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महामारी के बीच ज्यादा असुरक्षित छोड़ दी गई हैं हिमालय की महिलाएं

कोविड-19 संकट ने दक्षिण एशिया में पानी से जुड़ी नीतियों में महिलाओं और हाशिए के समूहों की दीर्घकालिक उपेक्षा को उजागर कर दिया है
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<p>Nomad Chang Pa winter camp, women returning from water fetching in Ladakh [image: Alamy]</p>

Nomad Chang Pa winter camp, women returning from water fetching in Ladakh [image: Alamy]

कोविड-19 के खतरनाक प्रभावों का आकलन इसकी परिभाषा के जरिये बेहद मुश्किल था। इससे पहले सार्स और इबोला के प्रकोपों ने हाल ही में दुनिया को महामारी का खतरा दिखाया था। इनमें जानवरों के माध्यम से मनुष्यों में बीमारियां फैली थीं। प्रत्येक बीमारी के फैलने का अपना तरीका होता है और उसकी अपनी मृत्यु दर होती है। इससे यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है कि पहले से ही किस तरह से इनको जवाब दिया जाए। फिर भी, एक बात तो पहले से स्पष्ट थी कि किसी भी स्वास्थ्य आपात स्थिति से निपटने के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता बेहद आवश्यक है।

मौजूदा संकट ने कुछ ऐसी बातों को उजागर कर दिया है जो इससे पहले कभी नहीं हुईं। कोविड-19 ने विशेष रूप से साबुन और पानी को अतिसंवेदनशील बना दिया है। हालांकि, हर किसी के पास पानी की समान पहुंच नहीं है और हिंदु कुश हिमालयन (एचकेएच) क्षेत्र में, महिलाओं पर पानी लाने और उसके प्रबंधन का बोझ है। वैसे इस बात को समझना काफी मुश्किल है कि किस तरह से विभिन्न कारणों से ये परंपरा पूरे हिमालय क्षेत्र में प्रचलित है, खासकर तब जबकि पूरे क्षेत्र में आपसी सहयोग बेहद सीमित है।

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) में सीनियर जेंडर स्पेशलिस्ट सुमन बिष्ट चुनौतियों का खाका खींचती हैं। सबसे पहली और महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि हिंदु कुश हिमालयन रीजन के आठ देशों – अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार- के बीच रिश्ते कठिन हैं और सीमाओं को लेकर विवाद भी हैं। यह किसी भी कार्य को चुनौतीपूर्ण बनाता है और क्षेत्र के भीतर हाशिये के समुदायों के मामले में यह स्थिति ज्यादा चुनौतीपूर्ण बन जाती है।

फैसले लेने के मामलों में महिलाओं की भागीदारी नहीं

इसका मतलब ये है कि अकसर जब नीतियां या योजनाएं बनाने की बात आती है तो उनकी जरूरतों (और जो परिवार वो प्रबंधित करती हैं) पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस विषय पर अनुसंधान की कमी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। 2012 में आईसीआईएमओडी ने 2012 में भूटान में अपनी तरह का पहला सम्मेलन बुलाया, जहां शोधकर्ताओं ने पहले से मौजूद छोटे शोध कार्यों की समीक्षा की। साथ ही महिलाओं की अतिसंवेदनशीलता और गरीबी के उपाख्यानात्मक आंकड़ों पर चर्चा की। 2009 में प्रकाशित अध्ययनों में से एक- जिसका शीर्षक “सिचुएशनल एनालिसिस ऑफ़ वीमेन वाटर प्रोफेशनल्स” है- पाकिस्तान, भारत, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में प्रशासनिक तंत्र और निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी के बारे में थी। यह संख्या चौंकाने वाली थी (यह स्पष्ट नहीं है कि पिछले दशक में यदि बदलाव आया है तो कितना आया है)। पानी से संबंधित प्रमुख प्रशासनिक तंत्र में महिला कर्मचारियों का प्रतिशत 2 से 5 फीसदी के बीच था। इनमें वरिष्ठ पदों पर कोई नहीं था।

वरिष्ठ पदों पर महिलाओं के न होने का पानी के रखरखाव पर एक स्वाभाविक प्रभाव है क्योंकि पुरुषों और महिलाओं की भूमिकाओं की व्याख्या विरोधाभासी हैं। 2017 में जेंडर्ड रेस्पॉन्सेस टू ड्रॉउट इन युहान प्रॉविन्स, चाइना शीर्षक से हुए अध्ययन में ये अंतर स्पष्ट रूप से सामने लाया गया है। जब युहान क्षेत्र 12 साल तक (2002-14) सूखे से प्रभावित रहा तो इस कारण से यहां के पुरुषों को क्षेत्र से बाहर प्रवास करना पड़ा लेकिन इसने यह भी दिखाया कि पानी की खोज किस तरह से लैंगिक बन गई। पानी इकट्ठा करने पर ध्यान देते हुए महिलाओं और पुरुषों दोनों ने आपदा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन “पुरुषों ने पानी इकट्ठा करने का मतलब पानी के नए स्रोतों की तलाश करना समझा, चूंकि पुराने स्रोत सूख जाते हैं, जो उनकी मुख्य जिम्मेदारी है, जबकि पानी ढोने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से महिलाओं की थी। इस स्थिति में, पुरुषों का मानना था कि वे घरेलू पानी की कमी से निपटने के लिए वह घर के भीतर जिम्मेदार व्यक्ति थे; हालांकि, महिलाओं के दैनिक श्रम में पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक वृद्धि हुई, जबकि उनको अतिरिक्त कार्य के लिए जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में श्रेय नहीं दिया गया। ”

शारीरिक दूरी बनाये रख पाना संभव नहीं

इसका एक पहलू ये भी है कि यह काम काफी कठिन है और इसमें काफी समय लगता है। पानी के स्रोत तक आने-जाने में लंबी दूरी तय करनी होती है, ऐसे में शारीरिक दूरी बनाये रख पाना बेहद मुश्किल है जो कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में बेहद अहम है। ऐसी स्थिति में क्या इसको नीतिगत तवज्जो मिलेगी?

इसकी संभावना कम ही लगती है। पुरुषों के लिए महिलाओं की तुलना में अधिकारियों तक पहुंचना आसान होता था, संभवतः ऐसा इसलिए था क्योंकि निर्णय लेने के मामले में पुरुषों का वर्चस्व था। हेतांग गांव में, जहां युहान का अध्ययन किया गया था, “गांव के समूहों के सभी प्रमुख पुरुष हैं। गांव में एक महिला समूह है, लेकिन वे सामुदायिक निर्णय लेने में शामिल नहीं हैं।” हिंदु कुश हिमालयन मॉनिटरिंग एंड असेसमेंट प्रोग्राम की विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, हिंदु कुश हिमालयन रीजन में चीन ऐसा देश है, जहां लैंगिक भेदभाव सबसे कम था।

ऐसे समाजों में हाशिये पर रहने वाले समूहों की स्थिति और ज्यादा खराब है और ये एक ऐसा पहलू है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ईसीआईएमओडी की सीनियर जेंडर स्पेशलिस्ट चंदा गुरुंग गुडरिच इस बारे में कहती हैं कि नेपाल के तराई क्षेत्र में जाति व्यवस्था की अहम भूमिका है। उच्च जाति के परिवारों के पास अकसर अपना कुंआ या पानी का स्रोत है। ये स्रोत या तो घर के अंदर हैं या ऐसे क्षेत्र में हैं जहां उच्च जातियां रहती हैं। अकसर ऐसा होता है कि यहां से दलित महिलाओं को पानी उपलब्ध नहीं हो पाता है। इसी तरह से प्रशासनिक तंत्र में कम प्रतिनिधित्व (जहां महिलाओं का पहले से ही इतना कम प्रतिनिधित्व है) का मतलब ये है कि हाशिये पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ भी अकसर कम उपलब्ध हो पाता है।

इन सब कारणों से उनको ऐसी अनेक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझना पड़ता है जिनको टाला जा सकता है। लंबे समय तक भारी बोझ ढोने की वजह से महिलाओं को यूट्रस प्रोलैप्स जैसी स्वास्थ्य संबधी दिक्कतें हो जाती हैं। इसके अलावा नियमित रूप से पानी की उपलब्धता में कमी के कारण साफ-सफाई से संबंधित समस्याएं जैसे मूत्र मार्ग में संक्रमण इत्यादि भी हो जाता है।

आगे की पंक्ति में महिला स्वास्थ्य कर्मी

अपनी पीएचडी के दौरान के अनुभव से गुडरिक ने यह भी बताया कि बात जब स्वास्थ्य तंत्र की आती है तो विशेष रूप से भारत में महिलाएं समाज में आगे की पंक्ति में अहम भूमिका निभाती हैं। इनमें सहायक नर्सें और दाइयां ग्रामीणों के संपर्क का पहला बिंदु हैं। इस व्यवस्था में इनको अकसर कम पैसे मिलते हैं। इनमें अकसर विधवा महिलाएं होती हैं। इन सबसे ये समाज में काफी नीचे के पायदान पर रहती हैं। इनको अकसर सामाजिक लांछन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। महामारी के वक्त ये सब और ज्यादा बढ़ जाता है। वैसे तो ये महिलाएं स्वास्थ्य, जल और लैंगिक मुद्दों के मामले में सरकार की प्राथमिक संपर्क सूत्र हैं लेकिन आधिकारिक तंत्र और सामाजिक व्यवस्था में इनकी भूमिका काफी नीचे की है, इसलिए इन समस्याओं को दुरुस्त करने के मामले में सरकारी कामकाज के बदलाव में ये अपनी भूमिका काफी कम निभा पाती हैं।

एक और मुद्दा यह है कि नौकरशाही बीमारी के प्रकोप के समय किस तरह की प्रतिक्रिया देती है। दक्षिण एशिया में एक महामारी फैलने का मतलब है कि जिलों के स्तर पर अधिकारियों को कुछ जिम्मेदारियां लेनी पड़ती हैं, और वे अकसर इससे बचने के लिए समस्याओं को कम करके दिखाना चाहते हैं। गुडरिच ने बताया कि कैसे हैजा के प्रकोप को कभी-कभी उन क्षेत्रों से “फूड पॉइजनिंग” बताकर खारिज कर दिया जाता था, जहां स्थानीय लोगों की सामाजिक-राजनीतिक पहुंच इतनी नहीं थी कि वे इन मामलों को मीडिया और राजनेताओं तक ले जा सकें। जबकि अगर कोरोना जैसी महामारी से तुलना करें तो जलजनित हैजा जैसी बीमारियों का प्रभाव काफी कम होता है लेकिन सामाजिक तौर पर वंचित लोगों के प्रति स्वास्थ्य चिंताओं को नजरंदाज करने की प्रवृत्ति विनाशकारी हो सकती है।

वर्तमान में जब कोविड-19 के मामलों की बात आती है तो वैश्विक स्तर पर दक्षिण एशिया की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं है। वैसे तो इस क्षेत्र में कोविड-19 के पॉजिटिव मामलों की संख्या काफी कम है लेकिन इसमें लगातार तेजी से इजाफा हो रहा है। चिंता की बात ये है कि गर्मी का मौसम अभी शुरू ही हुआ है जो लंबा चलेगा। इससे जल संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है। मामले बढ़ने और पानी की उपलब्धता कम होने के कारण हिंदु कुश हिमालयन रीजन एक विकल्प है : अपनी पानी की समस्याओं से गंभीरता से निपटने के लिए  महिलाओं और हाशिए के समुदायों को अपने निर्णय लेने में शामिल करना  या एक स्वास्थ्य आपातकाल के परिणामों को भुगतना जो कि लंबे समय तक जल संबंधी नीतियों की घोर उपेक्षा से काफी ज्यादा बढ़ गई है।

ऐसा नहीं है कि देश इन चिंताओं को नहीं समझते हैं। नेपाल ने अपने नए संविधान के पारित होने के बाद जल उपयोग मास्टर प्लान पेश किया है, जिसमें स्पष्ट रूप से महिलाओं और हाशिये के समुदायों मसलन, दमित जातियों जैसे दलितों को शामिल करना अनिवार्य है। इन विषयों पर आईसीआईएमओडी के एक अध्ययन से पता चलता है कि इससे कुछ फर्क पड़ा है, लेकिन समावेशी परिणाम अभी भी कम और सामाजिक अवरोध काफी ज्यादा हैं।

उदाहरण के लिए, दलितों के साथ जल स्रोतों को साझा करने के लिए प्रभावशाली जाति समूहों की अनिच्छा के कारण “समाधान” यही था कि अलग जल स्रोत की व्यवस्था हो। कोइरालाकोट के ग्राम जल स्वच्छता और साफ-सफाई समन्वय समिति के सदस्य के रूप में बताया गया, “हम अब पेयजल योजनाओं में अस्पृश्यता के मुद्दों से नहीं जूझते। अब हमारे पास अपने नल हैं और उनके (दलितों) के पास अपने नल हैं।

कोविड-19 संकट यह दर्शाता है कि बीमारियां भेदभाव नहीं करती हैं, लेकिन समाज और राज्यों पर पड़ने वाला उसका प्रभाव असंगत हो सकता है। हिंदु कुश हिमालयन रीजन के लिए ये वक्त इस मामले में बेहद अहम है कि वह महिलाओं और हाशिये के समुदायों की समस्याओं को गंभीरता से लें, नहीं तो उनको इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।