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कोरोना के करंट से किसानों को बचाना ही होगा

भारत में कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन की वजह से कृषि क्षेत्र की हालत काफी खराब हो गई है। ऐसे समय में किसानों के पास तुरंत पैसा पहुंचाने की ज़रूरत है, जिससे गरीब किसानों को राहत मिल सके और वह गर्मियों की खेती के लिए खुद को तैयार कर सके।
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<p>In India, a lot of the winter wheat crop had to be harvested by hand because farmers found it almost impossible to rent harvester combines during the lockdown forced by the Covid-19 pandemic [Image by: Pixabay]</p>

In India, a lot of the winter wheat crop had to be harvested by hand because farmers found it almost impossible to rent harvester combines during the lockdown forced by the Covid-19 pandemic [Image by: Pixabay]

कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने के लिए, भारत में हुए सम्पूर्ण लॉकडाउन ने दक्षिण एशियाई राष्ट्रों की कृषि अर्थव्यवस्था को उलट कर रख दिया है। ग्रीष्म ऋतु में होने वाली कृषि उत्पादन पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, जो कि मई में शुरू होती है। भारत में किसान इन संकटों से अपरिचित नहीं है, परंतु वर्तमान में हुई महामारी के कारण हुईं बाधाएं, बिलकुल ही अलग हैं। अर्थशास्त्रियों और कृषि विशेषज्ञों ने कहा कि सरकार को राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के माध्यम से लघु किसानों और सीमांत किसानों की मदद के लिए आगे आना होगा, जिसमें गरीब ग्रामीण परिवारों के लिए बिना शर्त नकद हस्तांतरण शामिल हो।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च, 2020 को 21 दिन का राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया जो 31 गई तक जारी है। कोविड- 19 से भारत में कम से कम 1 लाख 73 हजार लोग संक्रमित हो चुके हैं और 4970 से अधिक लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। कई अन्य देशों की तुलना में ये संख्या कम है और सरकार का कहना है कि लॉकडाउन की कठोरता के कारण ही ऐसा संभव हो पाया है। लेकिन इससे किसानों के लिए विनाशकारी परिणाण हुए हैं।

कृषि गणना 2015-16 के अनुसार, भारत में 145 मिलियन से अधिक किसान हैं। पांच व्यक्तियों को एक घर में मानने पर, 725 मिलियन लोग या देश की आधी से अधिक आबादी, जो कृषि और संबद्ध गतिविधियों के भरोसे जीवन यापन करते हैं। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों के मुताबिक देश में 82 फीसदी छोटे किसान हैं। इस बहुत बड़े हिस्से पर कोविड-19 महामारी के वजह से होने वाले प्रभावों की सबसे ज्यादा मार पड़ी है।

यहां तक कि लॉकडाउन से पहले मजदूरों की कमी में इजाफा हुआ और तैयार कृषि उपज को बाजार तक ले जाने की गतिविधि ठप सी हो गई। देश के कई हिस्सों में मार्च में असामान्य भारी बारिश होने की वजह से सर्दियों वाली फसल में पहले से ही किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। अकेले उत्तर प्रदेश में, मार्च के मध्य तक 35 जिलों में ओलावृष्टि से लगभग 2.55 बिलियन रुपये की फसलों को नुकसान हुआ, जिससे पांच लाख से ज्यादा किसान प्रभावित हुए।

बहुत ज्यादा नुकसान हो चुका है

वैसे तो अधिकारियों ने कृषि को एक आवश्यक सेवा घोषित किया है जो लॉकडाउन के दौरान जारी रह सकती है, पर लॉकडाउन के दौरान पहले से ही बहुत नुकसान हो चुका है। राजमार्गों पर फंसे ट्रकों को ड्राइवरों द्वारा छोड़ दिया गया था और उन्हें वापस लाना अभी भी एक चुनौती साबित हो रहा है। प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान) जो कि जमीनी स्तर पर काम करने वाले वाला एक गैर-लाभकारी संस्था है और ये संस्था 850,000 ग्रामीण परिवारों के साथ काम करता है। इस संस्था के सत्यब्रत आचार्य कहते हैं कि भारत के कई हिस्सों में लंबे समय तक आपूर्ति श्रृंखला टूटी हुई है। शहरी केंद्रों के पास के किसानों की तरफ से आपूर्ति बेहतर रही है क्योंकि उनकी आपूर्ति की श्रंखला छोटी होती है और इस तरह की आपूर्ति ज्यादातर चालू है।

कम मांग और लॉजिस्टिक्स प्रतिबंध के कारण देश भर में फल, सब्जियां, दूध, मांस और मुर्गी इत्यादि से किसानों को मिलने वाली कीमतें काफी कम हो गई हैं। इस हालात ने छोटे किसानों को संकट में डाल दिया है क्योंकि वे नियमित नकदी प्रवाह के लिए इन्हीं पर निर्भर हैं। एक अन्य गैर-लाभकारी संगठन एक्शन फॉर सोशल एडवांसमेंट (एएसए) जो कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड में 179,000 छोटे किसानों के साथ काम करता है, के निदेशक आशीष मंडल ने कहा, “उच्च मूल्य वाली कृषि बुरी तरह से प्रभावित हुई है।“

खबरों के मुताबिक, मांग में भारी गिरावट, थोक उपज मंडियों के अनियमित कामकाज और विपणन सेवाओं में व्यवधान के कारण सब्जी काश्तकारों ने 30 फीसदी से अधिक फसलों को छोड़ दिया है, जिनकों खेतों से नहीं निकाला गया है।  इससे सब्जी पैदा करने वाले किसानों के बीच वित्तीय दबाव बढ़ गया है। इनमें से ज्यादातर दो हेक्टेयर से कम भूमि पर खेती करते हैं। पोल्ट्री सेक्टर, जो लगभग 15 लाख छोटे किसानों को रोजगार देता है, सबसे बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। नेशनल स्मॉलहोल्डर पोल्ट्री डेवलपमेंट ट्रस्ट के संस्थापक ट्रस्टी अविनाश परांजपे के अनुसार, “कोविड -19 से जुड़ी अफवाहों के चलते ब्रॉयलर चिकन और अंडे की मांग में भारी गिरावट आई“। वह कहते हैं, “छोटे पोल्ट्री फार्मों को एक गंभीर झटका लगा है और पिछले दशकों में हुई प्रगति पूरी तरह से नष्ट हो गई है। अभी, यह अनिश्चित है कि क्या छोटे पोल्ट्री वाले – जिनमें से कई महिलाएं हैं – उनके हालात बिल्कुल ठीक हो पाएंगे। ”

लॉकडाउन के शुरुआती हफ्तों में, देश में मांस का व्यापार भी ध्वस्त हो गया और दूध की आपूर्ति बाधित हुई। बकरी ट्रस्ट के संस्थापक संजीव कुमार ने कहा, “इससे पशुपालकों को परेशानी हुई है, जिन्हें अपने पशुओं को रखने के लिए निरंतर नकदी प्रवाह की आवश्यकता है।”  कुमार ने कहा कि बकरियां गरीब ग्रामीण परिवारों के लिए एक बीमा की तरह हैं और जरूरत के समय उन्हें बेचने में सक्षम नहीं होने के कारण नकदी की कमी होती है। पशु आहार की आपूर्ति समस्या  ने हालात को और भी खराब कर दिया है। कुमार ने कहा, “सरकार को किसानों को प्राथमिकता के आधार पर पशु आहार उपलब्ध कराना चाहिए।”  “हम पशुधन को भूखे नहीं रहने दे सकते।  इससे उत्पादकता में कमी आएगी जिससे किसानों को और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। ”

राजस्थान के ब्यावर के बाहरी इलाके में कोविड -19 की वजह से लॉकडाउन के दौरान बकरियों का एक झुंड। किसान अपनी बकरियों को बेचने में असमर्थ हैं। [image by: Alamy]
कृषि इनपुट की कमी

पशु चारा के अलावा, किसान फसल के इनपुट जैसे गर्मी के मौसम में बीज और उर्वरक में संभावित कमी से भी चिंतित हैं। भारत में 60 फीसदी से अधिक खेती पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है। देश में वर्षा का मुख्य स्रोत जून-सितंबर का दक्षिण-पश्चिम मानसून है, जो इस वर्ष औसत रहेगा, ऐसा भारतीय मौसम विभाग ने 15 अप्रैल को वर्ष के अपने पहले मानसून पूर्वानुमान में भविष्यवाणी की थी।

इसका मतलब है कि किसानों को अपने खेत तैयार करने चाहिए और इस महीने बीज और उर्वरक खरीदना शुरू करना चाहिए। आमतौर पर, मार्च, अप्रैल और मई बीज प्रसंस्करण के लिए चरम गतिविधि का मौसम है। लॉकडाउन के कारण यह गंभीर रूप से बाधित हो गया है। भारत में बीज प्रसंस्करण अनिवार्य रूप से विकेंद्रीकृत है और सरकारी एजेंसियां ​​इसका केवल एक अंश ही प्रबंधित करती हैं।  इस साल, बीज प्रसंस्करण ने ठीक से काम नहीं किया है। चूंकि देश के कई हिस्सों में स्थानीय प्राधिकारी कृषि, बीज और उर्वरकों से भरे ट्रकों की आवाजाही को प्रतिबंधित कर रहे हैं, ऐसे में खरीफ (गर्मियों) की बुवाई के मौसम के लिए इन प्रमुख इनपुट की कमी की आशंका है।

एएसए के मंडल ने कहा, “अगर कोई कमी है, जिसकी संभावना है और बीज की कीमतें बढ़ती हैं, तो यह छोटे और सीमांत किसानों को परेशानी में डाल देगा।”  बड़े किसानों ने पहले ही ऑर्डर दे दिए हैं, जिससे कीमतों पर दबाव बढ़ रहा है।

प्रदान के आचार्य का कहना है, “इससे छोटे किसानों और सीमांत किसानों के लिए बीज मंहगे हो सकते हैं।” कई छोटे किसानों को घर पर संरक्षित बीजों से काम चलाना होगा। नेशनल सीड एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार, भारत को खरीफ सीजन के लिए लगभग 25 मिलियन क्विंटल बीज की आवश्यकता होती है। खेतों से शुरू होने वाला बीज उत्पादन काफी जटिल है। इसमें उत्पादकों, प्रसंस्करण करने वालों, परीक्षण प्रयोगशालाओं, पैकर्स और आगे काम करने वाले ट्रांसपोर्टरों की आवश्यकता होती है। लॉकडाउन ने इसे पूरी तरह से बाधित कर दिया है।

एनएसएआई के पॉलिसी और आउटरीच निदेशक इंद्र शेखर सिंह ने कहा, “कृषि इनपुट पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो गया है और सरकार को कृषि-इनपुट्स से जुड़े सभी छोटी खरीद-फरोख्त और विनिर्माण इकाइयों को काम करने देना चाहिए।”  “हमें ऐसे निर्णय लेने की आवश्यकता है ताकि कोविड -19 से हमारी कृषि और खाद्य आपूर्ति को खतरा न हो।” सिंह ने कहा कि बीज उद्योग को, विशेष रूप से छोटी और मध्यम कंपनियों के लिए, एक विशेष प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता है।

उर्वरक के मोर्चे पर भी परेशानी है। लॉकडाउन के शुरुआती हफ्तों में कई उर्वरक संयंत्रों को बंद कर दिया गया था और उनमें से अधिकांश अभी तक पूरी तरह से काम नहीं कर रहे हैं। मार्केट इंटेलिजेंस प्रोवाइडर आईएचएस मार्किट ने एक नोट में कहा, “भारत जैसी उच्च जनसंख्या को देखते हुए और उर्वरक के नजरिए से, एक आयातक, निर्माता और उपभोक्ता को प्रमुखता देते हुए, बाजार पर संभावित प्रभाव पर अभी चिंता बनी हुई है।” कीटनाशकों के लिए, लॉकडाउन के खत्म होने के बाद भी, सामान्य स्तर तक उत्पादन को बहाल करने में कम से कम एक सप्ताह लगेगा। इसकी बड़ी वजह श्रमिकों की कमी है। स्पेशलिस्ट इंफॉर्मेशन प्रोवाइडर, कैमिकल वॉच के अनुसार, देश भर में विभिन्न चौकियों पर रसायनों की आवश्यक आपूर्ति रोक दी गई है। उत्पादन और आपूर्ति में इन रुकावटों से कीमतों में बढ़ोतरी और उपलब्धता में कमी आने की आशंका है, जो फिर से छोटे किसानों को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

तत्काल वित्तीय प्रोत्साहन

नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन सहित कई अर्थशास्त्रियों ने आय के अप्रत्याशित नुकसान का मुकाबला करने के लिए कई चरणों की वकालत की है।  भले ही भोजन अब सुरक्षित हो, किसानों को रोपाई के अगले मौसम के लिए बीज और उर्वरक खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होती है। इन सभी का कहना है कि कैश ट्रांसफर के मामलों में सरकार ने इस बात को कुछ हद तक माना है। कुछ समूहों के साथ वादा भी किया है। लेकिन ये राशि छोटी भी है और बहुत कम लोगों को इससे फायदा होने वाला है। भारतीय रिजर्व बैंक  की पूर्व डिप्टी गवर्नर ऊषा थोराट ने कहा, “नकद हस्तांतरण की घोषणा की गई है लेकिन वे अपर्याप्त हो सकते हैं। मुझे लगता है कि गरीबों को नकद हस्तांतरण, आगे के राजकोषीय पैकेज का एक हिस्सा होना चाहिए, जैसा कि मनरेगा भी है।”

2005 के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा, गरीब ग्रामीण परिवारों को एक वर्ष में 100 दिन का काम सुनिश्चित करता है।  सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मुफ्त राशन के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के विस्तार के लिए विशेषज्ञों द्वारा सुझाव प्राप्त हुए हैं। छोटे-छोटे समूहों के साथ काम करने वाले लोगों का कहना है कि किसानों को बिना शर्त नकद हस्तांतरण करना होगा ताकि वे मौजूदा स्थिति का सामना कर सकें। मंडल ने कहा, “नकदी की भारी कमी को देखते हुए, सरकार अगले 4-5 महीनों के लिए हर महीने छोटे और सीमांत किसानों को 5,000 रुपये  प्रदान करके मदद कर सकती है।” आचार्य, छोटे किसानों के लिए 7,500-10,000 रुपये के नकद हस्तांतरण के लिए जोर देते हुए, कहते हैं सरकार के पास आसानी से ऐसा करने की क्षमता है।  “प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत अब 100 मिलियन से अधिक किसानों के बैंक खाते हैं। सरकार को खरीफ सीजन की शुरुआत से पहले इन खातों में तुरंत धन हस्तांतरित करने की आवश्यकता है।” उन्होंने यह भी कहा कि राज्य सरकारों को मनरेगा को सुचारू रूप से सक्रिय करना चाहिए। मंडल ने कहा, “कृषि में कोई भी बंदी नहीं हो सकती। कार्य जारी रहना चाहिए। हम अपने किसानों के बड़े तबके को मझधार में नहीं छोड़ सकते”।