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विचार: भारत उठा रहा है सिंधु जल समझौते के अस्तित्व पर सवाल

भारत ने पाकिस्तान से कहा है कि वह सिंधु जल समझौते को संशोधित करना चाहता है। ये वो समझौता है जो दोनों देशों के साझा नदी के उपयोग को नियंत्रित करती है। सालों से चले आ रहे विवाद में ये एक नया मोड़ है।
<p>नीलम झेलम परियोजना पाकिस्तान की लाँग-टर्म प्रतिबद्धता रही है। (फोटो: राणा साजिद हुसैन / प्रशांत प्रेस आलमी के माध्यम से)</p>

नीलम झेलम परियोजना पाकिस्तान की लाँग-टर्म प्रतिबद्धता रही है। (फोटो: राणा साजिद हुसैन / प्रशांत प्रेस आलमी के माध्यम से)

भारत ने पाकिस्तान को संदेश दिया है कि वह सिंधु जल समझौते में संशोधन करना चाहता है। दोनों देशों ने साल 1960 में विश्व बैंक के साथ गारंटर के रूप में अपनी साझा नदियों के उपयोग को विनियमित करने के लिए इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था। जैसा कि द वायर द्वारा रिपोर्ट किया गया है, भारत की पाकिस्तान से मांग है कि “सिंधु जल समझौते (IWT) के मटेरियल ब्रीच यानी उल्लंघन को सुधारने के लिए वो 90 दिनों के भीतर अंतर-सरकारी वार्ता में प्रवेश करें। इस प्रक्रिया में पिछले 62 सालों की सीखों को शामिल करने के लिए IWT को भी अपडेट किया जाएगा।”

साल 1988 के बाद से भारत और पाकिस्तान इस समझौते को लेकर कई बहस में उलझे हुए हैं। असहमति की शुरुआत तब हुई जब भारत ने झेलम नदी की एक सहायक नदी पर किशनगंगा जलविद्युत परियोजना की योजना बनाना शुरू किया। झेलम नदी सिंधु नदी की तीन पश्चिमी सहायक नदियों में से एक है, जिसका पानी संधि के तहत पाकिस्तान के उपयोग के लिए है। भारत को परियोजनाओं के निर्माण की अनुमति है लेकिन इन नदियों पर जल प्रवाह को सीमित करने की नहीं – जबकि वह सिंधु की तीन पूर्वी सहायक नदियों के साथ जैसा चाहे वैसा कर सकता है। सिंधु जल समझौते के तहत, भारत को पश्चिमी सहायक नदियों पर बनने वाली किसी भी परियोजना के डिज़ाइन के बारे में पाकिस्तान को अग्रिम रूप से सूचित करना होगा अगर वे पाकिस्तान में जल प्रवाह को बाधित करते हैं।

सिंधु जल समझौता क्या है?

साल 1960 में पाकिस्तान और भारत ने अपनी साझा नदियों के उपयोग को विनियमित करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया।

सिंधु नदी प्रणाली पर 62 साल पुरानी संधि भारत को तीन “पूर्वी” नदियों (व्यास, रावी और सतलुज) और पाकिस्तान को तीन “पश्चिमी” नदियों (सिंधु, चिनाब और झेलम) का नियंत्रण देती है।

भारत को घरेलू उद्देश्यों, सिंचाई और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पश्चिमी नदियों के पानी का उपयोग करने की अनुमति है, जब तक कि यह इतने पानी का भंडारण ना करे जो पानी के बहाव को सीमित करती हो।

पाकिस्तान ने किशनगंगा परियोजना पर आपत्ति जताई क्योंकि इस परियोजना के डिज़ाइन में झेलम की एक सहायक नदी से दूसरी सहायक नदी में पानी के मोड़ की परिकल्पना की गई थी। इस बीच, पाकिस्तानी सरकार की नीलम नदी पर जलविद्युत संयंत्र बनाने की अपनी योजना थी (किशनगंगा को पाकिस्तान में नीलम कहा जाता है) – नीलम झेलम परियोजना (एनजेपी)। हालंकि 330 मेगावाट के किशनगंगा परियोजना से होने वाला विस्थापन पाकिस्तान में पानी के समग्र प्रवाह को कम नहीं करता लेकिन वो परिकल्पित एनजेपी तक बहाव को सीमित कर देता।

भारत द्वारा किशनगंगा परियोजना पर अपना सर्वे शुरू करने के एक साल बाद, पाकिस्तान ने 1989 में अपनी परियोजना के डिजाइन को मंजूरी दी। निर्माण 2007 में शुरू हुआ, और नीलम झेलम परियोजना 2018 में पूरी हुई। भारतीय पक्ष में, 2004 में सुरंगों पर काम शुरू हुआ, जबकि बांध का निर्माण 2007 में शुरू हुआ था। पाकिस्तान ने कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन की मांग की। भारत ने सहमति व्यक्त की। साल 2010 एकमात्र और पहली बार था जब इस तरह की अदालत आयोजित की गई थी, और भारतीय पक्ष पर 2011 से 2013 में आने वाले फ़ैसले तक काम रोक दिया गया था।

इस मामले में पाकिस्तान का तर्क यह था कि एनजेपी काम नहीं कर पाएगा क्योंकि भारत अपनी परियोजनाओं के लिए पानी को नदी से दूर प्रवाहित करेगा और फिर इसे एनजेपी साइट के नीचे की ओर छोड़ेगा। भारत ने प्रतिवाद किया कि वह IWT की शर्तों के अंदर ही था क्योंकि वह पाकिस्तान से पानी वापस नहीं ले रहा था, और यह कि उसकी परियोजनाएं एनजेपी से पहले की थीं।

2013 के अपने फैसले में, सीओए ने मोटे तौर पर पाकिस्तान के आपत्तियों के खिलाफ फ़ैसला सुनाया लेकिन भारत को अपने बांध डिजाइनों में कुछ बदलाव करने के लिए कहा।

सिंधु जल समझौते के विवाद कैसे सुलझाए जाने हैं?

साल 1960 में जब IWT पर हस्ताक्षर किए गए थे, भारत और पाकिस्तान के कमिश्नर्ज़ के साथ एक सिंधु नदी आयोग की स्थापना की गई थी। समझौते में उन स्थितियों के लिए दो विवाद समाधान तंत्र हैं जब भारत और पाकिस्तान सहमत नहीं हो सकते हैं और जब इस मुद्दे को कमिश्नर्ज़ से परे जाना पड़े। समाधान है एक न्यूट्रल एक्सपर्ट या तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति और कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (सीओए)। जैसा कि विश्व बैंक समझाता है, “सवाल” आयोग द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं; “मतभेद” एक न्यूट्रल एक्सपर्ट द्वारा हल किए जाएंगे; और “विवादों” को सात सदस्य वाले कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन को संदर्भित किया जाना है।

सीओए की सुनवाई के दौरान, भारत ने तर्क दिया था कि सीओए तभी बनाया जाना चाहिए जब एक न्यूट्रल एक्सपर्ट मामले को सुन चुका हो। साल 2013 के सीओए के फैसले ने इसे खारिज कर दिया था। सीओए ने कहा कि एक “विवाद” स्पष्ट रूप से मौजूद था, और अदालत ये स्वीकार नहीं कर सकती कि “भारत की वर्तमान स्थिति… कि दूसरा विवाद एक न्यूट्रल एक्सपर्ट के लिए एक मामला है … भले ही भारत अब ऐसे विशेषज्ञ की नियुक्ति का अनुरोध करे।” ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत ने ज़ोर देकर कहा था कि कोई “मतभेद” मौजूद नहीं था। “मतभेदों” से निपटने के लिए एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त किया गया था लेकिन सिर्फ़ एक सीओए “विवादों” से निपट सकता था।

फैसले के बाद, भारत ने परियोजना को पूरा किया, और यह 2018 में ऑनलाइन हो गया। पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि भारत ने 2013 के फैसले द्वारा अनिवार्य डिजाइन निर्देशों का पालन नहीं किया था। जब भारत ने 2013 में चिनाब पर (बहुत बड़ी) 850 मेगावाट की रातले जलविद्युत परियोजना को शुरू करने का फैसला किया (फंड का वास्तविक आवंटन 2021 में हुआ), पाकिस्तान ने 2015 में इस मुद्दे से निपटने के लिए एक न्यूट्रल एक्सपर्ट के सामने मामले पेश करने का फ़ैसला लिया। 2016 में उसने उस अनुरोध को वापस ले लिया, और इसके बजाय, 22 अगस्त 2016 को विश्व बैंक को इस मुद्दे से निपटने के लिए एक सीओए बनाने के लिए कहा।

विवाद से निपटने के लिए भारत ने 4 अक्टूबर 2016 को एक न्यूट्रल एक्सपर्ट का अनुरोध करके जवाब दिया। इसने विश्व बैंक को, संधि के गारंटर के रूप में, संकट में डाल दिया। समझौते में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अगर कोई न्यूट्रल एक्सपर्ट किसी “मतभेद” की सुनवाई कर रहा है तो उस दौरान सीओए या अन्य मध्यस्थता के प्रयास लागू नहीं होते हैं। बहरहाल, अगर कोई न्यूट्रल एक्सपर्ट “मतभेद” की जांच नहीं कर रहा या किसी को नियुक्त नहीं किया गया हो तो IWT विश्व बैंक को सीओए के अनुरोध को अस्वीकार करने का अधिकार नहीं देता है। विश्व बैंक की भूमिका आधिकारिक तरीक़े से नियमित है, और वह किसी भी अनुरोध को अस्वीकार नहीं कर सकता। एक ही विवाद पर दो प्रक्रियाओं के चलने में ग़लतफ़हमी होना लाज़मी था।

इस मामले को सुलझाने के लिए, विश्व बैंक ने दोनों प्रक्रियाओं को पहले जनवरी 2017 तक और फिर सालों के लिए रोक दिया। इस पूरे समय में, भारत ने तर्क दिया है कि दो प्रक्रियाओं के निर्माण ने संधि को ही खतरे में डाल दिया है, और पहले एक न्यूट्रल एक्सपर्ट की नियुक्ति की जानी चाहिए।

कोई प्रगति नहीं हुई, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि भारत-पाकिस्तान संबंध दुश्मनी में उलझे हुए हैं। 6 अप्रैल 2022 को कई बैठकों और उच्च-स्तरीय वार्ताओं के बाद, विश्व बैंक ने दोनों संघर्ष समाधान प्रक्रियाओं को फिर से शुरू करने का फैसला किया, यह तर्क देते हुए कि, “दो नियुक्तियों को एक साथ करने वाले पार्टीज़ की चिंताएं व्यावहारिक और कानूनी जोखिम पैदा करती हैं… पिछले पांच सालों में स्वीकार्य समाधान खोजने में असफलता संधि के लिए एक जोखिम है।”

एक चिंताजनक कदम

अब, इस मुद्दे को फिर से उठाकर, भारत ने इस मामले की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान पर डाली है। भारत ने यह तर्क दिया है कि यह पाकिस्तान की ज़िद है जो दो समवर्ती प्रक्रियाओं के लिए ज़िम्मेदार है। ऊपरी तटवर्ती राष्ट्र के रूप में, भारत की स्थिति मज़बूत है। इसकी निर्माण गतिविधियाँ पाकिस्तान में बहने वाले पानी को प्रतिबंधित या मोड़ सकती हैं, जबकि पाकिस्तान भारत में पानी के बहाव को प्रभावित नहीं कर सकता है। पाकिस्तान का एकमात्र सहारा IWT है।

लेकिन हाइड्रो डिप्लोमेसी की इस शैली के सिंधु बेसिन से परे महत्वपूर्ण क्षेत्रीय परिणाम हो सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत स्वयं अन्य महत्वपूर्ण ट्रांसबाउंडरी नदी घाटियों में एक निचला नदी तट वाला देश है। भारत में ब्रह्मपुत्र पर ऊपर की ओर चीनी बांधों के निर्माण के बारे में बहुत चिंता व्यक्त की गई है (जिसे यारलुंग त्संगपो के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह तिब्बत से होकर बहती है) – हालांकि ब्रह्मपुत्र का ज़्यादातर पानी भारत और भूटान के सहायक नदियों से बहकर भारत और फिर बांग्लादेश में आता है। गंगा की स्थिति अलग है। घाघरा, जो नेपाल से भारत में बहती है, एक प्रमुख सहायक नदी है, और इसका पानी बिहार में आता है, जहां भारत के भीतर गंगा के ऊपर के अधिकांश पानी का उपयोग किया जाता है, या बांधों द्वारा मोड़ दिया जाता है। चीन नेपाल के ऊपर की ओर मब्जा जांगबो नदी पर एक बांध भी बना रहा है, जो घाघरा में जाकर मिलती है।

पिछले कुछ सालों में, मुख्य रूप से मेकांग बेसिन के संबंध में चीन ने ज़ोर देकर कहा है कि ऊपरी नदी तट वाले देश की ज़रूरतों और चिंताओं को निचले तटवर्ती देशों द्वारा समायोजित किया जाना चाहिए। यह भाषा कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ़ द नॉन-नैविगेशनल यूज़ेज़ ऑफ़ इंटरनेशनल वॉटरकोर्सेस, 1977 (जिसमें चीन, भारत और पाकिस्तान हस्ताक्षरकर्ता नहीं हैं) की भाषा के विपरीत है, जिसमें कहा गया है कि “अपने क्षेत्रों में एक अंतरराष्ट्रीय जलमार्ग का उपयोग करते हुए वाटरकोर्स स्टेट्स अन्य जलमार्ग राज्यों को महत्वपूर्ण नुकसान को रोकने के लिए सभी उचित उपाय करें।”

IWT को संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन जैसे सिद्धांतों पर ही नेगोशिएट किया गया था, भले ही कोई भी देश उनके लिए हस्ताक्षरकर्ता न हो, लेकिन भारत की वर्तमान रणनीति मेकांग में चीन की रणनीति के करीब है जो निचले रिपेरियन के ऊपर ऊपरी रिपेरियन की शक्ति को दर्शाते हैं। पहले सीओए में भी भारत के पक्ष में फ़ैसला लिया गया था। सवाल यह है कि हाइड्रोडिप्लोमेसी की यह राष्ट्रवादी शैली कहां ले जाएगी, और क़रीब 1.5 बिलियन लोगों के लिए इसका क्या मतलब है जो हिमालय के साझा नदी घाटियों पर निर्भर हैं।

नदियां सीमाओं का सम्मान नहीं करती, और न ही बेसिन के स्वास्थ्य को सिर्फ़ ऊपरी तटवर्ती देशों द्वारा प्रबंधित किया जा सकता है। IWT इस संकट से बच सकता है, क्योंकि इसे केवल दोनों देशों के समझौते द्वारा निरस्त या संशोधित किया जा सकता है, जैसा पाकिस्तानी अटॉर्नी जनरल ने पिछले सप्ताह समाचारों के जवाब में संदर्भित किया था

एक समझौता सिर्फ़ तब अच्छा है जब समझौते के अंदर मौजूद पार्टीज़ मर्ज़ी से समझौते पर काम कर रहे हो। अगर सहयोग पैदा करने के बजाय, इसे एक और रास्ते के रूप में देखा जाता है, जहां राज्यों के बीच शत्रुता को क्रियान्वित किया जाता है, तो यह सीमा पार सहयोग को और अधिक कठिन बना देगा, कम नहीं। और ये इन नदी घाटियों के किनारे रहने वाले लोगों को, चाहे वे किसी भी राष्ट्रीयता के हों, और अधिक संवेदनशील बना देगा क्योंकि जलवायु संकट गहराता जा रहा है।

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