उर्जा

भारत के पहले जिओथर्मल प्लांट की संभावनाएं और चुनौतियां

लद्दाख के हिमालयी क्षेत्र में एक भू-तापीय संयंत्र का निर्माण फिलहाल रुका हुआ है, जिसके प्रदूषणकारी तरल यानी लिक्विड को स्थानीय धारा में छोड़े जाने से वहां की आबादी में पर्यावरणीय जोखिमों को लेकर चिंता बढ़ गई है।
हिन्दी
<p>भारत के पहले भू-तापीय ऊर्जा संयंत्र के स्थल पुगा, लद्दाख में एक ग्लेशियर फट गया (फोटो: वेंकट श्रीराम मलिमाडुगुला / अलामी)</p>

भारत के पहले भू-तापीय ऊर्जा संयंत्र के स्थल पुगा, लद्दाख में एक ग्लेशियर फट गया (फोटो: वेंकट श्रीराम मलिमाडुगुला / अलामी)

लद्दाख के हिमालयी क्षेत्र में पुगा घाटी में सरकार द्वारा संचालित तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) भारत का पहला जिओथर्मल प्लांट बना रहा है। लद्दाख के नीचे दो टेक्टोनिक प्लेटें टकराती हैं, जिससे यह स्थान गर्म झरनों जैसी जिओथर्मल घटनाओं के लिए एक प्रमुख केंद्र बनता है, और यह वह ऊर्जा है, जिसका दोहन करने के लिए ओएनजीसी उत्सुक है। यह नवीकरणीय ऊर्जा का संभावित जीरो-कार्बन स्रोत है। 

नवीकरणीय ऊर्जा के व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य स्रोतों के अनुसंधान और विकास के लिए ओएनजीसी द्वारा स्थापित एक निकाय ओएनजीसी एनर्जी सेंटर (ओईसी) के महानिदेशक रवि कहते हैं, “इस परियोजना के साथ हम भारत को दुनिया के भू-तापीय मानचित्र पर लाने की उम्मीद करते हैं। प्रारंभिक चरण में हमारा इरादा 1,000 मीटर का कुआं खोदने, 200 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के तापमान से ऊर्जा खींचने और एक मेगावाट बिजली का उत्पादन करने का है।’ द् थर्ड पोल को वह बताते हैं, “उन्नत चरणों में, हम 100 मेगावाट तक बिजली प्राप्त कर सकते हैं।”

हालांकि अगस्त 2022 में पुगा की एक धारा में जिओथर्मल द्रव (विभिन्न घुले हुए खनिजों से युक्त भूमिगत गर्म पानी) के अप्रत्याशित रूप से रिसाव के बाद परियोजना अभी रुकी हुई है। इससे यह आशंका पैदा हो गई कि ऊर्जा परियोजना, जल स्रोतों को प्रदूषित कर सकती है और संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में निवास स्थान यानी हैबिटेट को नष्ट कर सकती है।

पुगा घाटी जिओथर्मल परियोजना को झटका

जिओथर्मल ऊर्जा पृथ्वी की सतह के ठीक नीचे पाई जाने वाली ऊष्मा है, जो आमतौर पर टेक्टोनिक रूप से सक्रिय क्षेत्रों के करीब होती है। इस ऊर्जा का उपयोग सीधे तौर पर किया जा सकता है, जैसे किसी इमारत के माध्यम से जमीन से उठने वाली भाप को प्रवाहित करके, या अप्रत्यक्ष रूप से, जैसे टरबाइन को चलाने और बिजली उत्पन्न करने के लिए गर्म जिओथर्मल तरल पदार्थ या भाप का उपयोग करके।

फरवरी 2021 में, ओईसी ने एक मेगावाट वाली प्रायोगिक जिओथर्मल ऊर्जा संयंत्र के निर्माण के लिए लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (क्षेत्र को नियंत्रित करने वाली निर्वाचित संस्था) के साथ एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए। 4 अगस्त, 2022 को ओएनजीसी ने क्षेत्र की जिओथर्मल क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए अनुसंधान कुओं की खुदाई शुरू की। ओईसी के रवि ने द् थर्ड पोल को बताया कि कुछ ही दिनों में सतह से 40 मीटर नीचे उम्मीद से ज्यादा 180-190 डिग्री तापमान पाया गया।

हालांकि खुदाई के कारण जिओथर्मल द्रव अपेक्षा से कहीं अधिक मात्रा और दबाव में और उस स्थान पर मौजूद उपकरणों की क्षमता से कहीं अधिक मात्रा में बाहर निकला। रवि कहते हैं, “द्रव के निकलने की मात्रा और दबाव अप्रत्याशित था… हमने गणना की थी कि प्रति वर्ग सेंटीमीटर 1-2 किलोग्राम होगा, लेकिन वास्तव में यह 4 किलोग्राम से अधिक था।”

A geothermal energy plan in Ladakh, northern India
उत्तरी भारत के लद्दाख स्थित पुगा घाटी में रुकी हुई जिओथर्मल ऊर्जा परियोजना (फोटो: समीर मुश्ताक़)

ऊष्मा निकालने के बाद तरल पदार्थ को वापस जमीन के भीतर पंप कर दिया गया, लेकिन इसका कुछ हिस्सा पुगा धारा में प्रवाहित हो गया। इसके कारण स्थानीय नागरिक समाज संगठन, वन्यजीव संरक्षण और लद्दाख के पक्षी क्लब को शिकायत मिली, जिन्होंने 16 अगस्त, 2022 को उस स्थल का दौरा किया और तस्वीरें लीं। तब से यह परियोजना आगे नहीं बढ़ी है।

लद्दाख के ऊर्जा विकास एवं नवीकरणीय ऊर्जा के सचिव रविंदर कुमार के अनुसार, यह परियोजना दो प्रमुख कारणों से स्थगित हो गई। सबसे पहले, वह कहते हैं, इस परियोजना को गंभीर झटका तब लगा, जब ओएनजीसी के प्रारंभिक ठेकेदार ने प्रासंगिक अनुभव की कमी के कारण बीच में ही काम छोड़ दिया। दूसरा, परियोजना ने रिसने वाले भू-तापीय तरल को प्रबंधित करने के लिए जरूरी उपकरणों के स्तर को कम करके आंका, जिससे अप्रत्याशित रिसाव हुआ।

कुमार ने द् थर्ड पोल को बताया, “नियंत्रित खुदाई के उद्देश्य से विशाल खुदाई उपकरणों लद्दाख ले जाने की तैयारी पहले से ही चल रही है। जम्मू से लेह तक 750 किलोमीटर की सड़क पर दुर्गम इलाके और लॉजिस्टिक चुनौतियों को देखते हुए इस विशाल उपकरण का परिवहन एक बड़ी चुनौती है।”

कुमार का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि भू-तापीय ऊर्जा परियोजना 2024 में फिर से शुरू होगी।

जिओथर्मल ऊर्जा के पर्यावरणीय जोखिम और लाभ

यदि उचित तरीके से उत्पादन किया जाए, तो जिओथर्मल परियोजना नवीकरणीय ऊर्जा का जीरो-कार्बन स्रोत प्रदान कर सकती है। हालांकि कुछ पर्यावरणीय जोखिम हैं, विशेष रूप से खुदाई से संबंधित संदूषकों के अनुचित रिसाव को लेकर, जिसके कारण भूजल में खतरनाक रसायन प्रवेश कर सकते हैं। चूंकि जिओथर्मल ऊर्जा वहां निकलती है, जहां टेक्टोनिक प्लेटें एक-दूसरे से रगड़ खाती हैं, खुदाई से भूकंप भी आ सकता है।

पुगा घाटी में कई महत्वपूर्ण आर्द्रभूमियां हैं, जिनमें त्सोमोरीरी झील भी शामिल है, जिसे अंतरराष्ट्रीय महत्व के रामसर स्थल के रूप में नामित किया गया है। संरक्षण संगठन स्नो लेपर्ड कंजर्वेंसी इंडिया के निदेशक त्वेसांग नामग्याल ने द् थर्ड पोल को बताया, “ये प्रवासी पक्षियों के लिए महत्वपूर्ण प्रजनन स्थान हैं, जिनमें काली गर्दन वाले क्रेन, कलहंस और चकवा के साथ-साथ अन्य दुर्लभ पक्षी प्रजातियां शामिल हैं, जिनकी आबादी दुनिया भर में घट रही है। पानी की रासायनिक संरचना और तापमान में संशोधन से व्यापक प्रभाव हो सकते हैं।” वह कहते हैं, “अगर जल स्रोत दूषित हो गए, तो जानवरों [जैसे हिम तेंदुए] के लिए कहीं कोई जगह नहीं होगी।”

लद्दाख के वन्यजीव संरक्षण और पक्षी क्लब के अध्यक्ष लैबजोंग विसुधा, जिन्होंने सबसे पहले पुगा धारा में जिओथर्मल द्रव के रिसाव का दस्तावेजीकरण किया था, इसी तरह की चिंता को दोहराते हैं और परियोजना की निगरानी बढ़ाने का आह्वान कर रहे हैं। हालांकि ओएनजीसी ने इस घटना को स्वीकार किया है और परियोजना में सुधार का वादा किया है, लेकिन विसुधा को चिंता है कि ऐसी घटनाएं फिर से हो सकती हैं।

Black-necked crane
वैश्विक स्तर पर संकटग्रस्त प्रजाति काली गर्दन वाली सारस लद्दाख में अपने प्रजनन स्थल पर (फोटो: योगेश भंडारकर / अलामी)

आइसलैंड में रेक्जाविक विश्वविद्यालय के जिओथर्मल विशेषज्ञ और शोधकर्ता कुन्जेस डोल्मा का तर्क है कि भू-तापीय ऊर्जा का सभी ऊर्जा स्रोतों की तुलना में सबसे कम नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव पड़ता है। वह इस बात पर जोर देती हैं कि कार्बन उत्सर्जन न करने के साथ-साथ बड़े सौर संयंत्रों के विपरीत जिओथर्मल ऊर्जा के लिए भूमि के बड़े क्षेत्रों की आवश्यकता नहीं होती है, और यह प्रयुक्त सौर पैनलों जैसे ई-कचरे का उत्पादन नहीं करता है।

डोल्मा का कहना है कि सर्दियों में ऊर्जा की कमी झेलने वाले लद्दाख जैसे दूरदराज के इलाकों में भू-तापीय पहल में महत्वपूर्ण संभावनाएं हैं। वह द् थर्ड पोल को बताती हैं, “जिओथर्मल ऊर्जा का उपयोग बिजली उत्पादन के अलावा ग्रीन हाउस, पोल्ट्री फार्म और आवासों को गर्म करने के लिए भी किया जा सकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ये परियोजनाएं पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाले बिना आगे बढ़ें, भारत को एक जिओथर्मल नीति विकसित करनी चाहिए, जो चीन और आइसलैंड जैसे देशों के अनुभवों से प्रेरित हो और पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव को प्राथमिकता दे।”

स्थानीय आबादी के लिए चिंताएं और अवसर

पुगा घाटी में रहने वाले अर्ध-खानाबदोश चांग्पा जनजाति के सदस्य जिग्मेट लामू की भू-तापीय ऊर्जा परियोजना की बहाली के बारे में मिली-जुली भावनाएं हैं। वह आर्थिक विकास और नौकरी के अवसरों की उम्मीद करता है, लेकिन वह जनजाति के मवेशियों के लिए चारागाह खोने के बारे में भी चिंतित है। हालांकि संयंत्र को केवल सीमित भूमि की आवश्यकता हो सकती है, इसे घास के मैदानों के बगल में बनाया जा रहा है, जहां चांगपा अपनी पश्मीना बकरियों, याक, भेड़ और घोड़ों को चराते हैं। लामू का सुझाव है कि परियोजना – या तो सरकारी अधिकारियों के प्रतिबंधों के कारण या जल संसाधनों पर प्रभाव के कारण – उन्हें अपने जानवरों को पहाड़ों में चराने के लिए मजबूर कर सकती है, जहां हिम तेंदुए अक्सर देखे जाते हैं।

हालांकि, ओईसी के रवि का कहना है कि इस परियोजना से क्षेत्र में चरागाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया, “परियोजना के आसपास के शुष्क क्षेत्र में घास का कोई निशान नहीं है। मैं नहीं मानता कि यह किसी भी चराई गतिविधि में दखल दे रहा है, और यदि ऐसा दोबारा होता है, तो हम ऐसा नहीं होने देंगे। इसके अलावा, समुदाय और पर्यावरण की सुरक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है और हम ऐसा करने के लिए अपने अधिकार के तहत सब कुछ करेंगे। मेरा मानना है कि यह परियोजना पूरे क्षेत्र के लिए परिवर्तनकारी साबित होगी, इसलिए लोगों को इंतजार करना चाहिए और देखना चाहिए कि ओएनजीसी वहां क्या कर रही है।”

Yaks grazing in a field
लद्दाख में पुगा घाटी स्थित भू-तापीय ऊर्जा परियोजना के निकट चरते हुए याक (फोटो: समीर मुश्ताक़)

लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद (एलएएचडीओ-लेह) में करज़ोक निर्वाचन क्षेत्र, जिसमें पुगा घाटी भी शामिल है, के पार्षद अचो शर्मा नम्रक कहते हैं: “लोग ऊर्जा और नौकरी के अवसरों की उम्मीद में दशकों से इस परियोजना के पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, सरकार और कंपनी के बीच एक सहमति पत्र स्थानीय लोगों के लिए नौकरी के अवसर सुनिश्चित करता है।”

बहरहाल, लद्दाख के वन्यजीव संरक्षण और पक्षी क्लब के विसुधा का सुझाव है कि अधिकांश स्थानीय लोगों को अभी भी परियोजना के बारे नहीं पता है, और स्थानीय निवासियों के साथ पारदर्शिता और परामर्श सुनिश्चित किया जाना चाहिए। वह कहते हैं, “कंपनी को सभी संबंधित हितधारकों से परामर्श करना चाहिए और उन्हें अपनी योजनाओं की जानकारी देनी चाहिए। यह गारंटी देने के लिए कि पर्यावरणीय प्रतिज्ञाओं और सुरक्षा को बरकरार रखा गया है, हम सहमति पत्र [एमओयू] तक पूर्ण पहुंच की मांग कर रहे हैं।”