icon/64x64/regionalcooperation क्षेत्रीय सहयोग

नेपाल-भारत सीमा पर बाढ़ के दौरान सामुदायिक सहयोग से बचती है लोगों की जान

गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि एक अर्ली वार्निंग सिस्टम से हर साल रातू नदी के किनारे रहने वाले लगभग 64,000 लोगों की मदद होती है। इसके लिए उन वालेंटियर्स की सबसे ज्यादा सराहना की जानी चाहिए जो स्थानीय लोगों को वक्त पर बाढ़ के खतरों के प्रति सचेत करने का काम करते हैं।
<p>यह 2014 की एक तस्वीर है, जब बिहार में नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) की टीम ने ग्रामीणों को बाहर निकाला था। दरअसल, नेपाल में एक भूस्खलन के बाद, भारत में हजारों लोगों के ऊपर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा था। (फोटो: कृष्ण मुरारी किशन / अलामी)</p>

यह 2014 की एक तस्वीर है, जब बिहार में नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) की टीम ने ग्रामीणों को बाहर निकाला था। दरअसल, नेपाल में एक भूस्खलन के बाद, भारत में हजारों लोगों के ऊपर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा था। (फोटो: कृष्ण मुरारी किशन / अलामी)

दक्षिणी नेपाल के भगवतीपुर के निवासी अरुण यादव कहते हैं, “मुझे तो ऐसा कोई भी मानसून का सीजन ध्यान नहीं आ रहा है जब रातू की बाढ़ में हमने किसी व्यक्ति या संपत्ति को न खोया हो।” लेकिन, वह यह भी कहते हैं कि 2022 का मानसून “एक अपवाद” रहा है। इस अपवाद की स्थिति तक पहुंचने में वर्षों लगे हैं। दरअसल, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) ने 2015 में, यहां एक अर्ली वार्निंग सिस्टम की शुरुआत की। यह दक्षिणी नेपाल में गैर-सरकारी संगठनों और स्वयंसेवकों यानी वालेंटियर्स द्वारा चलाई जाती है।

इसके तहत, नदी के किनारे रहने वाले लोगों को जल स्तर बढ़ने की स्थिति में सचेत कर दिया जाता है। कुछ साल बाद, नेपाल के सीमावर्ती, भारतीय राज्य बिहार में भी इसे शुरू किया गया।

हर साल मानसून के दौरान, भगवतीपुर में रहने वाले लोगों की नींद हराम रहती है। दरअसल, महोत्तरी जिले में रातू नदी के किनारे बसे करीब 500 घरों वाले इस गांव के लोग, जून से सितंबर के बीच लगातार बाढ़ के डर साये में जीते हैं। 

रातू एक छोटी नदी है जो नेपाल की चुरे पहाड़ी श्रृंखला में शुरू होती है। यह सीमा पार करके बिहार के सीतामढ़ी जिले में आती है। यहां इसे रातो के नाम से जाना जाता है। बिहार में, रातो नदी, गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदियों में से एक, कोसी में मिलती है। 

समुदाय की अगुवाई में काम कर रहा अर्ली वार्निंग सिस्टम 

इस सिस्टम की सबसे बड़ी मजबूती अपने काम को लेकर प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों यानी कमिटेड वालेंटियर्स का होना है। नेपाल के धनुषा जिले के लालगढ़ कस्बे में, जो कि भगवतीपुर से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर में है, महेंद्र बिक्रम कार्की, एक पुल के नीचे लगे सेंसर की निगरानी की जिम्मेदारी उठा रहे हैं। 

कार्की कहते हैं, “मेरा फोन सिस्टम से जुड़ा है, इसलिए जब भी पानी चेतावनी के स्तर को पार करता है तो यह मुझे सचेत कर देता है।” ऐसी स्थिति में वह सबसे पहले, अरुण यादव और रंजीत झा को सूचित करते हैं।

अरुण यादव और रंजीत झा सीमा पार भारत में भगवतीपुर और श्रीखंडी भिट्ठा गांव के वालेंटियर्स हैं। 

कार्की बताते हैं कि उनको सूचित करने के बाद वह साइट पर जाते हैं। अपने जूतों और रेनकोट के साथ तैयार होते हैं क्योंकि जल स्तर बढ़ने में कुछ रुकावट के कारण गलत नतीजे आ सकते हैं। 

A sensor installed on a bridge over the Ratu River
दक्षिणी नेपाल में रातू नदी पर, एक पुल पर लगा एक सेंसर। यह सेंसर, मानसून के दौरान नदी के बढ़ने पर अलर्ट भेजता है। (फोटो: महेंद्र बहादुर कार्की/आईसीआईएमओडी)

यदि जल स्तर और ऊपर की ओर बढ़ता है, तो कार्की को स्थानीय लोगों का फोन आता है, जब वे नदी के उफान को देखते हैं।

कार्की और अन्य वालेंटियर्स, स्थानीय पुलिस, पत्रकारों और दुकानदारों के साथ मिलकर काम करते हैं ताकि लोगों को आपदा की आशंका के बारे में समय पर सूचित किया जा सके और उन्हें सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने में मदद की जा सके।

बिहार के सीतामढ़ी जिले के श्रीखंडी भिट्ठा गांव के एक वालेंटियर रंजीत झा कहते हैं, “नेपाल के लोग जब भी किसी प्वाइंट पर जल स्तर में वृद्धि देखते हैं तो वे मुझे फोन करते हैं। एक बार जब मुझे फोन आ जाता है, तो यह मेरा काम है कि मैं अपने आस-पास के क्षेत्र में लगभग 15,000 लोगों को आने वाले खतरे के बारे में सचेत करूं। यह काम बाढ़ आने से दो से तीन घंटों के भीतर ही करना होता है।”

आईसीआईएमओडी ने 2015 में तीन वायरलेस सेंसर लगाए। इनमें से एक भारत की तरफ लालगढ़ में और बाकी दो नेपाल के महोत्तरी जिले में रातू नदी के किनारे कालापानी और सर्पलो गांवों में लगाए गए। इनको 2017 में अपग्रेड किया गया। साथ ही, सीमा पार श्रीखंडी भिट्ठा में भी सेंसर लगाए गए। क्रायोस्फीयर और रिवर बेसिन को लेकर आईसीआईएमओडी की प्रोग्राम कॉर्डिनेटर नीरा श्रेष्ठ प्रधान का कहना है कि सेंटर ने बाढ़ से बचाव के लिए जरूरी तैयारियों को बढ़ाने और जान-माल के नुकसान को रोकने के लिए समुदाय की अगुवाई और सहभागिता के साथ काम करने वाले फ्लड अर्ली वार्निंग सिस्टम यानी कम्युनिटी बेस्ड फ्लड अर्ली वार्निंग सिस्टम (सीबीएफईडब्ल्यूएस) परियोजना की शुरुआत की। 

आईसीआईएमओडी ने 2010 में, असम में इसी तरह की पहल की थी। प्रधान बताती हैं, “जमीनी स्तर पर इसके सफल प्रभावों को महसूस करते हुए, इसे अन्य क्षेत्रों में दोहराया गया।”

A water-level sensor installed on the Raato River
श्रीखंडी भिट्ठा गांव में रातो नदी पर लगा एक वाटर-लेवल सेंसर (फोटो:आईसीआईएमओडी)

नेपाल और भारत में जिंदगी बचाने वाली एक पहल

अर्ली वार्निंग सिस्टम के कामकाज को ठीक ढंग से सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को शामिल किया गया है। स्थानीय लोगों के समन्वय की दिशा में काम करने वाली एक एनजीओ, कम्युनिटी डेवलपमेंट एंड एडवोकेसी फोरम नेपाल (सीडीएएफएन) के अध्यक्ष नागदेव यादव ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस प्रणाली से हर साल नेपाल और भारत में लगभग 64,000 लोगों की मदद होती है।

सीडीएएफएन की तरह ही भारत में भी युगांतर नाम का एक एनजीओ काम करता है। इसके कार्यकारी निदेशक संजय पांडे का कहना है कि भारत में लगभग 10,000 परिवार इस प्रणाली से लाभान्वित होते हैं। नेपाल के जल विज्ञान व मौसम विज्ञान विभाग और बिहार राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सहित दोनों देशों की सरकारी एजेंसियां समय-समय पर इस प्रणाली को सहायता प्रदान करती हैं।

सीडीएएफएन के यादव कहते हैं: “पहले हर मानसून में रातू की बाढ़ में दो से चार लोग मारे जाते थे। लेकिन 2017 की बाढ़ के बाद, महोत्तरी की छह स्थानीय इकाइयों और धनुषा की एक इकाई में यह संख्या लगभग शून्य है।” 

नेपाल के राष्ट्रीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण और प्रबंधन प्राधिकरण यानी नेशनल डिजास्टर रिस्क रिडक्शन एंड मैनेजमेंट अथॉरिटी ने माना है कि 2022 के मानसून के दौरान हताहतों की संख्या को रोकने के मामले में अर्ली वार्निंग सिस्टम को एक प्रमुख कारक रहा है। 

Flooding in Ratu Khola, Bhittamore, India
भारत के श्रीखंडी भिट्ठा गांव में रातू नदी की बाढ़ (फोटो: रंजीत झा / आईसीआईएमओडी)

इधर, भारत में काम करने वाले एक वालेंटियर रंजीत झा का कहना है कि बाढ़ जैसी आपदा के दौरान बच्चों को लेकर होने वाले खतरों को कम करने के लिहाज से यह पहल विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही है। वह बताते हैं, “मैं 2017 से इस परियोजना के लिए स्वेच्छा से काम कर रहा हूं, और तब से रातो की बाढ़ में किसी भी बच्चे की मौत नहीं हुई है।”

नेपाल के जल विज्ञान व मौसम विज्ञान विभाग के एक वरिष्ठ हाइड्रोलॉजिस्ट बिनोद पाराजुली ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस तरह की सामुदायिक स्तर की पहल, रातू जैसी छोटी नदी घाटियों में महत्वपूर्ण हैं क्योंकि देश की मुख्यधारा के हाइड्रोमेटोरोलॉजिकल सिस्टम ने अभी तक उन्हें अपने पूर्वानुमानों में शामिल नहीं किया है।

आईसीआईएमओडी के अनुसार, जून 2021 तक, एक अर्ली वार्निंग सिस्टम की लागत लगभग 28.670 रुपए है। इसके रखरखाव की लागत मामूली है। सीडीएएफएन के नागदेव यादव कहते हैं: “जब तक गेज में कोई गंभीर यांत्रिक समस्या नहीं होती है, तब तक हमारे पास बारिश के मौसम में वालेंटियर्स के मोबाइल फोन को टॉप अप करने का एकमात्र नियमित खर्च होता है।”

चुनौतियां बरकरार

हाइड्रोलॉजिस्ट पाराजुली का कहना है कि चेतावनियों की विश्वसनीयता एक चुनौती है, क्योंकि छोटी नदी प्रणालियों में बाढ़ का पूर्वानुमान लगाना कोसी जैसी बड़ी नदियों की तरह आसान नहीं है। उनका कहना है कि दरअसल, छोटी सहायक नदियां, एक संकीर्ण जलग्रहण क्षेत्र यानी नैरो कैचमेंट एरिया को कवर करती हैं। अगर मौसम से संबंधित घटनाएं लगभग 5 किमी तक बदल जाती हैं, तो यह पूर्वानुमान को गलत कर सकती हैं। 

परियोजना के लिए आईसीआईएमओडी सलाहकार, शैलेंद्र शाक्य कहते हैं कि एक और समस्या, चेतावनी और बाढ़ के बीच, समय के अंतराल का कम होना है। वालेंटियर्स के अनुसार, अंतराल एक से तीन घंटे के बीच का ही होता है। इतना समय, हमेशा लोगों के लिए अपने सामान को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं होता है।

शाक्य कहते हैं कि नेपाल के जल विज्ञान व मौसम विज्ञान विभाग और स्थानीय सरकारों, जैसी एजेंसियों को परियोजना से जोड़े रखना मुश्किल हो गया है। उनका कहना है कि वह चाहते हैं कि पूर्व चेतावनी प्रणालियां यानी अर्ली वार्निंग सिस्टम्स, स्थानीय आपदा योजना का हिस्सा बनें।

जल्द ही ऐसा होने की उम्मीद भी है। नेपाल के महोत्तरी जिले के बलवा म्युनिसिपल गवर्नमेंट के वार्ड अध्यक्ष राज कुमार यादव कहते हैं: “हम इस वित्तीय वर्ष में ऐसा नहीं कर सके क्योंकि एनजीओ हमारे पास काफी देर से आए, लेकिन अगली वार्षिक योजना से हमारे सिस्टम में इसे शामिल करने के बारे में हम सकारात्मक हैं।”

आईसीआईएमओडी, 2019 से, स्थानीय सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कोसी की एक अन्य सहायक नदी, खांडो के किनारे स्थापित एक इसी तरह के अर्ली वार्निंग सिस्टम पर काम कर रहा है। इसके लिए, नेपाल और भारत में कुछ नगर पालिकाओं (जिनको ऐसी आपदा का सामना करना पड़ता है) ने परियोजना के वित्तपोषण को टिकाऊ बनाने के लिए एक कोष की स्थापना की है। शाक्य इसी तरह के मॉडल को अन्य क्षेत्रों में दोहराने का आग्रह करते हैं।

यह कार्य विश्व बैंक, ICIMOD और द् थर्ड पोल के बीच एक सहयोगी संपादकीय श्रृंखला का हिस्सा है जो “दक्षिण एशिया में जलवायु रेज़िलिएंस के लिए क्षेत्रीय सहयोग” पर जलवायु विशेषज्ञों और क्षेत्रीय आवाज़ों को एक साथ लाता है। लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं। इस सीरीज़ को यूनाइटेड किंगडम के विदेश, राष्ट्रमंडल और विकास कार्यालय द्वारा प्रोग्राम फॉर एशिया रेज़िलिएंस टू क्लाइमेट चेंज – विश्व बैंक द्वारा प्रशासित एक ट्रस्ट फंड के माध्यम से फंड किया गया है।

अपने कमेंट लिख सकते हैं

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.