उर्जा

विश्लेषण: फ़ॉसिल फ़्यूल या रीनूअबल एनर्जी, कहां अधिक खर्च कर रहा है भारत?

निवेश की घोषणाएं हमेशा कारगर नहीं होतीं, योजनाओं को विस्तार से देखने पर पारदर्शिता की कमी दिखाई देती है - लेकिन आंकड़ों में गहराई से जाने पर पता चलता है कि भारत अपना पैसा कहां लगा रहा है।
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<p>भारत को यदि अपने डीकार्बोनाइजेशन लक्ष्यों को पूरा करना है तो नवीकरणीय ऊर्जा में भारी निवेश जरूरी है। लेकिन निवेश घोषणाओं के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि जीवाश्म ईंधन के लिए दिए जाने वाला समर्थन जारी है। (फोटो: जोर्ज बोथलिंग / अलामी)</p>

भारत को यदि अपने डीकार्बोनाइजेशन लक्ष्यों को पूरा करना है तो नवीकरणीय ऊर्जा में भारी निवेश जरूरी है। लेकिन निवेश घोषणाओं के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि जीवाश्म ईंधन के लिए दिए जाने वाला समर्थन जारी है। (फोटो: जोर्ज बोथलिंग / अलामी)

भारत अक्षय ऊर्जा और जीवाश्म ईंधन के बीच किसे चुन रहा है? एक ओर, भारत ने देश को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को डीकार्बनाइज़ करने की प्रतिबद्धताएं व्यक्त की हैं, दूसरी ओर, ऐसे योजनाकार हैं जिन्हें यक़ीन है कि भारत के विकास के उद्देश्य से आवश्यक बिजली प्रदान करने के लिए जीवाश्म ईंधन अनिवार्य है। इसके साथ, हमने सौर और पवन ऊर्जा में भारी निवेश की घोषणाएं देखी हैं, लेकिन कोयला, तेल और गैस में भी भारी-भरकम निवेश है। 

केवल पिछले दो वर्षों की बात करें तो, केंद्र सरकार ने कोयले में 400,000 करोड़ रुपये के आगामी सार्वजनिक और निजी निवेश की घोषणा की है। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने कहा है कि 2021-22 में गैस इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने में 480,000 करोड़ रुपये का निवेश होगा। देश, गैस और तेल के लिए घरेलू खोज को आगे बढ़ाने के अलावा, विदेशी तेल क्षेत्रों जैसे – रूस के सखालिन 1 और सखालिन 2 और ब्राज़ील के बीएम-सील -11 में अपने निवेश को बढ़ा रहा है।

ये घोषणाएं, पिछले वित्तीय वर्ष में भारत द्वारा अक्षय ऊर्जा में निवेश किए गए 116,000 करोड़ रुपये के बारे में रिपोर्टों के साथ आइ हैं। ये सारी घोषणाएं भी रिपोर्ट की गई है: 202,000 करोड़ रुपये कैपिटल इक्स्पेंडिचर यानी पूंजीगत व्यय (कारखानों या बिजली संयंत्रों जैसी नई संपत्ति के निर्माण पर खर्च किया गया धन) जो 2030 तक देश के इलेक्ट्रिक व्हीकल बाजार में प्रवाहित होने की उम्मीद है, अक्षय ऊर्जा और टेक्नॉलजी में रिलायंस का भारी-भरकम 595,000 करोड़ रुपये का निवेश, अडाणी समूह की ओर से नवीकरणीय ऊर्जा में 480,000 करोड़ रुपये का निवेश और सौर पैनलों और भंडारण बैटरी के स्वदेशी निर्माण के लिए भारत का जोर।

तो, भारत अधिक पैसा अक्षय ऊर्जा में लगा रहा है या जीवाश्म ईंधन में?

यह सवाल ऐसे समय में आया है, जब भारत, जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों का सामना कर रहा है। इस साल, उत्तर भारत में लगातार हीटवेव की स्थितियां देखी गईं, जबकि उत्तर पूर्व में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन का सामना करना पड़ा: विशेषज्ञों का कहना है कि ये असामान्य मानसून पैटर्न, जलवायु परिवर्तन का संकेत हैं

भारत, कार्बन डाइऑक्साइड का दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है (या अगर यूरोपीय संघ को एक माना जाता है तो चौथा)। भारत ने आक्रामक डीकार्बनाइज़ेशन की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2030 तक देश की बिजली का लगभग 50 फीसदी गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने के लिए और 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 45 फीसदी तक कम करने के लिए (2005 के एक बेसलाइन की तुलना में) निर्णयों के एक समूह को मंजूरी दी है।

भारत ऊर्जा में अपना पैसा कहां लगा रहा है?

क्या भारत इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की राह पर है? इस सवाल का जवाब ढूँढने का एक स्वाभाविक तरीक़ा है जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं और नवीकरणीय ऊर्जा में हुए नए निवेश की तुलना करना।

हालांकि, ऐसा कहना आसान है लेकिन करना कठिन है। भारत के ऊर्जा क्षेत्र में कई सार्वजनिक और निजी कंपनियां शामिल हैं जो जीवाश्म ईंधन और नवीकरणीय ऊर्जा दोनों में निवेश करती हैं। ज्यादातर कंपनियां कैपिटल एक्सपेंडिचर के आंकड़े अलग से नहीं बताती हैं। इसके अलावा ऊर्जा के क्षेत्र से जुड़ी सभी कंपनियों द्वारा किए गए सभी निवेशों का समेकित डेटाबेस भी नहीं है।

उदाहरण के लिए, गैस को लीजिए। भारत पाइप्ड प्राकृतिक गैस (पीएनजी) को बढ़ावा दे रहा है और संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) स्टेशन स्थापित कर रहा है, लेकिन फिर भी इसमें कुल निवेश की मात्रा निर्धारित करना बहुत मुश्किल है। एक थिंक टैंक, इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए), में ऊर्जा विश्लेषक स्वाति डिसूजा ने द् थर्ड पोल को बताया, “कंपनियों द्वारा वार्षिक रिपोर्ट और अर्निंग्स कॉल स्टेटमेंट्स, आपको सिटी गैस डिस्ट्रीब्यूशन में चल रहे निवेश के बारे में पर्याप्त नहीं बताते हैं। [उदाहरण के लिए] आप नहीं जानते हैं कि सीजीडी [सिटी गैस डिस्ट्रीब्यूशन] पर नियोजित पूंजीगत व्यय का कितना उपयोग किया गया है और कितना शेष है।”

एक वैकल्पिक दृष्टिकोण – केवल अधिकृत की गई संपत्तियों को देखना – भी काम नहीं करता है। भारत, वर्तमान में तेल, गैस, कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा में नई परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है। अगर इनको छोड़ दिया जाएगा तो ऊर्जा का बुनियादी ढांचे कैसा आकार लेने जा रहा है, उसकी समझ सामने नहीं आ पाएगी। आपको पूरी तस्वीर प्राप्त करने के लिए उन परियोजनाओं को शामिल करना होगा जो योजना के चरण में हैं।

इसके जवाब में, द् थर्ड पोल ने एक अलग तरह की कोशिश की है। हमने अन्वेषण, निष्कर्षण और उत्पादन के लिहाज से भारत में फैले ऊर्जा क्षेत्र के एक सरल मानचित्र के साथ शुरुआत की, और ऊर्जा के प्रत्येक रूप में सरकार और सबसे बड़ी फर्मों, दोनों द्वारा पूंजीगत व्यय की घोषणाओं को देखा।

भारत के ऊर्जा क्षेत्र में सबसे बड़ी पूंजीगत व्यय घोषणाओं की एक सांकेतिक सूची

तेल: सरकार के स्वामित्व वाली तेल कंपनियांवित्त वर्ष 2022-23 में 111,000 करोड़ रुपये
तेल: केयर्न एनर्जी (निजी कंपनी)वित्त वर्ष 2012-23 में 5,600 करोड़ रुपये
गैस: वन नेशन, वन गैस ग्रिड जो एलएनजी टर्मिनल्स, पाइपलाइन्स और सिटी गैस डिस्ट्रीब्यूशन तक फैला है2020 और 2024 के बीच 480,000 करोड़ रुपये
कोयला: कुल निवेश (राज्य और निजी क्षेत्र दोनों का)वित्त वर्ष 2020 और 2030 के बीच 400,000 करोड़ रुपये
बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं (राज्य और निजी दोनों)2030 तक 175,100 करोड़ रुपये*
पंप्ड स्टोरेज हाइड्रोपावर 2030 तक 672,000 करोड़ रुपये*
नवीकरणीय: सौर, पवन और लघु जलविद्युतवित्त वर्ष 2011-22 में 116,000 करोड़ रुपये
सौर उपकरण निर्माणवित्त वर्ष 2025 तक 50,000 करोड़ रुपये
पवन ऊर्जा उपकरण निर्माण (निजी क्षेत्र)10,000-15,000 करोड़ रुपये, अवधि अस्पष्ट
रिलायंस का नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र **अगले 10-15 वर्षों में 595,000 करोड़ रुपये
अडाणी का अक्षय ऊर्जा में प्रवेश**2030 तक 480,000 करोड़ रुपये
*भारत 2030 तक 24,300 मेगावाट तक स्थापित पनबिजली क्षमता को बढ़ावा देना चाहता है। देश 96,000 मेगावाट पंप्ड स्टोरेज को भी जोड़ना चाहता है। प्रति मेगावाट 7 करोड़ रुपये (877,357 डॉलर) की लागत मान लें, तो यह क्रमशः 175,000 करोड़ रुपये और 672,000 करोड़ रुपये पहुंचती है।
**रिलायंस और अडाणी के अलावा, एक्साइड, ओहमियम, रिन्यू, एक्मे और अन्य जैसी अन्य निजी कंपनियां भी नई ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में निवेश कर रही हैं।

इनके अलावा, 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों में 220,000 करोड़ रुपये के निवेश की योजना है।

कहने की जरूरत नहीं है कि ये आंकड़े वास्तविक स्थिति से बहुत कम हैं। पूंजीगत व्यय वाली योजनाएं अतिशयोक्ति की चपेट में हैं। भारत सरकार ने बार-बार बड़े बुनियादी ढांचे से जुड़े वादे किए हैं लेकिन बाद में उन्हें पूरा नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, भारत 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय क्षमता जोड़ने के अपने लक्ष्य से चूकने वाला है। निजी कंपनियों के साथ भी समझौता ज्ञापन हमेशा निवेश में तब्दील नहीं होता है।

इस तरह इन आंकड़ों से कुछ व्यापक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

हाइड्रो और गैस प्रतिस्पर्धा में बढ़त खो रहे हैं

इनमें से कुछ ऊर्जा स्रोत दूसरों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी हैं।

जलविद्युत को लेकर भारत के नए बड़े स्तर के प्रयासों को ऊर्जा भंडारण और ग्रिड स्थिरीकरण के लिए बांधों की जरूरत है (जैसे-जैसे सौर और पवन ऊर्जा का हिस्सा बढ़ता है, भारत को बिजली आपूर्ति में उतार-चढ़ाव को कम करने के लिए जलविद्युत की आवश्यकता होती है)। इसका मतलब है कि छोटे बांध – जैसे रन-ऑफ-द-रिवर डैम या पंप्ड स्टोरेज प्रोजेक्ट – को बैटरी स्टोरेज सिस्टम और इलेक्ट्रोलाइजर जैसे ऊर्जा भंडारण के उभरते रूपों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होगी। उद्योग के रुझान बताते हैं कि जलविद्युत महंगा होगा।

यदि जलविद्युत नई प्रौद्योगिकियों के लिए अपनी व्यवहार्यता खो रहा है, तो आयातित गैस की उच्च कीमत के कारण भारत की गैस से जुड़ी योजनाएं ध्वस्त हो रही हैं। यहां तक कि यूक्रेन में चल रहे संकट से पहले ही आयातित गैस पर निर्भर होने की समस्या उजागर हो चुकी थी। पता चल गया था कि गैस के क्षेत्र में भारत की स्थिति काफी खराब है। ईंधन की तुलना में आयातित गैस के महंगा होने के कारण एक बदलाव की स्थिति (कारखानों के लिए कोयला, खाना पकाने के लिए इंडक्शन हीटर) पैदा होती है। इससे एलएनजी टर्मिनल और पाइपलाइन कम क्षमता के उपयोग के साथ संघर्ष कर रहे थे। 

हाल के महीनों में, घरेलू गैस की कीमतों में बढ़ोतरी से इस क्षेत्र की समस्याएं और बढ़ गई हैं, जिससे शहर के गैस वितरकों का व्यवहार्यता संकट गहरा गया है। गैस और जलविद्युत के बीच प्रतिस्पर्धात्मकता की इस सापेक्ष कमी का एक परिणाम, राज्य के वित्त पोषण पर अधिक निर्भरता है। सरकारी खर्च तेजी से जीवाश्म ईंधन (और जलविद्युत) का समर्थन करता है, जबकि नवीकरणीय ऊर्जा में पूंजी निवेश, बाजार द्वारा संचालित होता है। 

दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर फाइनेंशियल एकाउंटेबिलिटी एंड क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा 2021 की एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है, “2020 में, ऋण के मूल्य का 74 फीसदी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं और 26 फीसदी कोयला बिजली संयंत्रों को चला गया … सरकार के स्वामित्व वाले अधिकांश बैंक, कोयले के लिए अंतिम उपाय के रूप में उभरे क्योंकि निजी बैंकों ने इस क्षेत्र को दरकिनार कर दिया था।”

नतीजतन, निजी कंपनियां अपनी वाणिज्यिक कोयला खदानों में निवेश करने में धीमी रही हैं। शहरी गैस वितरण में, अपेक्षाकृत कम निजी क्षेत्र की भागीदारी को देखते हुए, राज्य के स्वामित्व वाली तेल कंपनियों ने अब तक नीलाम किए गए अधिकांश क्षेत्रों को हासिल किया है। और भारत की तरफ से जलविद्युत को बढ़ावा देने के लिए नवीनतम भारी-भरकम प्रयास का नेतृत्व सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास है। निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी वैसी नहीें है जैसा कि सरकार की तरफ से जल विद्युत को बढ़ावा देने के लिए पहले के बड़े प्रयासों में होती थी।

यूक्रेन में युद्ध, अब भारत को ऊर्जा के रूपों के बीच अंतर करने के लिए मजबूर कर रहा है। भारत के कोयला मंत्रालय के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने नाम न छापने की शर्त पर द् थर्ड पोल को बताया, “एक देश की परेशानी अब पूरी दुनिया को अस्थिर कर सकती है। दुनिया इस तरह से अब आपस में जुड़ी हुई है।” वह कोयला गैसीकरण (कोल-गैसीफिकेशन) और सिनगैस जैसे तरीकों के माध्यम से अपने कोयला भंडार के जीवन को लम्बा करने की भारत की योजनाओं के बारे में एक सवाल का जवाब दे रहे थे। उन्होंने कहा कि यूक्रेन जैसे संकट, भारत को केवल अपने घरेलू ऊर्जा भंडार का उपयोग करने की आवश्यकता पर बल देते हैं।

सिनगैस क्या है?

सिनगैस हाइड्रोजन और कार्बन मोनोऑक्साइड का ज्वलनशील मिश्रण है, जिसमें कम मात्रा में मीथेन, कार्बन डाईऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन होते हैं।

एक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी का नज़रिया

इन कारकों को देखते हुए – पनबिजली और गैस की घटती व्यवहार्यता; नवीकरणीय ऊर्जा के लिए अधिक पूंजी का उपलब्ध होना; जियोपॉलिटिक्स ऊर्जा में आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ने की जरूरत पर बल दे रही है – क्या कोयले, तेल और नवीकरणीय ऊर्जा में अनुमानित खर्च, वास्तव में जलविद्युत और गैस की तुलना में अधिक होने की संभावना है?

द् थर्ड पोल ने यह सवाल मुंबई की क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल से किया। अपनी प्रतिक्रिया में, क्रिसिल ने इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में संभावित पूंजीगत व्यय की मात्रा निर्धारित की। क्रिसिल की शोध निदेशक हेतल गांधी ने कहा, “बिजली के नजरिए से निवेश, स्वच्छ ऊर्जा [सौर और पवन मिलाकर] द्वारा संचालित होने जा रहा है, जो कि वित्तीय [वर्षों] 2023-2025 में 300,000 करोड़ रुपये है।” 

गैस और जल विद्युत की आपूर्ति संबंधी दिक्कतों के साथ ही योजनाओं के पूरे होने की अवधि बहुत लंबी है, ऐसे में वह उम्मीद करती हैं कि 2023 और 2025 के बीच केवल 110 करोड़ रुपये गैस में और लगभग 55,000-60,000 करोड़ रुपये बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं में लगेंगे।

तेल, कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के बारे में क्या? इस पर गांधी का कहना है कि विभिन्न जुड़े हुए खंडों के साथ चूंकि हाइड्रोकार्बन श्रृंखला विशाल है, ऐसे में नवीकरणीय ऊर्जा के साथ हाइड्रोकार्बन के अन्वेषण और उत्पादन खंड की तुलना करना अधिक उपयुक्त होगा। 

इसका मतलब दो क्षेत्रों में पूंजीगत व्यय की तुलना करना होगा।

द् थर्ड पोल से गांधी कहती हैं, “अगले दो वित्त वर्ष (वित्त वर्ष 2023 और वित्त वर्ष 2024) में संचयी रूप से भारत में क्षमता वृद्धि पर अक्षय ऊर्जा [सौर और पवन] पर पूंजीगत व्यय 1900-2000 अरब रुपये (190,000-200,000 करोड़) के निवेश की तुलना में  हाइड्रोकार्बन के ईएंडपी [अन्वेषण और उत्पादन] खंड में 1,100-1,200 अरब रुपये (110,000-120,000 करोड़ रुपये) की हम उम्मीद करते हैं।

वह कहती हैं, “हाइड्रोकार्बन के मामले में यह ज्यादातर ओएनजीसी [तेल और प्राकृतिक गैस निगम] जैसी सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा संचालित होगा, जबकि हम उसी समय अवधि में लगभग 35-37 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा जोड़े जाने की उम्मीद करते हैं।”

वार्षिक रूप से, ये आंकड़े एक दिलचस्प कहानी बयां कर रहे हैं। 

क्या यह सब पर्याप्त तेज़ी से हो रहा है?

ब्लूमबर्ग एनईएफ के अनुसार, भारत को अपने 2030 जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 223 अरब डॉलर (1,784,000 करोड़ रुपये) का निवेश करना है। जैसा कि ऊपर दिए गए चार्ट से पता चलता है कि भारत पटरी पर नहीं है। भारत न केवल आवश्यकता से धीमी गति से नवीकरणीय ऊर्जा जोड़ रहा है, बल्कि यह काम जीवाश्म ईंधन के साथ चल रहा है।

जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के समर्थकों का कहना है कि कोयले, तेल और गैस में निरंतर निवेश का एक कारण यह है कि अक्षय ऊर्जा स्रोत अनिरंतर होते हैं, सौर और पवन पूरे दिन बिजली प्रदान नहीं करते हैं जब तक कि बैटरी भंडारण नहीं जोड़ा जाता, जिससे लागत बढ़ जाती है। लेकिन इसके अलावा, हाइड्रोकार्बन राज्य के लिए राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

आईआईटी, दिल्ली में पब्लिक पॉलिसी के एक प्रोफेसर रोहित चंद्रा कहते हैं, “नवीकरणीय परियोजनाओं की तुलना में जीवाश्म ईंधन पूंजीगत व्यय का स्थानीय रोजगार और खपत गुणक [रोजगार वाले लोगों की संख्या और वे तथा उनके आश्रित कितना उपभोग करते हैं] हमेशा बहुत अधिक रहा है।” वह कहते हैं, “हम इसे पसंद करते हैं या नहीं, लेकिन जीवाश्म ईंधन पूंजीगत व्यय और इससे जुड़े गुणक भारत में सभी शहरों में स्थापित हो गए हैं। यहां एक बुनियादी विकासवाद है जो सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजीगत व्यय से घिरा हुआ है जो अभी भी इसे बहुत आकर्षक बनाता है।”

भारत न केवल आवश्यकता से धीमी गति से नवीकरणीय ऊर्जा जोड़ रहा है, बल्कि यह काम जीवाश्म ईंधन के साथ चल रहा है।

इन वर्षों में, कई राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता जीवाश्म ईंधन अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से कोयले में भागीदार हो गए हैं। अभी तक, उनके सीधे नवीकरणीय क्षेत्र में प्रवेश करने के बहुत कम प्रमाण हैं। नतीजतन, सत्ता के गलियारों में जीवाश्म ईंधन के लिए मजबूत समर्थन है।

सिर्फ इतना ही नहीं है। समन्वय के अभाव में, केंद्र सरकार में प्रत्येक ऊर्जा मंत्रालय अपने ईंधन पर जोर दे रहा है, एक ऐसा परिदृश्य तैयार हो रहा है जिसमें नीति नहीं बल्कि मूल्य भारत के ऊर्जा संक्रमण की रूपरेखा निर्धारित करेगी।

एक ऊर्जा संरचना को दूसरे के साथ बदलना आसान नहीं है। आईआईटी, दिल्ली के प्रोफेसर चंद्रा कहते हैं, “ऊर्जा के एक रूप से दूसरे रूप में स्विच करना एक बहु-दशकीय प्रक्रिया है।” “यही हम यहां देख रहे हैं।”