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सूखा प्रतिरोधी बाजरा क्या भारत में खाद्य सुरक्षा का रास्ता खोल सकता है?

मौसम संबंधी चरम स्थितियों को देखते हुए भारत में बाजरे को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है। यह पोषक तत्वों से भरपूर अनाज है और सूखे व गर्मी का सामना भी कर सकता है। बाजरे को प्रमोट करने के लिए सरकार की तरफ से काफी उपाय किए गए हैं, बावजूद इसके, इसकी मांग में कमी बरकरार है।
<p>रागी से बनी रोटी। (फोटो: अलामी)</p>

रागी से बनी रोटी। (फोटो: अलामी)

भारत सरकार, घरेलू स्तर पर और दुनिया भर में भारतीय दूतावासों के माध्यम से कम खपत वाली, जलवायु के लिहाज से लोचशील फसल, बाजरा की प्रोफाइल बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रयास कर रही है।

इस प्रयास को विश्व स्तर पर मान्यता भी मिल रही है। जनवरी में, भारत के एक प्रस्ताव के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया। जून में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए व्हाइट हाउस के राजकीय रात्रिभोज के मेन्यू में मैरिनेटेड बाजरा सलाद को शामिल किया गया था। जबकि इस साल भारत में आयोजित प्रत्येक जी 20 बैठक में बाजरा परोसा गया था।

बाजरा क्या है?

बाजरा एक छोटा अनाज है। यह ज़्यादातर एशिया और अफ्रीका में मवेशियों के चारे और मानव उपभोग के लिए उगाया जाता है।

इंसान इसे हजारों वर्षों से खाते आ रहे हैं। सबसे अधिक खेती की जाने वाली किस्म पर्ल बाजरा है। इसके बाद फिंगर बाजरा, प्रोसो बाजरा, फॉक्सटेल बाजरा और बार्नयार्ड बाजरा आते हैं।

बाजरा को बढ़ावा देने का प्रयास 2018 में शुरू हुआ जिसे भारत ने राष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया। उस वर्ष, देश ने गेहूं और चावल की तुलना में उच्च पोषकता के लिए ‘पोषक अनाज’ के रूप में इसकी फिर से ब्रांडिंग की। 

लेकिन सरकार द्वारा भविष्य के सुपरफूड के रूप में बाजरा को बढ़ावा देने के बावजूद, विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी मांग में कमी बनी हुई है। लगातार मौसम की मार झेलने की क्षमता रखने वाले, सूखा प्रतिरोधी इस फसल के उत्पादन और खपत को सुनिश्चित करने के लिए आज की तुलना में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 

मुख्य फसल से अलोकप्रिय फसल तक

बाजरा, 1960 के दशक से पहले भारतीय आहार का प्रमुख हिस्सा था। कृषि नीति विश्लेषक, देविंदर शर्मा, बाजरा की आज की कम मांग की जड़ें 1960 के दशक में शुरू हुई भारत की हरित क्रांति में खोजते हैं। 

उस दौरान देश की कृषि पद्धतियों में प्रौद्योगिकी को व्यापक रूप से अपनाया गया था। शर्मा कहते हैं, “कई किसानों ने गेहूं, मक्का, चावल और अन्य फसलों की उच्च उपज वाली संकर किस्मों को उगाना शुरू कर दिया है।”

भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान की निदेशक सी. तारा सत्यवती बताती हैं, “चूंकि आजादी के वक्त [1947 में] खाद्यान्न के मामले में  भारत सुरक्षित नहीं था, इसलिए खाद्य सुरक्षा हासिल करने के लिए सरकार ने गेहूं और चावल की खेती को प्राथमिकता दी और समर्थन दिया।”

भारत में बाजरा की वार्षिक प्रति व्यक्ति खपत 1960 और 2022 के बीच 30.94 किलोग्राम से गिरकर 3.87 किलोग्राम हो गई, क्योंकि लोग तेजी से गेहूं और चावल का उपभोग करने लगे।

कुछ लोग इसकी कम मांग का कारण इस तथ्य को मानते हैं कि कई-ज्यादातर युवा वर्ग-भारतीयों को गेहूं और सफेद चावल की तुलना में बाजरे का स्वाद और बनावट पसंद नहीं आती

अन्य लोग “चावल-गेहूं केंद्रित नीतियों” को कायम रखने के लिए भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) योजना को दोषी मानते हैं, जो आर्थिक रूप से वंचित पात्र नागरिकों को हर महीने मुफ्त चावल या गेहूं प्रदान करती है। 

इसमें गेहूं और चावल जैसे अनाजों को प्राथमिकता दी गई है। (लगभग 10 में से छह भारतीय इस प्रणाली के माध्यम से वितरित मुफ्त अनाज का उपभोग करते हैं)

सत्यवती के अनुसार, एंटीऑक्सीडेंट और प्रीबायोटिक्स जैसे कई स्वास्थ्य लाभों के बावजूद– जो पेट के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करते हैं- “जब तक कोरोना महामारी के दौरान प्रतिरक्षा-बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया, तब तक बाजरा को खरीदने वाले भी कम थे।” लेकिन लोकप्रियता में अल्पकालिक वृद्धि के बावजूद, अनाज की कुल मांग में कमी बनी हुई है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सहन करना

अध्ययनों से पता चला है कि इस बात की “पर्याप्त संभावना” है कि 21वीं सदी के दौरान वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। सूखा और हीटवेव दो ऐसी जलवायु घटनाएं हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप अधिक आवृत्ति के साथ घटित होना निश्चित है।

ऐसी जलवायु अनिश्चितता के सामने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के साधन के रूप में कम-इनपुट, टिकाऊ कृषि की मांग तेजी से बढ़ रही है।

कई किसानों के लिए, कई मायनों में बाजरा बहुत अहम फसल है। 

सत्तर के दशक के एक किसान विजय जड़धर, जिन्होंने उत्तराखंड के एक गांव में 30 साल तक एक एकड़ भूमि पर यह फसल उगाई है, कहते हैं कि बाजरा एक “कम निवेश” वाली फसल है और इसमें कीटनाशकों और उर्वरक जैसे इनपुट की बमुश्किल आवश्यकता होती है। 

यह दिखाने के लिए पर्याप्त शोध हैं कि बाजरा, भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों का मूल अनाज है। यह एक कठोर फसल है जो गर्म मौसम की चरम सीमा का सामना कर सकती है। हाल के एक अध्ययन के अनुसार, पर्ल बाजरा, जो दुनिया के बाजरा उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा है, में एक गहरी जड़ प्रणाली है जो इसे सूखे से बचने में सक्षम बनाती है। 

इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी) के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और कृषि अर्थशास्त्री   शैलेंदर कुमार ने द् थर्ड पोल से कहा, “भले ही सूखे के दौरान पौधा [बाजरा] सूख जाता है, लेकिन पानी मिलने पर फिर से उगने की क्षमता इसमें बनी रहती है, जिससे यह देर से मानसून आने जैसी स्थितियों के लिए भी एक आदर्श फसल है।” 

2023 के एक अध्ययन ने कम उपयोग वाली फसलों की जलवायु संवेदनशीलता का आकलन करने के लिए एक रूपरेखा विकसित की। इससे पता चला कि तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण गर्म जलवायु की स्थिति में भी, सूखा-प्रतिरोधी प्रोसो बाजरा की पैदावार, बारिश के उच्च स्तर के साथ, 5 फीसदी तक बढ़ सकती है।

बाजरा आपूर्ति बढ़ाने का रास्ता?

गेहूं और चावल के विपरीत, बाजरा सूखे इलाकों और पहाड़ी इलाकों में पनपता है जहां पानी तेजी से बहता है। उत्तराखंड ऐसा ही एक राज्य है। यह पहाड़ी इलाका है। यह हिमालय में एक लैंडलॉक्ड राज्य है। यहां की 

अर्थव्यवस्था मूल रूप से कृषि और पर्यटन पर निर्भर है। यह भारत में बाजरे का एक प्रमुख उत्पादक है जिसने 2020-2021 के दौरान देश में कुल पैदा हुए फिंगर बाजरे का 7 फीसदी और छोटे बाजरे का 20 फीसदी उत्पादन किया। 

उत्तराखंड सरकार के कृषि विभाग में कृषि (योजना) के संयुक्त निदेशक, दिनेश कुमार कहते हैं कि यह राज्य के पहाड़ी इलाकों के नीचे है और तथ्य यह है कि उत्तराखंड का लगभग 89 फीसदी हिस्सा सिंचित नहीं है। धान उगाने लायक बारिश का पानी नहीं मिल पाता है। 

उनका हालांकि यह भी कहना है कि इस तरह के भौगोलिक स्थितियों और जलवायु संबंधी फायदों के बावजूद, उत्तराखंड में बाजरे की खेती में 2012 और 2020 के बीच 25 फीसदी की गिरावट आई है। दिनेश कुमार, किसानों के बीच बाजरा उगाने के प्रति निरंतर अनिच्छा का कारण आंशिक रूप से उनकी पारंपरिक बाजरा उपज की अपर्याप्त मांग को मानते हैं। 

बाजरे को बढ़ावा देने के लिए, उत्तराखंड ने 2022 में फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पेश किया है और इस साल की शुरुआत में, बाजरा की मांग और आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिए राज्य बाजरा मिशन शुरू किया है। इसमें इच्छुक किसानों को फसल के लाभों के बारे में शिक्षित करने के लिए चार दिवसीय उत्सव कार्यक्रम शामिल था।

एमएसपी, किसानों को उनकी फसल के लिए एक निश्चित स्तर की आय की गारंटी देता है। यदि सरकार द्वारा निर्धारित कीमत, प्रचलित बाजार दरों से अधिक है, तो अधिक रिटर्न की संभावना, किसानों को फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित करती है।

दिनेश कुमार कहते हैं कि पिछले साल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 35.78 रुपये प्रति किलोग्राम था, जो नियमित बाजार दर 25-27 रुपये प्रति किलोग्राम से काफी ऊपर था।

उन्होंने यह भी बताया कि इस साल सरकार 38.46 रुपये प्रति किलोग्राम का ऑफर करेगी। 

उत्तराखंड ऑर्गेनिक कमोडिटी बोर्ड के प्रबंध निदेशक विनय कुमार के अनुसार, बाजरे का मार्केट रेट फिलहाल 30 रुपये प्रति किलोग्राम है। 

इसके अतिरिक्त, इस साल, उत्तराखंड सरकार ने किसानों को बाजरे की खेती के लिए प्रोत्साहित करने की उम्मीद में, बाजरा के बीज पर केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित सब्सिडी 50 फीसदी से बढ़ाकर 75 फीसदी कर दी।

भारत में बाजरे के लिए लगातार चुनौतियां

यह स्पष्ट नहीं है कि ये प्रोत्साहन बाजरे की खेती को हरित क्रांति से पहले के स्तर पर बहाल करने के लिए पर्याप्त हैं या नहीं। 

फसल की एमएसपी में 2023-2024 में वृद्धि के बावजूद, पर्ल और फिंगर बाजरे की खेती करने वाले किसानों को अभी भी गेहूं की खेती करने वाले किसानों की तुलना में काफी कम रिटर्न मिलता है। ऐसा ही, सफेद सरसों और सरसों (क्रमशः 40 फीसदी और 12 फीसदी की तुलना में 100 फीसदी और 104 फीसदी) के मामले में भी है। इसलिए बाजरे की फसल किसानों के लिए अपेक्षाकृत लाभहीन हो गई।

शैलेंदर कुमार कहते हैं कि बाजरा बड़े पैमाने पर, कम कीमत वाली बंजर भूमि और पहाड़ी क्षेत्रों में उगाया गया है जहां अन्य मुख्य फसलें नहीं उगती हैं। अगर बाजरे की पैदावार बढ़ानी है, तो हमें इसे उपलब्ध सर्वोत्तम भूमि में उगाना शुरू करना होगा, जो आमतौर पर मक्का, कपास, सोयाबीन और फलियों जैसी प्रतिस्पर्धी फसलों के लिए होती हैं। 

लेकिन आपूर्ति के मुद्दे से निपटने से पहले, किसानों के लिए इस फसल को आकर्षक बनाने के लिए बाजरे की भूख वापस लौटानी होगी। 

जड़धर का मानना है कि लंबे समय तक, अनाज की मांग बनाए रखने के लिए देश के आहार में बुनियादी बदलाव जरूरी है।

उनका कहना है कि हमें अपनी पुरानी खान-पान की आदतों पर वापस जाने की जरूरत है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से किसानों को ज्यादा से ज्यादा पैसा मिलने की बात अपनी जगह है लेकिन अगर भोजन में चावल और गेहूं ही लगातार बना रहा, तो बाजरे को बढ़ावा देने की पहल का क्या ही हो सकेगा। 

कमेंट्स (1)

Sarkar jo muft me gehu-chaval deti hai, uske badle ye alag alag type ka bajra muft me Dene Lage to fir uski demand badegi hi badegi.

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