<p>जिंदगी बदल रही है: बाएं एक आर्काइव फोटोग्राफ है, जिसमें मिलम गांव में, जो अब उत्तराखंड में है, पारंपरिक त्योहारों वाले पोशाक में महिलाएं। दाएं तस्वीर में; दारकोट गांव की एक बुनकर दमयंती पांगती हैं, जो जून 2022 में पारंपरिक &#8216;खद्दी&#8217; या करघे पर काम कर रही हैं। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)</p>

उत्तराखंड के पहाड़ों में लुप्त होती भूटिया संस्कृति की एक झलक

जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ते जा रहे हैं और धाराएं सूखती जा रही हैं, भूटिया समुदाय, भारतीय हिमालय में अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
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भारतीय हिमालय में, समुद्र तल से 2,200 मीटर ऊपर, एक छोटे से संग्रहालय में, एक समुदाय के बदलावों की झलक, कांच से ढके खांचों में बंद हैं।  

इस संग्रहालय में भूटिया समुदाय की पिछली पीढ़ियों के बारे में जानकारी देने वाली वस्तुएं संरक्षित हैं। इनमें कुछ कपड़े, आभूषण, घरेलू सामान, धुंधली तस्वीरें व नक्शे इत्यादि हैं। 

एक समय, भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग के संरक्षक, भूटिया, कुमाऊं में काफी ऊंचाइयों पर रहने वाले बेहद समृद्ध समुदायों में से एक हुआ करते थे। यह क्षेत्र अब भारतीय राज्य उत्तराखंड है, जो नेपाल से जुड़ा हुआ है। पिछले 60 वर्षों में, इस समुदाय के जीवन का तरीका नाटकीय रूप से बदल गया है। 

1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद व्यापार मार्ग बंद हो गए और आजीविका के अवसरों की तलाश में, उत्तराखंड का भूटिया समुदाय, ऊंचे पहाड़ों की जोहार घाटी से हिमालय की तलहटी वाले शहरों में आने लगे। 

आज, वे व्यापार और वाणिज्य के बजाय, पशुधन, कृषि और हस्तशिल्प से जीवन यापन करते हैं।

A Bhutia messenger for a Tibetan official, photographed in Milam village, Johar Valley, in 1956
बाएं: एक तिब्बती अधिकारी का एक भूटिया दूत, 1956 में जोहार घाटी के मिलम गांव में ली गई फोटो। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
the state government’s Public Works Department maintaining roads in upper Johar, and also as porters and guides in their spare time. Photographed near Mapang village in the Johar Valley in May 2022.
दाएं: सुंदर नाम का एक युवक (दाएं) और उसका दोस्त। ये राज्य सरकार के लोक निर्माण विभाग के लिए काम करते हैं। इनका काम ऊपरी जोहार में सड़कों का रखरखाव करना है और अपने खाली समय में ये कुली और गाइड के रूप में भी काम करते हैं। मई 2022 में जोहार घाटी में मापांग गांव के पास की तस्वीर। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
Abandoned houses in Martoli village, Johar Valley. Now mostly depopulated, only four homes are still inhabited for a portion of the year in Martoli
जोहार घाटी के मारतोली गांव में खाली मकान। अब यह गांव ज्यादातर खाली हो चुका है। अभी केवल चार घर, साल के कुछ महीने यहां रहते हैं। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

‘भूटिया’ कौन हैं?

‘भूटिया’ शब्द उन लोगों के समूह को संदर्भित करता है जो 9वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास तिब्बत से दक्षिण में चले गए थे और भारत-तिब्बत सीमा से लगी हुई पर्वत श्रृंखलाओं में बस गए। कई लोगों ने हिंदू संस्कृति के तत्वों को अपनाते हुए तिब्बती संस्कृति के पहलुओं को बरकरार रखा है। अनुमान है कि आज, 10 लाख से अधिक भूटिया हैं, जिनमें से लगभग दो लाख भारत में हैं।

भूटिया, जिस तलहटी शहर में गए उनमें से एक मुनस्यारी है। यहीं पर साल 2000 में स्थानीय इतिहासकार शेर सिंह पांगटे ने ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम की स्थापना की थी। इसके अंदर, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों की पंक्तियों को 1980 के दशक के रंगीन प्रिंटों के साथ प्रदर्शित किया गया है। ये तस्वीरें जोहार घाटी के कुछ हिस्सों के ग्रामीण जीवन को दर्शाती हैं जिनका अस्तित्व अब खत्म हो चुका है। इन तस्वीरों में बहुत पहले बीत चुके समय की स्मृति और उदासी की झलक हैं। 

Photographs in the Tribal Heritage Museum in Munsyari, mostly from the 1950s to the 1980s, offer snapshots into a way of life that is fast declining. Local historian Sher Singh Pangtey dedicated a lifetime of effort to preserving Bhutia culture at the museum, up until his death in 2017.
मुनस्यारी के ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम में तस्वीरें। ज्यादातर तस्वीरें 1950 से 1980 के दशक तक के एक ऐसे जीवन की झलक दिखाती हैं, जो बहुत तेजी से खत्म होता जा रहा है। स्थानीय इतिहासकार शेर सिंह पांगटे ने 2017 में अपनी मृत्यु तक, संग्रहालय में भूटिया संस्कृति को संरक्षित करने के लिए जीवन भर का प्रयास समर्पित किया। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
Traditional snow shoes, illuminated by the blue light of the Tribal Heritage Museum. Some of the objects in the museum are up to 250 years old.
पारंपरिक बर्फ के जूते, ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम की नीली रोशनी से प्रकाशित हैं। संग्रहालय में 250 वर्ष तक की पुरानी कुछ वस्तुएं भी हैं।(फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
museum’s exterior walls
दाएं: संग्रहालय की बाहरी दीवारों में से एक पर पारंपरिक ग्रामीण जीवन की एक पेंटिंग।(फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
Bhutia Nepal Map
मैप: द् थर्ड पोल

जोहार घाटी में अब कोई भूटिया परिवार स्थायी रूप से नहीं रहता है; साल भर केवल सेना और सड़क कर्मचारी ही रहते हैं। लगभग 20 परिवार, अपना साल जोहार घाटी और मुनस्यारी के बीच बांटते रहते हैं। 

सरल भाषा में इसे माइग्रेशन यानी प्रवास के रूप में जाना जाता है। कई लोग हर साल मई की शुरुआत में अपनी मूल जमीन पर आते हैं और सर्दियों में वापस लौट जाते हैं। यह एक तरह से अपनी खेती की भूमि पर कब्जा बनाए रखने का तरीका है। लेकिन धीरे-धीरे पैतृक घरों और अपनेपन की भावना में कमी आना स्वाभाविक है। 

यह लगभग 50 किलोमीटर की यात्रा है, जो 1,220 मीटर की ऊंचाई पर मुनस्यारी और मिलम के बीच है, जो जोहार घाटी का सबसे ऊंचा गांव है जो अभी भी बसा हुआ है।

पुरुष और महिलाएं, यहां तक कि बुजुर्ग, जब तक वे सक्षम हैं, इस जोखिम भरे इलाके में कठिन यात्रा जारी रखते हैं। इस यात्रा में चट्टानों के किनारे संकरे रास्तों में चलना पड़ता है। बारिश और चट्टानों के गिरने का खतरे की बीच लोग यात्रा करते हैं। धाराओं के पार जाना होता है, जो पुराने रास्तों को बहा ले जाती है और लगभग हर मौसम में नए मार्ग बनाती है। विस्मय और बेजोड़ सुंदरता से भरी विशाल घाटियों से गुजरना होता है। 

Photographs of people travelling through fields in the Johar Valley in June 2001 on the way to Milam
जून 2001 में मिलम के रास्ते में जोहार घाटी में खेतों से यात्रा करते लोगों की तस्वीरें (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
*मूल फोटोग्राफ स्थानीय गाइड और क्षेत्रीय विशेषज्ञ जगदीश भट्ट द्वारा लिए गए थे और उनकी अनुमति से यहां पुन: प्रस्तुत किया गया है। 
A young man carrying his grandmother to the Johar Valley in May 2022. Elderly members of the Bhutia community make the annual migration for as long as they are able
मई 2022 में अपनी दादी को जोहार घाटी में ले जाता एक युवक। भूटिया समुदाय के बुजुर्ग सदस्य जब तक सक्षम होते हैं, यहां वार्षिक प्रवास करते हैं। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

हालांकि, उच्च हिमालय में बदलती जलवायु ने इस यात्रा को ज्यादा कठिन और अधिक अप्रत्याशित बना दिया है। 2012 तक, पिथौरागढ़, जिस जिले में मुनस्यारी स्थित है, में औसत वार्षिक तापमान 1911 की तुलना में 0.58 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह राज्य के किसी भी अन्य जिले से अधिक था। बारिश भी अधिक अनिश्चित हो गई है।

व्यापार और कृषि से होने वाली अपनी आय को खो चुकी पुष्पा लासपाल, मापांग गांव में अपनी जीविका के लिए यात्रियों और सड़क कर्मियों को भोजन बेचती हैं। वह कहती हैं, “पहले, हम प्रवास के लिए योजना बना सकते थे और बेहतर तैयारी कर सकते थे। अब जब हम बारिश की सबसे कम उम्मीद करते हैं, उस समय ही बारिश हो जाती है। इससे राशन और अन्य जरूरी चीजों के साथ यात्रा करना बहुत कठिन हो जाता है।”

उदाहरण के लिए इस साल, अप्रत्याशित तरीके से बारिश समय से पहले शुरू हो गई, जिससे लोगों की यात्रा देर में- मई के आखिर से जून के शुरुआत में- शुरू हुई। जलवायु परिवर्तन के ऐसे प्रभाव, भूटिया समुदाय की परेशानियों को बढ़ाते हैं जिससे जोहार की पारंपरिक संस्कृति का नुकसान होता है।

इसका सबसे प्रमुख उदाहरण मिलम ग्लेशियर-घाटी के निवासियों के लिए पानी का मुख्य स्रोत- है। दशकों से, ग्लेशियर के कठिन मार्ग पर विजय प्राप्त करने के इच्छुक ट्रेकर्स के लिए, यह कर पाना सबसे बड़ा पुरस्कार साबित होता रहा है। ट्रेकिंग मार्गों की पुरानी तस्वीरों में काफी नदियां और जल निकाय नजर आते हैं। एक बुजुर्ग निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि पहले ग्लेशियर मिलम गांव तक पहुंचते थे। 

अब, ग्लेशियर का अगला हिस्सा गांव के ऊपर की ओर 8 किलोमीटर तक घट गया है। 1954 और 2006 के बीच, मिलम ग्लेशियर औसतन 25 मीटर प्रति वर्ष पीछे हट चुका है। 

Photographs taken by guide Jagdish Bhatt of trekking routes in the Johar Valley in June 2001, when there was an abundance of streams and water bodies
जून 2001 में जोहार घाटी में ट्रेकिंग मार्गों के गाइड जगदीश भट्ट द्वारा ली गई तस्वीरें। उस समय नदियों और जल निकायों की संख्या काफी ज्यादा थी। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
The remains of the Milam glacier and snout of the Gori River in May 2022
मई 2022 में मिलम ग्लेशियर और गोरी नदी के अगले हिस्से के अवशेष (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

आज जैसे-जैसे गांव से पानी की आपूर्ति दूर होती जा रही है, मिलम में खेती और दैनिक जीवन कठिन होता जा रहा है।

घराट, यानी पहाड़ की वो चक्की जो बिजली से नहीं बल्कि पानी के वेग से अनाज पीसने के लिए इस्तेमाल की जाती थी, कभी हिमालय के पहाड़ों में आम थी। कई नदियों और नालों में बढ़ते तापमान और पानी के कम प्रवाह ने घराट को अतीत की बात बना दिया है। अब घराट बहुत कम बचे हैं और कहीं-कहीं ही दिखते हैं।

A model of a man crouching by a gharat, or water mill, at the Tribal Heritage Museum
ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम में एक घराट के पास झुके हुए एक आदमी का एक मॉडल (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

तेजी से नष्ट होती भूटिया संस्कृति 

एक दशक से अधिक समय से, मिलम से मुनस्यारी को जोड़ने वाली सड़क बनाने का काम चल रहा है। यह काम 2027 तक पूरा होने वाला है। तब तक,

इस बात की आशंका काफी ज्यादा है कि भूटिया संस्कृति, ऊंचाई तक पहुंचने की जगह और अधिक फीकी हो जाए। 

खान-पान से लेकर कपड़ों तक और आजीविका से लेकर दैनिक दिनचर्या तक के शौका समुदाय के जीवन में बदलावों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया है। कुमाऊं में भूटिया को स्थानीय रूप से शौका समुदाय के रूप में जाना जाता है। 

बटर टी, पहले साल भर प्रयोग में लाया जाने वाला जोहार पेय पदार्थ रहा है। अपनी गर्म तासीर की वजह से मूल रूप से अब यह सर्दियों में पिया जाने वाला पेय पदार्थ है। पहली बार आजमाने की इच्छा रखने वाले आगंतुकों के लिए भी इसे एक पेय के रूप में परोसा जाता है।

बटर टी यानी मक्खन वाली चाय बनाने के लिए परंपरागत दुमका की जगह अब आधुनिक बटर चर्नर ने ले ली है। दुमका, लकड़ी का एक बड़ा बर्तन होता है जो अब ज्यादातर रसोईघरों में किनारे पड़ा रहता है। बटर चर्नर, उपयोग और कम मात्रा में चाय बनाने के लिए अधिक सुविधाजनक है।

Butter tea in Mapang
मपांग में बटर टी (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
A modern churner (left) and a dumka (right) for making butter tea in Mapang
मपांग में बटर टी बनाने के लिए एक आधुनिक चर्नर (बाएं) और एक दुमका (दाएं) (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

गर्मी पैदा करने वाली कई जड़ी-बूटियों के मिश्रण से बनी पारंपरिक चटनी दुमचा का आज मुख्य रूप से ऊपरी जोहार में ही सेवन किया जाता है। कम ऊंचाई वाली जगहों पर जाकर बस गए लोगों के लिए अब इन सबका वैसा मतलब नहीं रहा है क्योंकि ऊपरी जोहार की तुलना में वहां ठंड कम होती है। लोकप्रिय जड़ी-बूटियां जैसे गंदरायणी और जुमबु को उगाने के लिए काफी ठंडे तापमान की आवश्यकता होती है। पहले इनको कम ऊंचाई वाली जगहों पर भी उगाया जा सकता था। मुनस्यारी के दुकानदारों का कहना है कि इन जड़ी-बूटियों को अब अधिक ऊंचाई पर ही उगाया जाता है, फिर सुखाया जाता है और भेजा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप लागत दस गुना तक बढ़ जाती है।

घाटी के अनेक बुजुर्गों ने द् थर्ड पोल को बताया कि पहले, जोहार घाटी में विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती की जाती थी। अब केवल आलू की खेती ही जारी है, जिसके लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है। 

मुनस्यारी के ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम के एक कोने में एक आंवल कोट लटका हुआ है जो ठंड और बारिश से सुरक्षा देता था और स्थानीय लोगों द्वारा पहना जाता था। शरीर को गर्म रखने और बारिश में पानी से बचाने के अपने गुण के कारण पहले यह बहुत लोकप्रिय हुआ करता था लेकिन अब इसका उपयोग बहुत कम लोग करते हैं। म्यूजियम के डिस्प्ले में ये जानकारियां लिखी हुई हैं। 

1960 के दशक के कोट, जो पारंपरिक रूप से चरवाहों द्वारा पहने जाते थे, ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम में प्रदर्शित किए गए हैं। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

1962 से पहले, कुमाऊं में भूटिया, याक के ऊन और पश्मीना से बुनाई करते थे, तिब्बत से बकरियों के लिए अन्य सामानों का व्यापार करते थे। लेकिन, आंवल कोट की तरह, मोटे कोमौल और ऑड्रे (ऊन से बने पारंपरिक लंबे कपड़े) फैशन से बाहर हो गए हैं और उनकी जगह सूती स्वेटशर्ट्स ने ले ली है। अब, इस क्षेत्र में बनने वाले अधिकांश कपड़े, कुर्ते (लंबी सूती कमीज) और अंगोरा ऊनी टोपी हैं जो पर्यटकों को बेचे जाते हैं।

मुनस्यारी के एक गांव दारकोट में एक बुनकर दमयंती पांगती, अपने ससुर की याद दिलाती है, जो केवल अपनी पत्नी के हाथों से बनाये गये कपड़े ही पहनते थे। पांगती, जिन्हें उनकी सास द्वारा खाद्दी नामक पारंपरिक करघे पर बुनाई सिखाई गई थी, का कहना है कि याक का ऊन, आज के गर्म तापमान में पहनने के लिहाज से बहुत गर्म है और महंगा भी। 

Damyanti Pangti at her loom in May 2022
मई 2022 में दमयंती पांगती अपने करघे पर (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

क्या वह बुनाई का अपना ज्ञान अपनी बेटी को देंगी, जो उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में चिकित्सा की पढ़ाई कर रही है? इस पर उनको संदेह है: यह पुरानी पीढ़ी है जो पुरानी और नई दुनिया बीच लटकी हुई है और अपनी संस्कृति के अवशेषों को बचाए रखने के लिए बेताब है।

पांगती द् थर्ड पोल को बताती है कि वह भाग्यशाली महूसस करती हैं जो इस पारंपरिक शिल्प को सीख पाईं। वह लैंब और अंगोरा ऊन से बुनाई की तकनीक को जानती हैं, जो त्वचा पर बहुत नरम है और पर्यटकों के बीच अधिक लोकप्रिय है। इस तरह, वह अपना जीवन यापन करने में सक्षम हो गई हैं।

हाल ही में, मुनस्यारी में महिलाओं ने द् थर्ड पोल को बताया, महिलाओं के नेतृत्व वाली सहकारी समिति ने पारंपरिक कपड़ों में लोगों की एक नए सिरे से रुचि देखी है। सरस नामक सहकारी समिति की स्थापना 2008 में हुई थी और यह मुनस्यारी के आसपास लगभग 50 महिलाओं के साथ काम करती है।

केवल आधुनिक प्राथमिकताओं के अनुरूप बनने वाले अंगोरा ऊन के उत्पाद ही नहीं बल्कि याक और पश्मीना ऊन से बने पारंपरिक कोट के लिए कुछ थोक ऑर्डर मिले हैं। ये आम तौर पर एक गैर सरकारी संगठन हिम कुटीर से आते हैं, जो उन्हें शहर की दुकानों या प्रदर्शनियों में बेचता है।

Damyanti Pangti knits garments made from angora wool in a style that suits tourists’ and contemporary preferences
दमयंती पांगती, अंगोरा ऊन से बने वस्त्रों को इस शैली में बुनती है जो पर्यटकों और समकालीन प्राथमिकताओं के अनुरूप हो। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

अगली भूटिया पीढ़ी का भविष्य?

आजीविका के अवसरों की खोज के लिहाज से भूटिया की अगली पीढ़ी में और बदलाव आए हैं। साल की शुरुआत में बेहद ऊंचाई वाले स्थानों से बर्फ हट गई, इसलिए युवा अब पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल किए जाने वाले बेशकीमती यारशागुंबा को इकट्ठा करने के लिए एक नए, जोखिम भरे रास्तों पर चलने लगे हैं। यह हिमालय की पहाडियों में पाया जाने वाला भूरे रंग का फफूंद है। उत्तराखंड में इसे कीड़ा जड़ी भी कहा जाता है।

बाद की बर्फबारी और पहले बर्फ पिघलने के साथ लंबे समय तक गर्म मौसम होने के कारण इस फफूंद को खोजने की संभावनाएं ज्यादा बढ़ गई हैं, जिसके बर्फ के नीचे दबे होने पर खोजना तकरीबन असंभव है। लेकिन ऐसी स्थितियों में एक गलत कदम का सीधा मतलब ऐसे हादसों का होना है जिनमें जान भी जा सकती है। रास्ते बेहद संकरे और दरारों से युक्त हैं; सांस लेने की समस्या आम है; और क्षेत्र को लेकर समूहों के बीच संघर्ष अनसुना नहीं है।

इस व्यापार में शामिल और स्थानीय लोगों ने द् थर्ड पोल को बताया कि वसंत ऋतु में बर्फ के पिघलने का इंतजार बहुत साल पहले हुआ करता था। अब, बस कुछ और गर्म सप्ताह का मतलब है कि बहुत अधिक कीड़ा जड़ी को इकट्ठा किया जा सकता है। हालांकि, इसको खोजने के लिए लंबे समय तक रहने वाले इस तरह के मौसम की वजह से पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में नकारात्मक प्रभाव बढ़ रहा है क्योंकि इस क्षेत्र के वे रास्ते खुल जाते हैं जो पूरी तरह से बर्फ से ढके रहते थे। 

One of the remaining ice fields on the route through the Johar Valley, about 35km from Munsyari
मुनस्यारी से लगभग 35 किमी दूर जोहार घाटी के मार्ग पर बचे हुए बर्फ के मैदानों में से एक (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

मुनस्यारी में ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम के पास बाजार में भीषण गर्मी की दोपहर में किशोरों का एक समूह एक स्थानीय स्टोर पर आइस लॉली खरीद रहा है। वे पर्यावरण के मुद्दों और जलवायु परिवर्तन के बारे में व्यापक जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से स्थानीय युवा क्लब द्वारा मुनस्यारी में आयोजित होने वाले एक आगामी कार्यक्रम के बारे में चर्चा कर रहे हैं जो अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित है।  

ये किशोर एक आधुनिक और पर्यावरण के प्रति जागरूक भविष्य के लिए अपनी सोच को आवाज देते हैं, जिसमें समावेशी पर्यटन को बढ़ावा देने की बात है। इनमें उचित अपशिष्ट प्रबंधन, संवेदनशील विकास, वन्यजीव पर्यटन और होमस्टेस इत्यादि शामिल हैं। आजीविका के ऐसे अवसरों के माध्यम से ही वे समुदाय के लिए एक नई राह बनाना चाहते हैं।

तेजी से बदलती दुनिया के बीच यह उम्मीद बंधी हुई है कि नए और पुराने के बीच कहीं मध्य स्थान भी मिल जाएगा और बेहतरी के लिहाज से कुमाऊं के भूटियाओं की विरासत खत्म नहीं होगी। 

An archive photo of Milam village in 1985
1985 में मिलम गांव की एक संग्रह तस्वीर। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)
A doorway in an abandoned house in Milam
दाएं: मिलम में एक छोड़ दिये गए एक घर में एक दरवाजा। (फोटो: शिखा त्रिपाठी/द् थर्ड पोल)

इस लेख में प्रदर्शित आर्काइव मैटेरियल मुनस्यारी में ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम और स्थानीय विशेषज्ञ जगदीश भट्ट की अनुमति से ली गई है।