उर्जा

विचार: ईंधन की कीमतों में इजाफे के कारण भारत में तेज हो सकती है ऊर्जा रूपांतरण की गति

रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कीमतों में बढ़ोतरी हो रही है और अन्य आर्थिक कठिनाइयां उत्पन्न हो रही हैं। ऐसे समय में नवीकरणीय ऊर्जा माध्यमों से ऊर्जा सुरक्षा पर जोर देने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
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<p>मुंबई में ईधन को ले जाते वाहन (फोटो : Arko Datta / Reuters / Alamy)</p>

मुंबई में ईधन को ले जाते वाहन (फोटो : Arko Datta / Reuters / Alamy)

वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी कोविड-19 महामारी से उबर ही रही थी कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने दुनिया भर में तेल और गैस की कीमतों में आग लगा दी है। इससे भोजन की लागत में भी इजाफा हुआ है। युद्ध ने न केवल मानवीय, बल्कि वित्तीय संकट भी पैदा कर दिया है।

रूस, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक (अमेरिका और सऊदी अरब के बाद) और दूसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल निर्यातक (सऊदी अरब के बाद) है। यह दूसरा सबसे बड़ा गैस उत्पादक भी है। रूस से 12 फीसदी तेल और 17 फीसदी गैस  आती है।

कच्चे तेल, गैस और कोयले की वैश्विक कीमतें आसमान छू रही हैं। चूंकि अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं अभी भी जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, इसलिए दुनिया भर में मुद्रास्फीति भी बढ़ रही है। इसके अलावा, वित्तीय बाजारों में गिरावट आई है और विभिन्न मुद्राओं की कीमतों में कमी आ रही है। ईंधन की कीमतों को कम रखने के लिए सरकारें अपने रणनीतिक भंडार का उपयोग कर रही हैं लेकिन ये कोशिश भी व्यर्थ साबित हो रही है। इस दुविधा का समाधान अक्षय ऊर्जा है, जो भारत में सस्ता है और संभावित रूप से प्रचुर मात्रा में है।

युद्ध से भारत में आर्थिक उथल-पुथल

भारत, अपने कच्चे तेल का 80 फीसदी और अपनी प्राकृतिक गैस का 45 फीसदी आयात करता है। इनकी कीमतों में इजाफे से उसको झटके झेलने पड़ रहे हैं।  युद्ध के कारण गेहूं, मक्का और सूरजमुखी सहित अन्य खाद्य फसलों की कमी होने और उनकी कीमतों में इजाफे के आशंका बनी हुई है। इसके अलावा रूस, निकल, प्लेटिनम, पैलेडियम, स्टील, लौह अयस्क, सोना और अन्य दुर्लभ धातुओं के निर्यात का केंद्र है। रूस के खिलाफ प्रतिबंधों के चलते अब इन धातुओं के वैश्विक बाजार में पहुंच पर अवरोध आ गया है। इस तरह के उत्पादों की कमी और कीमतों में वृद्धि खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ा रही है और विनिर्माण उत्पादन की कीमतों में वृद्धि कर रही है। नतीजतन, खुदरा उपभोक्ता कीमतों और थोक कीमतों दोनों में उछाल की स्थिति है।

मुद्रास्फीति के लिए कम्फर्ट जोन क्या है?

भारत का केंद्रीय बैंक वस्तुओं और सेवाओं की खुदरा कीमतों (खुदरा मुद्रास्फीति) में 2-6 फीसदी की वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए अधिकृत है। उस स्तर से ऊपर की मुद्रास्फीति को स्टैगफ्लेशन का कारण माना जाता है: इसका मतलब मुद्रास्फीति धीमी आर्थिक विकास और उच्च बेरोजगारी के साथ संयुक्त है।

ऐसा लग रहा है कि भारत, एक बड़े चालू खाते के घाटे के बोझ से दब जाएगा। ऐसा तब होता है जब देश में आयातित वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य उसके निर्यात के मूल्य से अधिक हो जाता है। फरवरी में खुदरा मुद्रास्फीति 6.07 फीसदी थी, जो भारतीय रिज़र्व बैंक के 6 फीसदी नीतिगत कम्फर्ट जोन को तोड़ चुकी है। यह स्थिति तब है जबकि सरकार ने रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के बाद ऊर्जा कीमतों में हुई वृद्धि को उपभोक्ताओं के ऊपर अभी तक नहीं डाला है।

थोक (थोक मुद्रास्फीति) में बेची गई वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि भी फरवरी में बढ़कर 13.11 फीसदी हो गई, जिसका अर्थ है कि वर्ष दो अंकों की मुद्रास्फीति के साथ समाप्त होगा।

भारत सरकार ने पिछले साल नवंबर से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कोई संशोधन नहीं किया है। इससे सरकार के स्वामित्व वाली तेल कंपनियों को लगभग  20 रुपये प्रति लीटर का भारी नुकसान हुआ है, क्योंकि कच्चे तेल के लिए वैश्विक मूल्य बेंचमार्क 7 मार्च को 139 डॉलर पर पहुंच गया था। 15 मार्च को कच्चा तेल 100 डॉलर से नीचे गिर गया, जिससे कुछ राहत मिली और ईंधन की कीमतों में तेज बढ़ोतरी की आवश्यकता कम हो गई।

आयातित ईंधन पर निर्भरता महंगी पड़ सकती है। यह स्थिति ऊर्जा सुरक्षा को जोखिम में डाल सकती है और आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है

सरकार इस अंतर को पाटने के लिए विभिन्न विकल्पों पर काम कर रही है: या तो  उत्पाद शुल्क को कम करना (शराब, तंबाकू और ऊर्जा जैसे विशिष्ट उत्पादों की बिक्री या उपयोग पर अप्रत्यक्ष कर) या फिर रूस के साथ एक सौदा करने की कोशिश। इसमें रियायती मूल्य पर 35 लाख बैरल कच्चे तेल का आयात करना शामिल होगा, जिसमें रूस शिपिंग और बीमा की लागत को कवर करेगा।

पिछले एक से दो वर्षों में, गैस की अस्थिर वैश्विक कीमतों ने उर्वरक सब्सिडी के बोझ और राजकोषीय घाटे में भारी वृद्धि की है। कृषि पर निर्भर आबादी के एक बड़े हिस्से के साथ, भारत उर्वरकों के उत्पादन के लिए आयातित तरल प्राकृतिक गैस (एलएनजी) पर बहुत अधिक निर्भर है। ईंधन की कीमत के संकट का मतलब है कि सब्सिडी, चालू वित्त वर्ष के लिए संशोधित अनुमान 1,400 अरब रुपये (18.5 अरब डॉलर) से 100 अरब रुपये (1.3 अरब डॉलर) तक बढ़ सकती है। इस तरह कुल सब्सिडी बोझ में 7 फीसदी की वृद्धि हो सकती है।

अक्षय ऊर्जा भारत के लिए एक बेहतर विकल्प

हाल की वैश्विक घटनाओं से पता चला है कि आयातित ईंधन पर निर्भरता महंगी पड़ सकती है। यह स्थिति ऊर्जा सुरक्षा को जोखिम में डाल सकती है। आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है। भारत को नवीकरणीय ऊर्जा विकल्पों के साथ कोयला, तेल और गैस की मांग को प्रतिस्थापित करके अपने आर्थिक विकास को बढ़ावा देना चाहिए।

किसी भी वृद्धिशील और मौजूदा मांग को सस्ते नवीकरणीय ऊर्जा के माध्यम से पूरा किया जाना चाहिए। भारत में अक्षय ऊर्जा 2-2.5 रुपये प्रति किलोवाट-घंटे की दर से उपलब्ध है। नवीकरणीय ऊर्जा, बैटरी भंडारण और इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतों में कमी के साथ, जीवाश्म ईंधन की प्रतिस्पर्धात्मकता और अधिक प्रभावित होगी।

भारत अपने बिजली क्षेत्र को डिकार्बोनाइज कर रहा है, लेकिन परिवहन के डिकार्बोनाइजेशन और स्टील व उर्वरक जैसे अन्य क्षेत्रों को ग्रीन हाइड्रोजन जैसी नई तकनीकों से प्राथमिकता देकर अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

भारत सरकार का लक्ष्य, ऊर्जा मिश्रण में गैस की हिस्सेदारी को, जो 2021 में 6 फीसदी है, बढ़ाकर 2030 तक 15 फीसदी करने का है। लेकिन अपनी ऊर्जा मांग को पूरा करने के लिए, एक अस्थायी ईंधन के रूप में गैस पर निर्भर होने के बजाय भारत अक्षय ऊर्जा क्षमता का निर्माण कर सकता है। गैस बुनियादी ढांचे के लिए बड़े पैमाने पर पूंजीगत व्यय की आवश्यकता होती है, और इसमें कोई भी निवेश एक फंसे हुए संपत्ति बनने का जोखिम रखता है – जहां संपत्ति का कम उपयोग किया जाएगा, जिससे परियोजना डेवलपर्स द्वारा ऋण के भुगतान में कठिनाई हो सकती है।

डेवलपर्स और निवेशकों को अब स्थिर और मजबूत नीतियों में विश्वास करने की जरूरत है जो राजनीतिक उथल-पुथल के साथ नहीं बदलती हैं।

यदि नीति निर्माता घरेलू कोयला उत्पादन को दोगुना कर देते हैं तो इसी तरह की समस्याएं उत्पन्न होंगी। महंगा होने के साथ-साथ रेलवे परिवहन या खदानों की बाढ़ जैसे व्यावहारिक मुद्दे भी हैं। इन समस्याओं के कारण कोयला परियोजनाओं के लिए वित्त प्राप्त करना कठिन होता जा रहा है। इसलिए इस तरह के निवेश को अक्षय ऊर्जा पर आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण की दिशा में निर्देशित किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, ग्रीन हाइड्रोजन के विकास, जो यूरिया और अन्य उर्वरकों के उत्पादन के लिए ग्रीन अमोनिया बनाने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करता है, खेती को डिकार्बोनाइज़ करने और भारत को महंगे एलएनजी आयात और उच्च सब्सिडी बोझ से बचाने के लिए महत्वपूर्ण होगा।

भारत सही रास्ते पर है, लेकिन हमें अभी ऊर्जा रूपांतरण में तेजी लाने की जरूरत है। सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र रूपांतरण यात्रा का हिस्सा बनने को लेकर उत्साहित हैं। डेवलपर्स और निवेशकों को अब स्थिर और मजबूत नीतियों पर भरोसा करने की जरूरत है जो राजनीतिक उथल-पुथल के साथ नहीं बदलती हैं। एक बार यह सुनिश्चित हो जाए तो बाद में पीछे मुड़कर नहीं देखने की स्थिति न आए।