जलवायु

जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं उत्तराखंड में सीमांत किसान 

बदलता तापमान, अनियमित बारिश और जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाएं उत्तराखंड को प्रभावित कर रही हैं। इन सबके बीच, महिला और दलित किसान, जलवायु परिवर्तन से लड़ने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं।
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<p>चिनोनी गांव की दुकान पर अपनी सब्जी की फसल बेच रहीं चंद्रा देवी। (फोटो: स्वाति थापा)</p>

चिनोनी गांव की दुकान पर अपनी सब्जी की फसल बेच रहीं चंद्रा देवी। (फोटो: स्वाति थापा)

उत्तराखंड के धुधोली गांव में नीमा देवी, अपनी भाभी प्रेमा देवी के साथ बैठकर हाथ से गेहूं की मड़ाई कर रही हैं। कटाई का मौसम खत्म हो गया है। दरअसल, अपने पड़ोसी के आंगन में, हाथ से गेहूं की मड़ाई करने से इन दोनों को अपने मवेशियों के लिए चारा मिल जाता है।

नीमा देवी का कहना है कि उनके पास इतनी ज़मीन भी नहीं है कि उनको अपने जानवरों के लिए पर्याप्त चारा भी मिल सके। दरअसल, नीमा देवी और प्रेमा देवी जैसे कई सारे लोग हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से संघर्ष कर रहे हैं।

हिमालय, वैश्विक औसत की तुलना में ज़्यादा तेज़ी से गर्म हो रहा है। इसका कृषि पर तात्कालिक असर साफ देखा जा सकता है। फसल चक्र और मिट्टी की नमी में फेरबदल हो रहा है। उत्तराखंड मूल रूप से पहाड़ी प्रांत है, हालांकि यहां कुछ तलहटी और मैदानी इलाके भी हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण इस राज्य में समस्या बहुत बढ़ गई है। दरअसल, 2011 की जनगणना के अनुसार, खेती योग्य अधिकांश ज़मीन के टुकड़े 1 हेक्टेयर से कम (राज्य की कुल खेती योग्य भूमि का 36 फीसदी) वाले हैं या छोटी जोत वाली यानी 1 से 2 हेक्टेयर वाले (क्षेत्रफल का 28 फीसदी) हैं।

A woman threshing wheat
गेहूं की मड़ाई करती प्रेमा देवी। (फोटो: स्वाति थापा)

छोटी जोत के कारण अनुकूलन करना कठिन हो जाता है

ऐसा भी नहीं है कि हर कोई इस समस्या से एक तरह से प्रभावित है। एक अध्ययन से पता चलता है कि छोटे और सीमांत किसानों में सभी सामाजिक-आर्थिक समूहों का प्रतिनिधित्व है, जबकि बड़ी कृषि भूमि (4 हेक्टेयर से अधिक) के मामले में यह सच नहीं है।

सच यह है कि बड़ी जोत वाली जमीनें अनुसूचित जाति या दलित समुदाय के सदस्यों के पास नहीं है। बहुत पहले से दलित समुदाय की पहचान, समाज के एक वंचित तबके के रूप में रही है। नीमा देवी और प्रेमा देवी दोनों दलित समुदाय से हैं। निश्चित रूप से आज़ादी के बाद से इस समुदाय ने तरक्की की है। लेकिन अगर जोतों के मालिकाना हक के आधार पर देखें तो इस कम्युनिटी से तालुल्क रखने वाले ज़्यादातर लोग अभी भी हाशिए पर ही हैं। जलवायु परिवर्तन इस सीमित प्रगति के लिए भी खतरा है।

नीमा देवी कहती हैं, “फसलें बेचने के बारे में तो भूल ही जाइए। हम अपना पेट भरने भर का ही उगा लें, वही बहुत है।”

Prema Devi and Neema Devi heading back to their homes with hay they 
collected for their cattle (Image: Swati Thapa)
मवेशियों के लिए चारा लेकर, प्रेमा देवी और नीमा देवी घर वापस जा रही हैं। (फोटो: स्वाति थापा)

जलवायु परिस्थितियों के चलते कुछ किसानों ने नई फसलों की ओर रुख किया। इसके लिए उनको सरकार और विभिन्न एनजीओ से मदद भी मिल जाती है। ऐसे किसानों को इस कदम से फायदा भी हो रहा है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि कई महिलाओं और दलित किसानों के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है।

मसलन, राज्य सरकार अब कीवी के पौधों के लिए सब्सिडी देती है। लेकिन अगर आप यह फल उगाना चाहते हैं तो काफी निवेश की आवश्यकता होती है।

हिमालय में सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर काम करने वाले एक एनजीओ, इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायर्नमेंटल रिसर्च एंड एजुकेशन (आईएनएचईआरई) से जुड़े पवन बताते हैं, “अगर आप किसी फल के बगीचे के जरिए ये सब काम करना चाहते हैं तो आपको एंगल आयरन के सहारे की जरूरत होगी। यह प्रत्येक पौधे के लिए टी आकार का एक सपोर्ट सिस्टम है। और आप एक नाली [लगभग 0.049 एकड़] जमीन में केवल आठ पौधे ही उगा सकते हैं। एक एंगल आयरन की कीमत 4,000-5,000 रुपये है।”

ट्रांसपोर्टेशन और अन्य खर्चों से पहले ही, अकेले इसके बुनियादी ढांचे का खर्च करीब 40 हजार रुपये (500 डॉलर) तक हो जाता है। उत्तराखंड का एक औसत निवासी, दो महीने में तकरीबन 40 हज़ार रुपये कमा पाता है।

ऐसा निवेश, उन छोटे और सीमांत किसानों के बूते से परे है, जो औसत आय से बहुत कम कमाते हैं, खासकर तब जबकि कीवी के पौधों में फल आने शुरू होने में 3-5 साल तक लगते हैं।

सरकार और अन्य संगठन, एक अन्य जलवायु अनुकूलन पहल का सुझाव दे रहे हैं, वह है जड़ी-बूटियों और औषधीय फसलों की खेती। लेकिन इसके लिए बहुत अधिक भूमि की आवश्यकता होती है, जो गरीब किसानों, महिला किसानों या दलित किसानों के पास होने की संभावना नहीं है।

पवन बताते हैं, “अगर हम सिर्फ तुलसी की पत्तियां बेचते हैं, तो बाज़ार मूल्य, वास्तव में कम है। और अगर हम इससे निकाला गया तेल बेचते हैं, तो दरें अधिक होती हैं। लेकिन इसका एक पौधा बहुत कम मात्रा में तेल देता है।”

लेमन ग्रास के लिए भी यही सच है। वह कहते हैं: “यदि आपको 100 मिलीलीटर लेमन ग्रास तेल की आवश्यकता है, तो आपको कम से कम 10 क्विंटल [एक मीट्रिक टन] उपज की आवश्यकता होगी। इसके लिए एक बड़े एरिया की जरूरत होती है।”

Although most farming in Uttarakhand is done by women this sign calls on "farmer brothers' to use organic fertilizers (Image: Swati Thapa)
हालांकि उत्तराखंड में अधिकांश खेती महिलाओं द्वारा की जाती है, लेकिन यह “किसान भाइयों” से जैविक उर्वरकों के उपयोग का आह्वान करता है।(फोटो: स्वाति थापा)

सरकार और विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों की कोशिश है कि जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए जिससे जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलने में मदद मिल सकती है। इस बदलाव को सुविधाजनक बनाने के लिए उत्तराखंड स्टेट ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी (यूएसओसीए) की स्थापना की गई थी। फिंगर बाजरा और बार्नयार्ड बाजरा जैसी स्वदेशी फसलों पर ज़ोर दिया गया है। ये जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लोचशील और फफूंद-प्रतिरोधी हैं। इनको अक्सर सिंचाई के बिना उगाया जा सकता है। हालांकि, यूएसओसीए की गैर-भेदभावपूर्ण नीति तब खोखली लगती है, जब संसाधनों की कमी, छोटे या सीमांत किसानों के लिए जैविक खेती अपनाने में बाधा उत्पन्न करती है।

आईएनएचईआरई की एक कृषि विशेषज्ञ गीता बिष्ट कहती हैं, “कई दलित परिवारों के पास गाय के गोबर से खाद बनाने के लिए पर्याप्त पशुधन भी नहीं है।”

अनियमित बारिश और मामूली सुरक्षा

सीमांत किसान भी वर्षा के भारी उतार-चढ़ाव से जूझ रहे हैं। उत्तराखंड में केवल 45 फीसदी कृषि भूमि सिंचित है। इसलिए अधिकांश लोग अपनी फसलों के लिए वर्षा पर निर्भर हैं।

वंचित तबकों और महिलाओं के अधिकारों पर फोकस वाले एक गैर-सरकारी संगठन, एसोसिएशन फॉर रूरल प्लानिंग एंड एक्शन (अर्पण) के एक क्षेत्र समन्वयक खीमा का कहना है कि बारिश या तो तब आती है जब इसकी आवश्यकता नहीं होती है या बहुत ज्यादा होती है, जिससे फसल नष्ट हो जाती है।

चिनोनी गांव की बसंती देवी ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस साल कटाई के दौरान उनकी गेहूं की फसल कैसे बर्बाद हो गई। उन्होंने बताया कि भारी बारिश से पौधों के दाने बह जाते हैं। जो कुछ बचता है, वह भीग जाता है या अंकुरित हो जाता है या फिर काला पड़ जाता है। किसी भी मामले में इसे इंसान तो नहीं ही खा सकता।

इस साल बेमौसम बारिश से या तो फूल बह गए, या फल खराब हो गए। इसलिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिला।
रमा देवी

नीमा ने कहा कि वह और प्रेमा, गेहूं जैसी फसलें, केवल परिवार की जरूरत के लिए उगाती हैं।

नकद आय, उनकी फलों की फसलों – संतरे, नींबू, आलूबुखारा और आड़ू से होती है। इस साल बेमौसम बारिश से या तो फूल बह गए, या फल खराब हो गए। इसलिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिला।

रमा देवी कहती हैं, “हमने अपने फल बेचे ही नहीं…, अब वे हमारे पेड़ों पर सड़ रहे हैं।”

कुछ किसान व्हाट्सएप समूहों के माध्यम से सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी साझा करते हैं और अपडेट प्राप्त करते हैं। इस काम में गैर-सरकारी संगठन भी भाग लेते हैं। गरीब किसान इससे भी वंचित रह जाते हैं क्योंकि इसके लिए स्मार्ट फोन चाहिए जो वे खरीद नहीं सके।

रमा देवी कहती हैं, ”हमें यहां कुछ भी पता नहीं चलता और जब पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।”

Chandra Devi, a farmer, sells her vegetable crop at the nearby Chinoni village shop (Image: Swati Thapa)
रामा देवी अपनी गेहूं की मामूली फसल के साथ। अनियमित बारिश और जंगली जानवरों द्वारा भोजन की तलाश के कारण उनके परिवार के पास लगभग कुछ भी नहीं बचा है (फोटो: स्वाति थापा)

इस तरह के अप्रत्याशित मौसम को ध्यान में रखते हुए सरकार, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी योजनाओं से किसानों की मदद कर रही है। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि इसका फायदा तमाम गरीब किसानों, विशेषकर महिलाओं और दलित महिलाओं, को नहीं मिल पा रहा है क्योंकि ये लोग जिन जमीनों पर काम करते हैं, उन पर इनका मालिकाना हक नहीं है।

दरअसल, ये लोग जिन जमीनों पर फसल उगाते हैं, उससे होने वाले लाभ को जमीन के मालिक के साथ साझा करते हैं। आईएनएचईआरई के बिष्ट का कहना है कि यह प्रथा उत्तराखंड के पर्वतीय समुदायों में पाई जाती है, लेकिन मैदानी इलाकों में नहीं है। इसके अलावा, ऐसा भी होता है कि कुछ जमीनों के मालिक, ऐसे किसानों को, इस शर्त पर खेती करके सारी उपज रख लेने की अनुमति दे देते हैं कि उनकी जमीन खाली नहीं पड़ी रहनी चाहिए।

इस तरह से जो लोग दूसरों के मालिकाना हक वाली जमीन पर काम करते हैं, उन्हें फसल बीमा का लाभ नहीं मिल सकता है। इसके अलावा, बढ़ते तापमान की वजह से कीटों का हमला बढ़ गया है। साथ ही, फसलों में लगने वाली बीमारियां भी काफी बढ़ गई हैं। इससे किसानों को अधिक कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। नतीजतन, दूसरों की जमीन पर खेती करने वालों का जेब खर्च बढ़ जाता है।

जलवायु परिवर्तन का उपज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। रमा देवी जैसे कुछ किसान इस तरह के नुकसान भुगत रहे हैं। उत्तराखंड में 2021 में विनाशकारी बारिश हुई। बाढ़ आई। कई स्थानों पर संपत्ति का बहुत नुकसान हुआ। जल निकासी की कोई उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण, राजमार्ग का पानी उनके खेतों में भर गया। यह राजमार्ग उनके खेत (उनके पति के नाम पर पंजीकृत) से सिर्फ दस मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इससे लगभग 1,000 वर्ग फीट का उनका खेत एक तरह से बह गया। रमा देवी ने द् थर्ड पोल को बताया, “उन जमीनों पर नींबू और संतरे के पेड़ थे। हमने खीरे भी उगाए थे, लेकिन अब कुछ भी नहीं बचा है।”

जंगल की आग मुसीबतें बढ़ाती हैं

तीसरा जलवायु प्रभाव, उत्तराखंड में जंगलों की आग में वृद्धि है। यह 2002 में 922 से बढ़कर 2019 में 41,600 हो गई है। आग के प्रकोप और गर्म मौसम की अवधि के बीच सीधा संबंध है। नीमा जैसे छोटे किसानों के लिए, इसका मतलब है मानव-पशु संघर्ष, क्योंकि जानवर जंगलों से भागने लगते हैं। नीमा बताती हैं कि बंदर और जंगली सूअर हमारी जमीनों पर कुछ भी नहीं छोड़ते हैं। और चूंकि हमारे घर जंगल के बाहरी इलाके में हैं, इसलिए जंगली जानवरों के निशाने पर सबसे पहले हम लोग ही आते हैं।

लंबे समय तक हाशिए पर रहने का प्रभाव यह है कि उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में दलितों के घर अक्सर गांव के बाहरी इलाके में स्थित होते हैं। इसलिए उनके खेत, जानवरों के आक्रमण के लिहाज से ज्यादा नाजुक हो जाते हैं। इसके अलावा, सामाजिक-आर्थिक समूहों द्वारा इस अलगाव का मतलब यह भी है कि सरकार या गैर-सरकारी संगठनों की पहल या जानकारी, अगर पहुंचती भी है तो उन तक सबसे आखिर में पहुंचती है।

प्रेमा देवी कहती हैं, “कोई भी हमसे मिलने नहीं आता है। हमें ज्यादातर इस बात की जानकारी नहीं होती है कि क्या हो रहा है। कौन सी नई योजनाएं आ रही हैं। यहां तक कि हमारे घरों तक जाने वाले रास्ते का रखरखाव भी अच्छी तरह से नहीं किया गया है। बारिश होने पर उस पर चलना असंभव सा हो जाता है।”

Prema Devi and Neema Devi walk home over difficult terrain. Like many Dalit families in Uttarakhand they live on the village outskirts, with scant facilities or infrastructure (Image: Swati Thapa)
प्रेमा देवी और नीमा देवी, खराब रास्ते से चलकर घर लौटती हैं। उत्तराखंड के कई दलित परिवारों की तरह, वे भी गांव के बाहरी इलाके में रहती हैं, जहां बहुत कम सुविधाएं हैं या बुनियादी ढांचा काफ़ी कमज़ोर है। (फोटो: स्वाति थापा)

रमा देवी का जीवन, दलित समुदायों द्वारा अब तक की गई प्रगति को तो दर्शाता है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। वह द् थर्ड पोल को बताती हैं, “हम और भी नीचे रहते थे और 30 साल पहले यहां आए। अब भी, मुख्य सड़क तक पहुंचने में 15 मिनट लगते हैं। इसलिए हमें कभी पता नहीं चलता कि गांव में क्या हो रहा है।”

उत्तराखंड सरकार, स्थानीय किसानों को बीज, उर्वरक और भारी मशीनरी उपलब्ध कराने के लिए कई योजनाएं चला रही है। हालांकि, किसानों को पहले भूमि से संबंधित दस्तावेज प्राप्त करने होंगे और फिर सब्सिडी वाली सामग्री लेने के लिए ब्लॉक कार्यालय जाना होगा।

सांस्कृतिक बाधाओं के कारण, बहुत सी महिलाएं या तो अशिक्षित हैं या फिर नाममात्र की ही पढ़ी-लिखी हैं। इसके अलावा, सरकारी कामकाज से जुड़ी व्यवस्था में भी ज्यादातर पुरुष ही हैं। ऐसे में, बहुत सी महिलाएं इन परिस्थितियों में खुद को ढाल पाने में फिलहाल ज्यादा सहज नहीं हैं। दिक्कत यह भी है कि इन सब कामों के लिए पुरुषों पर ही निर्भर होना, एक विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि परिवार के भरण-पोषण या बेहतर जिंदगी के लिए उत्तराखंड में पुरुषों का घर छोड़कर, बाहर जाकर, नौकरी करने का एक लंबा इतिहास है।

खीमा कहती हैं, ”यहां योजनाएं पुरुषों के लिए बनाई जाती हैं, इसलिए केवल वे ही उनसे लाभान्वित हो सकते हैं।” कुछ लोगों के लिए अपने घरों से सरकारी कार्यालयों तक की यात्रा भी काफी महंगी है।

धुधोली गांव की एक महिला दलित किसान भारती देवी कहती हैं, “हम इस जमीन से कुछ नहीं कमाते, लेकिन यह हमारा सारा पैसा खत्म कर देती है। जब भी हमको सरकारी कार्यालय (सब-डिवीजनल) जाना पड़ता है तो 350 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इसके बावजूद, खेप कब आएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है।”

द् थर्ड पोल ने उत्तराखंड के अतिरिक्त कृषि निदेशक से यह पूछने के लिए संपर्क किया कि क्या सरकार को इन चुनौतियों के बारे में पता था और क्या प्रकाशन से दो सप्ताह पहले कोई कदम उठाए गए थे। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर यह स्टोरी अपडेट की जाएगी।