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पूरे उत्तर भारत में भूजल गिरावट के चलते खेती के लिए उपजता भय

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में, भूजल के मामले में 'अतिशोषित' के रूप में वर्गीकृत जिलों की संख्या में खतरनाक ढंग से वृद्धि हुई है।
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<p>एक आदमी पंजाब में खेतों की सिंचाई करने वाली नहर की मरम्मत करता है, जो भारत के मुख्य ब्रेड बास्केट में से एक है। पिछले 60 वर्षों में, नहरों द्वारा सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 58.4% से गिरकर 28% हो गया है; किसान तेजी से ट्यूबवेल पर निर्भर हैं, जिससे भूजल भंडार समाप्त हो रहा है। (फोटो: सुजुकी काकू/ Alamy)</p>

एक आदमी पंजाब में खेतों की सिंचाई करने वाली नहर की मरम्मत करता है, जो भारत के मुख्य ब्रेड बास्केट में से एक है। पिछले 60 वर्षों में, नहरों द्वारा सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 58.4% से गिरकर 28% हो गया है; किसान तेजी से ट्यूबवेल पर निर्भर हैं, जिससे भूजल भंडार समाप्त हो रहा है। (फोटो: सुजुकी काकू/ Alamy)

विधानसभा चुनावों में पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूजल से सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली सभी राजनीतिक दलों का एक बड़ा वादा रहा। लेकिन अगर इन क्षेत्रों में भूजल का आगे भी और अधिक निष्कर्षण होता रहा तो ऐसा नहीं है कि यह तथ्य बदल जाएगा कि जमीन के नीचे का पानी सूख रहा है।

यही समस्या हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों, शेष उत्तर प्रदेश और बिहार में स्पष्ट है। यह चिंताजनक है क्योंकि चार राज्य भारत में अधिकांश सिंधु और गंगा घाटियों को कवर करते हैं, और देश में सबसे अधिक आबादी वाले और महत्वपूर्ण खाद्य-उत्पादक क्षेत्र हैं।

Graphic: The Third Pole

पंजाब के अधिकांश हिस्सों में भूजल का अत्यधिक दोहन

‘पंजाब’ का शाब्दिक अर्थ है पांच नदियां। फिर भी नदी वाला यह राज्य, जो कि भारत की रोटी की टोकरी है, तेजी से सूख रहा है। भारत के जलशक्ति राज्य मंत्री बिश्वेश्वर टुडु ने 3 फरवरी, 2022 को, संसद को बताया कि पंजाब में 78.9 फीसदी ब्लॉकों को ‘अतिशोषित’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) द्वारा, पिछले साल प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि 1998 और 2018 के बीच हर साल, राज्य के 22 जिलों में से 18 में जल स्तर एक मीटर से अधिक गिर गया। पीएयू ने फसल पैटर्न और तीव्रता में बदलाव, नलकूपों में वृद्धि और नहर के पानी की उपलब्धता में कमी को भूजल की कमी के प्रमुख कारणों के रूप में बताया है। 

अध्ययन में कहा गया है कि 1970-71 में पंजाब में 192,000 ट्यूबवेल थे। 2011-12 तक यह बढ़कर 13.8 लाख हो गये। पिछले 60 वर्षों में नहर से सिंचित क्षेत्र का आकार 58.4 फीसदी से गिरकर 28 फीसदी हो गया है, जबकि नलकूप से सिंचित क्षेत्र 41.1 फीसदी से बढ़कर 71.3 फीसदी हो गया है। छोटे जोत वाले किसान विशेष रूप से नलकूपों की ओर रुख कर रहे हैं, क्योंकि वे नहरों द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले पानी से अपनी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं।

पीएयू में मृदा एवं जल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक और 2021 के अध्ययन के लेखक राजन अग्रवाल ने कहा, “यह उच्च मांग और कम आपूर्ति का एक साधारण मामला है। पानी की डिमांड ज्यादा है और सप्लाई कम। लोगों और सरकार ने नलकूप खोदकर जमीन से पानी निकाल लेना, सबसे अच्छा तरीका मान लिया, जो कि सबसे बड़ी भूल साबित हुई है।

A water pump in a field, Kapil Kajal
हरियाणा के पटौदी में एक बोरवेल। यहां 120 मीटर की गहराई पर पानी मिलता है और नहर का पानी नहीं है, इसलिए लोगों को बोरवेल और ट्यूबवेल लगाने के लिए बड़ी रकम चुकानी पड़ती है. (फोटो: कपिल काजल)

हरियाणा में हालत खराब

2020 में, भूजल पर पहली बार ग्रामीण स्तर के सर्वेक्षण में, हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण (एचडब्ल्यूआरए) ने बताया कि राज्य के 25.9 फीसदी गांव ‘गंभीर रूप से भूजल के मामले में दबाव में हैं। सर्वेक्षण के मुताबिक 6,885 में से 1,780 गांवों में भूजल की स्थिति चिंताजनक है। इन गांवों में जलभृतों का जल स्तर गिरकर 30 मीटर या उससे कम हो गया है।

एचडब्ल्यूआरए के अध्यक्ष केशनी आनंद अरोड़ा ने www.thethirdpole.net को बताया, “लोग पानी बचाने की आवश्यकता को नहीं समझते हैं। भूजल में गिरावट के कारण आने वाली पीढ़ियां एक अंधकारमय स्थिति की ओर हैं। तीन संभावित कारण हैं। पहला है धान और गन्ना जैसी जल-गहन फसलें उगाना। ऐसी फसलों की सिंचाई में भूजल का उपयोग बहुत अधिक होता है और किसान हमारे द्वारा दिए गए नहर सिंचाई के पानी का उपयोग करने के बजाय बड़े पैमाने पर भूजल को बाहर निकाल रहे हैं।

वह कहते हैं, “दूसरा कारण यह है कि राज्य में उद्योग, नगरपालिका की तरफ से होने वाली आपूर्ति या नहर के पानी के बजाय भूजल का उपयोग कर रहे हैं। तीसरा बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है। बारिश का पैटर्न बड़े पैमाने पर बदल गया है। बहुत कम समय में तीव्र वर्षा होती है। यही कारण है कि जलभृत् ठीक से रिचार्ज नहीं हो रहे हैं। भारी वर्षा के दौरान, पानी सीधे जमीन से बहता है और भूमि के नीचे कम रिसता है।

पूरे उत्तर प्रदेश में भूजल में गिरावट

मार्च 2020 तक, उत्तर प्रदेश के 822 ब्लॉकों में से 70 फीसदी और शहरी क्षेत्रों के 80 फीसदी में भूजल स्तर में भारी गिरावट दर्ज की गई है। यह बात 2021 की भूजल रिपोर्ट में कही गई है। राज्य के भूजल विभाग के निदेशक वी.के. उपाध्याय ने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में भूजल पर निर्भरता बड़े पैमाने पर बढ़ी है। जनसंख्या बढ़ रही है और सतही जल गंदा हो रहा है। वर्षा का व्यवहार अनिश्चित है। शहरीकरण के कारण जलभृतों को रिचार्ज करने की कोई गुंजाइश नहीं है और इसके अलावा लोग पानी का दुरुपयोग कर रहे हैं। सिंचाई क्षेत्र हमारे भूजल का 92 फीसदी उपयोग करता है। प्रौद्योगिकी में वृद्धि के साथ, लोगों ने सतही जल के बजाय बोरिंग कराकर जल निकालने का काम शुरू कर दिया है।”

इनकार की मुद्रा में बिहार सरकार

राज्य के लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार में, 38 में से 11 जिलों में भूजल को ‘जल-दबावग्रस्त’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर द्वारा किए गए विश्लेषण में कई जिलों में भूजल स्तर में 2-3 मीटर की गिरावट पाई गई। हालांकि, बिहार पीएचईडी के इंजीनियर-इन-चीफ डी.एस. मिश्रा ने इस बात से इनकार किया कि बिहार में भूजल की कोई कमी है। वह कहते हैं, “हम भूजल की सावधानीपूर्वक निगरानी कर रहे हैं।” गंगा के क्षेत्र में पानी की समस्या पर काम करने वाले एक एनजीओ इनर वॉयस फाउंडेशन के संस्थापक सौरभ सिंह का कहना है: “भूजल में गिरावट के कारण, आर्सेनिक,  आयरन और यूरेनियम जैसे दूषित तत्व पीने वाले पानी में रिस रहे हैं।”

छोटे किसानों पर सबसे ज्यादा मार

पंजाब के होशियारपुर जिले के चकहरियाल गांव के हरमेश सिंह 8 मई, 2021 की सुबह रोज की तरह अपने खेत पर काम करने गए थे। उनकी पत्नी करमजीत कौर ने www.thethirdpole.net को बताया, “अपनी सामान्य दिनचर्या की तरह, हरमेश काम के लिए बाहर गये थे। लेकिन हमें नहीं पता था कि वह कभी वापस नहीं आएंगे।” 42 वर्षीय हरमेश ने अपने खेत के ट्यूबवेल के पास आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी ने कहा, “हमने ट्यूबवेल की स्थापना के लिए 3.2 लाख रुपये (लगभग 4,250 डॉलर) का ऋण लिया। नहर का पानी नहीं मिल रहा था। इसलिए, हमें अपनी फसलों के लिए पानी की जरूरत थी। हमारे पास क़रीब तीन एकड़ (1.2 हेक्टेयर) ज़मीन है लेकिन हम मुश्किल से ही अपनी ज़रूरतों को पूरा कर पाते हैं। क़र्ज़ चुकाना तो भूल ही जाइए। उस कर्ज के दबाव में आकर उन्होंने यह कदम उठाया।”

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के एक किसान रामकिशोर ने 2019 में आत्महत्या कर ली थी। बताया जाता है कि उन्होंने एक ट्यूबवेल स्थापित करने के लिए लिए गए 1,00,000 रुपये (1,300 डॉलर) का ऋण लिया था। उसे चुकता करने के दबाव ने उनकी जान ले ली। बागपत जिले में एक और किसान ने 2016 में खुदकुशी कर ली थी। वह कर्ज में थे और अपने ट्यूबवेल से जुड़े पंप के बिजली बिल का भुगतान नहीं कर सके थे।

पंजाब के लगभग 35 फीसदी किसान छोटी जोत वाले हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है। 2010-11 की कृषि जनगणना के अनुसार, हरियाणा में छोटे किसानों की हिस्सेदारी 68 फीसदी है। छोटे धारकों के मामले में ऋण वाली किश्तों को चुकाने की तो बात छोड़ दीजिए ये लोग अक्सर अपने बिजली बिलों का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं। 2019 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि हरियाणा के 6,10,000 किसानों में से 2,44,000 किसान अपने सिंचाई पंपों के बिजली बिलों का भुगतान करने में विफल रहे।

हरियाणा के जींद जिले के एक किसान फूल सिंह, जिनके पास 1.21 हेक्टेयर भूमि है, वह कहते हैं कि इस क्षेत्र में खेती के लिए उपयुक्त पानी लगभग 300 मीटर की गहराई में पाया जाता है। इस तक पहुंचने के लिए, उन्होंने 2004 में एक ट्यूबवेल स्थापित किया, जिसकी लागत 850,000 रुपये (लगभग 11,300 डॉलर) थी। सिंह कहते हैं, “मैंने इसके लिए कर्ज लिया था। मैं अब तक आधी रकम चुका सका हूं। हमारे लिए एक ही समय में, ट्यूबवेल को चलाये रखना और उसी समय में उसके ऋण का भुगतान करना संभव नहीं है।”

सिंह बताते हैं, “प्रति एकड़,  हम केवल 10,000-15,000 रुपये [130-200 डॉलर] कमाते हैं। लागत के बाद, “हम प्रति माह केवल 6,000-8,000 रुपये [ 80-100 डॉलर] ही कमा रहे हैं। धान के मामले में मुनाफा और भी कम है। हम मुश्किल से ही गुजारा करते हैं। हम एक ही समय में, बिजली बिल का भुगतान और ऋण भुगतान कैसे कर सकते हैं?”

नई दिल्ली स्थित एक एनजीओ, सेंटर फॉर यूथ कल्चर लॉ एंड एनवायरनमेंट के सह-संस्थापक पारस त्यागी का कहना है: “गरीब किसान को स्वेच्छा से या अनिच्छा से ऋण लेकर या जमीन का कोई टुकड़ा बेचकर एक ट्यूबवेल स्थापित करना पड़ता है।” इसके अलावा कुछ अन्य पारिवारिक परिस्थितियां भी सामने आती हैं। एक उदाहरण का उल्लेख करते हुए वह समझाते हैं, “जहां एक खेत के टुकड़े में मूल रूप से एक ट्यूबवेल था, वह बाद में चार भाइयों में बंट गया, इस तरह, उसी क्षेत्र में तीन और ट्यूबवेल लगाए गए। वे सभी जमीन से पानी लेने लगे, जिससे पानी का स्तर नीचे आता गया। जैसे-जैसे जल स्तर गिरता गया, ट्यूबवेल लगाने की लागत और बिजली की लागत में वृद्धि हुई। यह एक दीर्घकालिक आत्महत्या मॉडल है।”

A field of crops with yellow flowers
हरियाणा के झज्जर जिले में सरसों की फसल (फोटो: कपिल काजल)

सरकारों की उदासीनता

पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके ज्ञान सिंह कहते हैं कि खेती को नियमित नवाचार की जरूरत है। लेकिन हम छह दशकों से उसी कृषि पद्धति का उपयोग कर रहे हैं। उनका कहना है, “हरित क्रांति [आधुनिक तकनीकों और प्रथाओं को अपनाने] की 1960 के दशक में आवश्यकता थी, लेकिन अब हमारे पास फसलों का अधिशेष है। लेकिन सरकारें, चाहे राज्यों की हों या केंद्र की, उस समय के लिए कृषि में सर्वोत्तम स्थायी प्रथाओं पर शोध और खोज में विफल रही हैं। ”

सिंह ने कहा, “धान बोना बंद करने का आह्वान, सरकार का किसानों पर दोषारोपण है जो जनता की नज़र में किसानों को दोषी बनाता है।” वह कहते हैं, “सच यह है कि सरकारें न तो प्राकृतिक खेती, सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों, नहर सिंचाई प्रणालियों को बढ़ावा देती है और न ही कम पानी वाली फसलों के लिए अच्छी कीमतें तय करती हैं। इससे किसानों को पहले की तरह गेहूं-धान के चक्र में जाना पड़ा। सरकार ने कभी भी भूजल को प्रदूषित करने वाले उद्योगों या अपने फायदे के लिए सारा भूजल चूस लेने वाली खदानों को नहीं रोका। लोग खुलेआम पानी का दुरुपयोग कर रहे हैं। पंजाब और यूपी चुनाव में, अब भी पानी कोई मुद्दा नहीं है। यह स्पष्ट रूप से, ऐसे मुद्दों को सुलझाने में सरकार की उदासीनता को दर्शाता है।”

एचडब्ल्यूआरए अध्यक्ष केशनी आनंद अरोड़ा ने हालांकि दावा किया कि सरकार किसानों को आधुनिक और अधिक प्राकृतिक प्रथाओं को अपनाने को मनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है, और भूजल के औद्योगिक उपयोग को रोका है। वह कहते हैं, “हम नहर के पानी की आपूर्ति का उपयोग करने और कम पानी वाली फसलों को उगाने के लिए किसानों के दिमाग में एक व्यवहारिक बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं।”