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जलवायु परिवर्तन से भारत में फसलों की पैदावार और पोषण में आ रही है कमी 

बढ़ते तापमान और मौसम में उतार-चढ़ाव के कारण भारत में भूख और कुपोषण की समस्या बढ़ सकती है। ऐसी स्थितियों से बचने के लिए देश को तुरंत ठोस प्रयास शुरू करने की जरूरत है।
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<p>जलवायु परिवर्तन से भारतीय किसानों द्वारा उगाए जा सकने वाले भोजन की मात्रा के साथ-साथ उसकी पोषण गुणवत्ता को भी खतरा है। (फोटो: अलामी)</p>

जलवायु परिवर्तन से भारतीय किसानों द्वारा उगाए जा सकने वाले भोजन की मात्रा के साथ-साथ उसकी पोषण गुणवत्ता को भी खतरा है। (फोटो: अलामी)

एमटेक डिग्री वाले 36 वर्षीय रशपिंदर सिंह एक किसान हैं। पंजाब में इनके पास 17 एकड़ ज़मीन है। एमटेक की डिग्री पूरी करने के बाद इन्होंने खेती करने का काम शुरू किया था। यह काम इन्होंने अपने पुरखों से ही लिया है। 

वह कहते हैं, “मैं जमीन से जुड़ा हुआ महसूस करता हूं। खेती मेरी पहचान का एक हिस्सा है, क्योंकि मैं जीवन भर इस सबके बीच रहा हूं।” 

सिंह के लिए, हालांकि, पिछले कुछ साल विशेष रूप से कठिन रहे हैं। बढ़ते तापमान और अनिश्चित वर्षा ने फसलों की पैदावार को प्रभावित किया है। मार्च, अप्रैल और मई में भारत के कई बड़े हिस्सों में भीषण गर्मी के कारण गेहूं की फसल प्रभावित हुई है। इन सबको देखते हुए सिंह कृषि के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। 

वो द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में कहते हैं, “जिस जलवायु परिवर्तन के बारे में हर कोई बात कर रहा है, वह बहुत वास्तविक है। मेरे क्षेत्र के किसान आमतौर पर प्रति एकड़ 18 क्विंटल (1,800 किग्रा) गेहूं उपजा लेते हैं, लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। गर्मी ने न केवल गेहूं, बल्कि आलू और सरसों जैसी फसलों को भी नष्ट कर दिया। बहुत मुश्किल से कुछ फसल ही बच पाई।” 

भारत की खाद्य सुरक्षा पर बढ़ते तापमान का असर

बढ़ते तापमान के कारण, दक्षिण एशिया में खाद्य और नकदी फसलों की उपज में गिरावट की आशंका है। भारत में 1.4 अरब से ज्यादा लोग रहते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 116 देशों में से 101वें स्थान पर है, जो एक गंभीर समस्या का संकेत है।

वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का अनुमान है कि देश भर में, तापमान में 2.5 से 4.9 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि से गेहूं की उपज में 41 से 52 फीसदी और चावल की उपज में 32 से 40 फीसदी की कमी आ सकती है।

अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र (सीआईएमएमवाईटी) के एशिया प्रतिनिधि, अरुण जोशी इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन, तापमान में वृद्धि करते हुए, मौसमी वर्षा में कमी और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि के माध्यम से, पानी की उपलब्धता को भी प्रभावित करता है।

वह कहते हैं, “इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं।” उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल में 24 फीसदी तक की गिरावट की आशंका है। इसके अलावा, गन्ना और चावल जैसी फसलों की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है।

हमारे क्षेत्र के किसान आमतौर पर प्रति एकड़ 18 क्विंटल गेहूं उपजा लेते थे, लेकिन इस साल काफी कम उपज हो पाई है।
रशपिंदर सिंह, किसान 

देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के एक किसान नेता वीएम सिंह कहते हैं, “मक्का जैसी फसलों पर भी इसका प्रभाव हर हाल में पड़ना ही है क्योंकि वे तापमान और नमी के लिहाज से संवेदनशील हैं। वह आशंका व्यक्त करते हुए कहते हैं कि 2030 तक वैश्विक स्तर पर मक्के की फसल में 30 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है।

गन्ने और चावल जैसी फसलों के उत्पादन में भी गिरावट की आशंका है। सिंह यह भी कहते हैं, “मार्च में तापमान में अचानक वृद्धि के कारण कई जगहों पर गन्ने की फसल सूख गई। इससे हम उपज में 30 फीसदी तक की गिरावट की आशंका जता रहे हैं। इसके अलावा, तापमान बढ़ने के कारण सुगर कंटेंट में भी गिरावट आ सकती है।”

भारत, दुनिया में गन्ने के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। इससे जुड़े उद्योग, देश भर में लगभग 5 करोड़ किसानों की आजीविका को प्रभावित करते हैं।

चावल ने एक अलग तरह की चुनौती पैदा की है। बढ़ते तापमान के कारण, जहां चावल की पैदावार में कमी आने की आशंका है, वहीं धान ग्रीनहाउस गैस इथेन के सबसे बड़े उत्सर्जकों में से हैं।

धान के खेतों से इथेन उत्सर्जन को कम करने के साथ ही इसकी पैदावार के लिए लगने वाले पानी की मात्रा को कम करने के लिए कई रणनीतियों पर काम किया जा रहा है।

इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईआरआरआई) की भारतीय प्रतिनिधि रंजीता पुष्कर कहती हैं, “मीथेन उत्सर्जन का एक प्रमुख स्रोत, धान की खेती में प्रयोग किए जाने वाले उर्वरकों और फसल अवशेषों का अपघटन है। नाइट्रोजन उर्वरकों का अकुशल प्रयोग वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन को बढ़ाता है, जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है।”

इसका समाधान खोजने की दिशा में आईआरआरआई ने राइस क्रॉप मैनेजर विकसित किया है।

पुष्कर कहती हैं, “यह उपकरण बताता है कि उवर्रकों का कितनी मात्रा में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलती है। छोटे किसानों की लागत बचती है और मिट्टी का स्वास्थ्य भी सुनिश्चित होता है।”

चावल, दुनिया भर में करोड़ों लोगों का आहार है, इसके महत्व पर बल देते हुए पुष्कर का मानना है कि फसल प्रणाली से बाहर कर देने की जगह चावल को समाधान का हिस्सा बनाना चाहिए। “हमें फसल विविधीकरण के बारे में सोचना शुरू करना होगा। साथ ही, धान की उपज संबंधी विविध प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।”

पोषण में आ रही है गिरावट

ग्लोबल वार्मिंग और अनियमित वर्षा का अनाज की पोषण गुणवत्ता पर प्रभाव दिखा पाने वाले आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं। हालांकि, विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सहमति है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी के विपरीत प्रभाव होंगे क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ा हुआ स्तर, उस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है जो पौधों में प्रोटीन के संश्लेषण के लिए आवश्यक है। 

अनाज की पोषण गुणवत्ता में गिरावट “छिपी हुई भूख” को बढ़ा सकती है। यह कुपोषण का ही एक रूप है जिसमें किसी व्यक्ति को उसके भोजन से ऊर्जा की मात्रा तो पर्याप्त मिल जाती है लेकिन उसमें आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की इतनी कमी रहती है कि यह उसके स्वास्थ्य और विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। 

अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि गेहूं, चावल, मक्का, मटर और सोयाबीन, जब उच्च कार्बन डाइऑक्साइड स्तर के प्रभाव में आते हैं तो उनमें आयरन, जिंक और प्रोटीन की मात्रा में कमी आ जाती है। अध्ययनों से यह भी संकेत मिलता है कि 2050 तक, दुनिया भर में लगभग 14 करोड़ लोग जिंक की कमी से पीड़ित हो सकते हैं, जबकि लगभग 15 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी का अनुभव कर सकते हैं।

पुष्कर, चावल की ऐसी किस्मों को उपजाने की वकालत करती हैं जिनमें जिंक और आयरन का उच्च स्तर हो। उनका कहना है, “हमें पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भोजन की थाली को और अधिक विविध बनाना चाहिए।” 

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की अध्यक्षता करने वाली मधुरा स्वामीनाथन, अधिक विविध आहार की आवश्यकता पर सहमत हैं, जिसमें फल और सब्जियां शामिल हैं, लेकिन उनका यह भी कहना है कि “पोषण के दृष्टिकोण से, पश्चिम में और भारत में, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई अलग होगी।”

वह कहती हैं कि पश्चिम में लोग, मांस के उपभोग को कम करने आह्वान कर रहे हैं। हालांकि, भारत में, जहां प्रति व्यक्ति मांस की खपत नगण्य है, हम लोगों को मांस और अंडे के उपभोग को छोड़ने या कम करने के लिए नहीं कह सकते, क्योंकि ये पोषक तत्वों के अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

खाद्य असुरक्षा पर वैज्ञानिक प्रतिक्रिया 

अपनी खाद्य सुरक्षा की सुनिश्चित करना, भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि आबादी के सबसे कमजोर वर्गों को पौष्टिक भोजन मिल सके। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रीडिंग के प्रोफेसर रह चुके, सीआईएमएमवाईटी के जोशी सुझाव देते हैं, “अधिक पोषण सुनिश्चित करने का एक तरीका, पारंपरिक प्रजनन दृष्टिकोण के साथ जीनोम एडिटिंग को भी शामिल करना हो सकता है। 

जीनोम एडिटिंग का प्रयोग किसी फसल के डीएनए में बदलाव के लिए किया जाता है। मसलन, इसके जरिए गर्मी के प्रति, प्रतिरोधी किस्मों का विकास किया जा सकता है। इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी) चने की इस तरह की किस्मों को विकसित करने की प्रक्रिया में है, जो अधिक पौष्टिक और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से प्रतिरोधी है। भारत के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है, जहां देश में उगाई जाने वाली दालों में चना तकरीबन 50 फीसदी है।

देश में कोई भी भूखा न सोए, यह सुनिश्चित करते हुए हम जलवायु परिवर्तन से मुकाबला कर सकते हैं। 
मधुरा स्वामीनाथन, एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की अध्यक्ष

बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन के लिहाज से कृषि अनुसंधान केंद्रों और किसानों के बीच नजदीकी सहयोग का होना बहुत आवश्यक है।

स्वामीनाथ का कहना है, “अगर किसानों तक जरूरी सूचनाएं पहुंचती रहेंगी तो वे कम उत्पादकता की स्थितियों और यहां तक बढ़ते तापमान के प्रभावों से मुकाबला करने में सक्षम होंगे।” 

हालांकि, भारत में जलवायु-लोचशील कृषि में निवेश में गिरावट की स्थिति में, व्यवहार्य समाधान का सामने आ पाना एक महत्वपूर्ण चुनौती हो सकती है। सरकार ने 2021-22 के बजट में क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर इनिशिएटिव के लिए 55 करोड़ रुपये (67 मिलियन डॉलर) देने का वादा किया था, जिसे 2022-23 में घटाकर 40.87 करोड़ रुपये कर दिया गया।

अनुसंधान के लिए धन की कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए, स्वामीनाथन ने एक आशावादी विचार व्यक्त किया। उन्होंने कहा, “यह सच है कि भारत में उत्पादकता बहुत कम है। हम वियतनाम जैसे देशों से पीछे हैं। हालांकि, यह भी आशावादी होने का एक कारण है क्योंकि अगर हम अपनी उत्पादकता में सुधार कर लें, तो हम खाद्य सुरक्षा संबंधी मुद्दों को दुरुस्त करना सुनिश्चित कर सकते हैं। साथ ही, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी भूखा न रहे, हम जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से भी निपट सकते हैं।”