महासागर

बंगाल की खाड़ी को बचाने के लिए आठ देश हुए एकजुट

अपने राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर अनुदान देने वाले प्रमुख जीईएफ देश दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी के मैंग्रोव और मूंगा चट्टानों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
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<p>Inflow of tidal waters, Mousuni island, Sundarbans © Arjun Manna/WWF-India</p>

Inflow of tidal waters, Mousuni island, Sundarbans © Arjun Manna/WWF-India

वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ) ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कषि संगठन (एफएओ) के नेतृत्व में संचालित बंगाल की खाड़ी के बड़े समुद्री पारिस्थिकी तंत्र (बीओबीएलएमई) परियोजना के लिए 15 मिलियन डॉलर की आर्थिक मदद को मंजूरी प्रदान की है। इस परियोजना का उद्देश्य दीर्घकालिक मत्स्य पालन को बढ़ावा, समुद्री प्रदूषण को कम करना और इसके तटों के पास रहने वाले लगभग 400 मिलियन लोगों के जीवन में सुधार करना है।

इस परियोजना के दूसरे चरण में दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी के छह मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में आठ देशों बांग्लादेश, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, मालदीव, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड के समुद्र तटों को शामिल किया जाएगा। वियतनाम के दानांग में 28 जून, 2018 को समाप्त हुए चार वर्ष में एक बार होने वाले जीईएफ सम्मेलन में यह मंजूरी प्रदान की गई।

विश्व के लगभग 37 मिलियन स्थानीय मछुआरों, आठ प्रतिशत मैंग्रोव्स और 12 प्रतिशत मूंगा चट्टान पाये जाने वाली बंगाल की खाड़ी को बचाने की आवश्यकता काफी समय पहले ही स्पष्ट हो गई थी, नतीजतन यह परियोजना की शुरुआत दस वर्ष पहले कर दी गई थी।

बंगाल की खाड़ी का इंटरैक्टिव मैप

इस परियोजना का प्रथम चरण अभी समाप्त हुआ है। बेशक, जीईएफ में शामिल लोग इस बात से वाकिफ हैं कि आर्थिक मदद अभी जरूरत के इर्द-गिर्द भी नहीं है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि आठ सरकारें इसमें शामिल होंगीऔर अनुदान को सह-वित्त पोषण में दस गुना बढ़ाने में इसका उपयोग करेंगी।

सहयोग का सृजन

परियोजना के प्रथम चरण महत्वपूर्ण निभाने वाले एफएओ के विशेषज्ञ, रूडोल्फ हर्मीस का कहना है कि बीओबीएलएमई परियोजना के प्रथम चरण की सबसे बड़ी उपलब्धि “सीमाओं पर स्थित देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा मिलना और देशों के बीच विश्वास की स्थापना”है।

पाल्क स्टेट पर भारत और श्रीलंका के बीच, म्यांमार-थाईलैंड की सीमा के द्वीपों की श्रृंखला पर और अन्य भी कई ऐसी बंगाल की खाड़ी में सरकारों के बीच के विवाद पूरे जग में विख्यात हैं। यहां तक कि जब कोई विवाद नहीं होता है, तब भी सभी का एक संयुक्त प्रबंधन योजना पर सहमत मुश्किल होता है, जैसा कि भारत और बांग्लादेश के बीच फैले दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव जंगल सुंदरबन के साथ है।

हर्मीस कहते हैं कि परियोजना के प्रथम चरण ने विश्वास स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। “हमें बताया गया था कि हमें एक क्षेत्रीय कार्यक्रम को नहीं चला सकते थे, जब दो क्षेत्र, दक्षिण एशियाई क्षेत्र के चार देश और दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र के चार देश, शामिल थे लेकिन हमने उन्हें दिखाया है कि यह भी किया जा सकता है।अब इस शुरुआत पर काम करने का समय है।”

जैसा कि परियोजना के दूसरे चरण में होगा। हर्मीस कहते हैं, “यह एक मत्स्य पालन पर आधारित पर्यावरणीय कार्यक्रम है और यह प्रदूषण और आजीविका पर भी ध्यान केंद्रित करता है।”

दरार का भरना

परियोजना के प्रथम चरण में काफी गहराई से शामिल श्रीलंका के वायम्बा विश्वविद्यालय की सेववंडी जयकोडी कहते हैं कि जब परियोजना शुरू हुई थी, तब “अपर्याप्त वार्ता साझा मछली भंडार में हिस्सेदारी की अधूरी जानकारी, सीमा के देशों की बीच अपर्याप्त संवाद थे। पारिस्थितिकी तंत्र पर ज्ञान बढ़ाने, स्थानीय सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देने और ट्रांसबाउंड्री प्रदर्शन गतिविधियों के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार की शुरुआत के जरिये परियोजना के प्रथम चरण ने इसे सकारात्मक रूप से संभाला।”

जयकोडी आगे कहते हैं, “अब हम जानते हैं कि हिल्सा और शड और मैकेरल भंडार की मात्रा और ये कैसे वितरित होती है। इसके लिए हम भारत के केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान के विस्तृत अध्ययन का आभार प्रकट करते हैं। भारतीय समुद्री जैविक संघ ने भी उत्कृष्ट काम किया है। कुल मिलाकर प्रथम चरण में सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षण मत्स्य प्रबंधन में पारिस्थितिकी तंत्र के दृष्टिकोण पर था।”

अब सभी आठ देशों के पास राष्ट्रीय आधारभूत प्रदूषण रिपोर्ट है। और सभी ने दूसरे चरण के रणनीतिक क्रियान्वन कार्यक्रम को भी मंजूरी दी दी है।

समुदाय को वरीयता देना

परियोजना के दूसरे चरण की प्राथमिकताएं क्या हैं। जयकोडी के अनुसार, इसकी प्राथतिकताएं “संरक्षित क्षेत्रोंको मजबूती देना, खाड़ी की रक्षा के लिए स्थानीय समुदायों की क्षमताओं का मजबूत करना और मत्स्य पालन को दीर्घकालिक बनाना, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अनुकूल बनाना और अंततः आवास को पुनः स्थापित करना है।”

बंगाल की खाड़ी में मछुआरा (Photo: BOBLME)

जयकोडी कहते हैं कि आने वाले चरणों में, परियोजना मैंग्रोव की सुरक्षा और डुगोंग, जिसे सीकॉउ के नाम सेभी जाना जाता है, जैसी विलुप्त हो रही समुद्री प्रजातियों पर केंद्रित होगा।

बंगाल की खाड़ी में होने वाले प्रदूषण का सबसे प्रमुख स्त्रोत, सीवेज प्रबंधन भी एक बड़ी समस्या है। योजना एशियाई विकास बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजना से म्यांमार में इर्रावडी नदी पर बसे शहर मनडलय में कचरा प्रबंधन से इसकी शुरुआत करने की है। जयकोडी कहते हैं कि समुद्री तट पर छोड़े गए मछली पकड़ने के औजारों के मु्द्दे पर भी इस परियोजना को रोशनी डालनी है।

बंगाल की खाड़ी पर रहने वाले लोगों के लिए रणनीतिक कार्य योजना स्थानीय मछुआरों की आजीविका और किसानों व मछुआरों दोनों के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन को सुधारने का संपूर्ण खंड हैं।

इसके लिए आधारभूत आवश्यकताओं की ओर इशारा करते हुए जयकोडी बताते हैं कि इसके लिए “विशेषकर वानिकी, मत्स्य पालन और पर्यटन” में एकीकृत भूमि उपयोग योजना का रुख़ करना होगा।

इस समय की सबसे महत्वपूर्ण समस्या यह है कि मैंग्रोव्स पुनर्जनन और संरक्षण के लिए बहुत कम धन शेष बचा है और सभी विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि इन्हें बचाना बहुत आवश्यक है क्योंकि यह सभी मछलियों और अन्य सभी समुद्री जानवरों की मुख्य स्थान है। मैंग्रोव्स समुद्री तटों को भी उच्च लहरों के कुप्रभाव से भी बचाते हैं। अकादमिक कहते हैं, “हमें मैंग्रोव संरक्षण और सामाजिक-आर्थिक विकास को सुसंगत बनाना होगा। हमें दीर्घकालिक मैंग्रोव प्रबंधन के प्रदर्शन व्यवस्था का प्रयोग करना होगा और मैंग्रोव काटने से आजीविका चलाने वाले लोगों को आजीविका का अन्य विकल्प प्रदान करना होगा।”

जयकोडी के अनुसार, “इस परियोजना का प्रथम चरण प्रभावी इसलिए हुआ क्योंकि उसमें कई लोगों कीसाझेदारी थी। मैं दूसरे चरण के लिए भी ऐसी ही साझेदारी और सहयोग की उम्मीद करता हूं।”

भारतीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन के संयुक्त सचिव निंकुज किशोर संडारे कहते हैं कि बंगाल की खाड़ी का पहले चरण का प्रोजेक्ट इसलिए सफल रहा क्योंकि ये तकनीकी तौर पर बहुत अच्छा था। संडारे विश्वास व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इसे दूसरे चरण में भी ले जाया जाएगा।