअसल, मशीनों से बुने गए रेशम के धागे में आमतौर पर एकरूपता होती है और बेहतर कीमतें मिल सकती हैं।

भारत के पूर्वी तट पर ओडिशा के क्योंझर की 35 वर्षीय आदिवासी महिला कुन्नी देहुरी का कहना है कि जब से उन्होंने सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीन का उपयोग करना शुरू किया है तब से उनके रेशम धागे की कीमतें बढ़ गई हैं। वह कहती हैं कि पहले 50 ग्राम सूत से रोजाना 100 रुपये की कमाई होती थी। अब मशीन से, उतने ही समय में पांच गुना अधिक रेशम का उत्पादन हो जाता है। अब व्यापारी उनसे मशीन द्वारा तैयार रेशम के लिए 8,000 रुपये प्रति किलोग्राम की पेशकश करते हैं।

कार्बन-तटस्थ रेशम उद्योग की ओर

भारतीय रेशम उद्योग के 60 लाख श्रमिकों में से कई छोटे या सीमांत किसान हैं जो रेशम की रीलिंग और बुनाई करते हैं। जो लोग थाई-रीलिंग तकनीक का उपयोग नहीं करते हैं वे आमतौर पर डीजल या बिजली से चलने वाली बुनाई मशीनों का उपयोग करते हैं।

पावरिंग लाइवलीहुड प्रोग्राम के निदेशक अभिषेक जैन कहते हैं, “कई आदिवासी या ग्रामीण कारीगर रेशम को लपेटने के लिए पावर लूम या डीजल से चलने वाली मशीनों का उपयोग करते हैं, जिससे वायु और ध्वनि प्रदूषण होता है।” पावरिंग लाइवलीहुड प्रोग्राम, पॉलिसी रिसर्च एनजीओ द् काउंसिल ऑफ एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) और एनजीओ विलग्रो का ज्वाइंट इनीशिएटिव है।  

संभावित ग्राहकों के बीच इस पहल को प्रचारित करने के लिए पावरिंग लाइवलीहुड प्रोग्राम ने रेशम सूत्र के साथ साझेदारी की। 

जैन यह भी बताते हैं कि कुछ कारीगर हालांकि बिजली से चलने वाले करघों का भी उपयोग करते हैं। हालांकि सौर ऊर्जा [और संबंधित मशीनरी] ग्रामीण भारत में शायद ही उपलब्ध है।  

Green silk worms on a wicker mesh
असम के शिवसागर जिले में मुगा रेशम कीट (फोटो: लुइट चलिहा / पैसिफ़िक प्रेस वाया अलामी)

डीजल और बिजली से चलने वाली बुनाई मशीनों के कार्बन उत्सर्जन से संबंधित आंकड़े बहुत कम ही उपलब्ध हैं। हालांकि 2009 में ब्रिटेन में एक अध्ययन हुआ था जिसके मुताबिक सभी रेशम के कपड़े, उत्पादन से लेकर अपने जीवन काल के अंत तक लगभग प्रति टन रेशम से 25.4 टन कार्बन फुटप्रिंट रिलीज करते हैं। यह शोध पर्यावरण से जुड़ी एक एनजीओ द् वेस्ट एंड रिसोर्स एक्शन प्रोग्राम ने किया था। 

वैद के अनुसार, रेशम सूत्र की सौर ऊर्जा से चलने वाली प्रत्येक मशीन प्रति वर्ष लगभग 850 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन को रोकती है। और ऐसा आकलन है कि बेची गई 20,000 मशीनों ने प्रतिवर्ष 17,000 टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोका होगा।

इस कार्यक्रम को व्यापक बनाने के लिए हमें विभिन्न स्तरों पर नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है। 
कुणाल वैद, रेशम सूत्र के संस्थापक और निदेशक

इसके अतिरिक्त, भारत के पूर्वोत्तर और पूर्वी राज्यों के कई गांवों में बिजली की आपूर्ति अविश्वसनीय है। यह एक महत्वपूर्ण रेशम उत्पादक क्षेत्र है और एरी, मुगा और टसर जैसे रेशम के उत्पादन का पारंपरिक केंद्र भी है। 

जो बुनकर पूरी तरह से बिजली से चलने वाली मशीनों का ही उपयोग करते हैं, उनकी दिक्कत नियमित बिजली आपूर्ति की है। उनके लिए यह बिजली की आपूर्ति पर निर्भर है कि वह दिन में कितना उत्पादन कर सकते हैं और कितना कमा सकते हैं। 

बुनाई वाली मशीनों से परे, रेशम सूत्र की पहल, पूरी आपूर्ति श्रृंखला में सौर ऊर्जा के उपयोग से रेशम उद्योग को कार्बन तटस्थता के एक कदम करीब लाने की उम्मीद कर रही है। 

रेशम सूत्र की पहल के साथ मिलकर काम करने वाले एक एनजीओ विल्ग्रो के प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर श्रीजीत नारायणन बताते हैं कि रेशम के धागे, सौर ऊर्जा से चलने वाले करघों के साथ बुनकरों को बेचे जाते हैं, और जब बुनकर कपड़े तैयार करते हैं, तो वे उन निर्माताओं के साथ जुड़ जाते हैं जो सौर ऊर्जा आधारित सिलाई मशीनों का उपयोग करते हैं।” 

कुणाल का कहना है कि रेशम सूत्र का लक्ष्य पूरे भारत में इस पहल का विस्तार करना है लेकिन इस कार्यक्रम को व्यापक बनाने के लिए, हमें विभिन्न स्तरों पर नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है। इनमें बुनकरों को मशीनें खरीदने के लिए कम लागत वाले ऋण का प्रावधान और ग्रामीण उत्पादकों के बीच अधिक जागरूकता की आवश्यकता है। 

रेशम सूत्र इस बात के लिए भी इच्छुक है कि सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीनों का उपयोग करके विकसित किए गए उत्पादों को स्पेशल इंडस्ट्री सर्टिफिकेशन मिल सके ताकि उन्हें खरीदारों के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सके। साथ ही, उत्पादों के लिए एक व्यापक डिजिटल इकोसिस्टम बन सके ताकि उत्पादक  आंतरिक बाजार से परे भी अपने उत्पादों को बेच सकें।  

सौर ऊर्जा से संचालित करघे की पहल के बारे में बोलते हुए, भारत के कपड़ा मंत्रालय के तहत सेंट्रल सिल्क बोर्ड की वैज्ञानिक किरण मलाली ने द् थर्ड पोल को बताया कि आदिवासी और ग्रामीण महिलाएं हाथ से काम करके रेशम का उत्पादन करती थीं। लेकिन इस तकनीकी हस्तक्षेप के कारण, नए कौशल के साथ महिलाओं ने बेहतर गुणवत्ता वाले और अधिक मात्रा में रेशम का उत्पादन किया है।