जंगल

चिपको आंदोलन के 50 साल: ज़िंदगी बदल जाने की कहानी, उत्तराखंड के ग्रामीणों की ज़ुबानी

भारत के सबसे प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन के जन्म के पचास साल बाद, जलवायु आपदाओं और जंगलों से जुड़े प्रतिबंध के कारण, उत्तराखंड के रैणी गांव के निवासी उस भूमि को छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं जहां चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी।
<p dir="ltr">चिपको आंदोलन के नेताओं में से एक की बहू, जूठी देवी, अक्टूबर 2022 में रैणी गांव में एक पेड़ के तने को पकड़े हुए दिख रही हैं। लगभग 50 साल पहले उत्तराखंड के रैणी में महिलाओं ने लकड़हारों से अपने जंगलों के पेड़ों को बचाने के लिए अपने शरीर आगे कर दिए थे। ऐसा करने से एक वैश्विक संरक्षण आंदोलन छिड़ गया था। (फोटो: वर्षा सिंह)</p>

चिपको आंदोलन के नेताओं में से एक की बहू, जूठी देवी, अक्टूबर 2022 में रैणी गांव में एक पेड़ के तने को पकड़े हुए दिख रही हैं। लगभग 50 साल पहले उत्तराखंड के रैणी में महिलाओं ने लकड़हारों से अपने जंगलों के पेड़ों को बचाने के लिए अपने शरीर आगे कर दिए थे। ऐसा करने से एक वैश्विक संरक्षण आंदोलन छिड़ गया था। (फोटो: वर्षा सिंह)

जुलाई 1970 में अलकनंदा घाटी में विनाशकारी बाढ़ आई। अचानक, भारी बारिश से अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों के जलस्तर में भयानक वृद्धि हुई। इससे उत्तराखंड राज्य के चमोली ज़िले में सड़कों, पुलों और खेतों में भीषण बाढ़ आ गई। बारिश से शुरू हुए भूस्खलन के कारण पहाड़ियों में कई छोटे गांव बर्बाद हो गए। 

प्रभावित गांवों के लोगों के मन में एक ही सवाल था: बाढ़ क्यों आई? जवाब की तलाश ने उन्हें चिपको आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया। चिपको आंदोलन को वन संरक्षण और पर्यावरण एक्टिविज़्म के इतिहास में, आज भारत में सबसे ज़रूरी, अहिंसक और सामुदायिक मूवमेंट के रूप में याद किया जाता है।

क्या आपको पता है?

चिपको आंदोलन की शुरुआत 18वीं शताब्दी के राजस्थान में हुई थी। लेकिन यह 1970 के दशक की शुरुआत में रैणी की घटनाओं के बाद प्रसिद्ध हुआ।

पहले चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाले पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता 88 वर्षीय चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं, “बाढ़ के कारणों को समझने के लिए, हम कई जगहों पर गए और हमने पाया कि जहां भी जंगल काटे गए, बाढ़ का प्रभाव गंभीर था।” भट्ट को 2013 में गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

चमोली के ग्रामीणों ने निष्कर्ष निकाला कि भविष्य में बाढ़ और भूस्खलन से खुद को बचाने के लिए उन्हें जंगलों की रक्षा करने की ज़रूरत है।

यह जानकारी रैणी में 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन का अहम हिस्सा था। गांव की महिलाएं पेड़ों को गले लगाकर, उनसे ‘चिपककर’ लकड़हारों और जंगलों के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हो गईं। वे पेड़ों को काटने आए ठेकेदारों की आरी-कुल्हाड़ी का पहला वार झेलने के लिए तैयार थे।

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टेनिस रैकेट बनाने के लिए पेड़ों की कटाई का विरोध करते हुए उत्तराखंड के रैणी गांव में मार्च 1974 में लिया गया एक फोटो। (फोटो: वर्षा सिंह)
*मूल तस्वीर 30 मार्च, 1974 को चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा ली गई थी और अनुमति के साथ यहां लगाई गई है।
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अक्टूबर 2022: गांव के प्रवेश द्वार पर जूठी देवी (दाएं से दूसरी) और रैणी की अन्य निवासी। चारों महिलाओं ने चिपको आंदोलन में भाग लिया, हालांकि वे पेड़ों को गले लगाने वाले पहले समूह में से नहीं थीं। (फोटो: वर्षा सिंह / द् थर्ड पोल)

साल 2023 में रैणी में हुए चिपको आंदोलन के 50 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन जब द् थर्ड पोल के रिपोर्टर ने रैणी का दौरा किया, तो यह स्पष्ट हो गया कि पर्यावरण एक्टिविज़्म की इतनी मज़बूत विरासत वाली यह जगह अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से संबंधित आपदाओं से ग्रस्त है। जलवायु परिवर्तन लोगों के जीवन के लिए एक ऐसा खतरा है जो पेड़ों की कटाई से होने वाले खतरों से कहीं अधिक बड़ा और जटिल है। धीरे-धीरे रैणी रहने लायक नहीं रह गई है और लोग अपना घर छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं।

जलवायु आपदाओं से तबाह रैणी 

1970 के बाद से चमोली में कई आपदाएं आ चुकी हैं। हाल के इतिहास में सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाली बाढ़ फरवरी 2021 में आई थी, जो एक ग्लेशियर के बड़े हिस्से के टूटने से शुरू हुई थी। ऋषि गंगा नदी की इस बाढ़ से 200 से अधिक लोग मारे गए

रैणी में ग्रामीणों का कहना है कि वे आपदाओं के चलते डर के साये में जी रहे हैं। आपदाएं अब लगातार आ रही हैं और तीव्र होती जा रही हैं। द् थर्ड पोल ने देहरादून और रैणी के बीच नौ घंटे की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान सड़क के दोनों तरफ भूस्खलन से मलबे दिखते हैं जो ग्रामीणों के डर वाली बात की याद दिलाते हैं।

यह गांव कभी भूटिया समुदाय की कई पीढ़ियों का घर हुआ करता था। भूटिया समुदाय उन लोगों का एक समूह था जो 9वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास तिब्बत से दक्षिण की ओर चले गए थे और भारत-तिब्बत सीमा के साथ पर्वत श्रृंखलाओं में बस गए थे। अब इनमें केवल बुजुर्ग निवासी हैं।

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अक्टूबर 2022 में उत्तराखंड के चमोली के रैणी गांव की तस्वीर। रैणी 20वीं शताब्दी चिपको आंदोलन की जन्मस्थली थी। (फोटो: वर्षा सिंह)

चंद्र सिंह कहते हैं, “चिपको आंदोलन की वजह से हिमालय के लाखों पेड़ों को कटने से बचाया गया। प्राकृतिक आपदाओं के कारण आज हम अपने बच्चों के लिए नई जगह तलाशने को मजबूर हैं। लेकिन मैं अपना घर नहीं छोड़ना चाहता। वृक्षों की यह छाया और कहां से मिलेगी?” 

78 वर्षीय सिंह गौरा देवी के पुत्र हैं। चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी ने उन महिलाओं के समूह का नेतृत्व किया था, जिन्होंने सबसे पहले जंगलों की रक्षा की। 

सिंह कहते हैं, “हमारे जंगलों में जो सब्जियां थीं, वे हमारे खेतों में नहीं मिल सकतीं। जंगलों में अब जानवरों को भोजन नहीं मिलता तो वे हमारे खेतों में आ जाते हैं। इसके कारण हमारे बच्चे, खेतों को बंजर छोड़कर शहर में काम करने चले गए।” 

चिपको आंदोलन को देखने वाली और उसमें शामिल रहने वाली गांव की महिलाएं द् थर्ड पोल को बताती हैं कि आज उन्हें केवल नाराज़गी और निराशा महसूस होती है।

हमें नहीं पता था कि उस जंगलों पर हमारा कोई हक़ नहीं होगा जिन्हें कभी हमने बाहरी लोगों से बचाया था।
बाती देवी, रैणी गांव में रहने वाली

सत्तर के दशक की सफलताएं अब धुंधली हो चुकी हैं

शुरुआत में चिपको आंदोलन का नेतृत्व पुरुषों ने किया था। द् थर्ड पोल को भट्ट बताते हैं कि महिलाएं बैठकों में सबसे पीछे बैठती थीं और कभी-कभी ‘चिपको’ शब्द पर हंसती थीं। लेकिन 26 मार्च, 1974 को रैणी से सभी पुरुष चमोली कस्बे में गए थे तब महिलाओं ने ही कमान थामी थी।

पचहत्तर वर्षीय बाती देवी याद करती हैं कि सुबह करीब 9 बजे एक युवा लड़की ने वन विभाग के कर्मचारियों के साथ कुछ श्रमिकों को औजारों के साथ जंगल की ओर जाते देखा। वह गौरा देवी के पास दौड़ी, जिन्होंने तुरंत महिलाओं को लामबंद किया। लगभग 30 महिलाओं और युवा लड़कियों ने अपना काम छोड़ दिया और जंगलों की ओर जाने वाली संकरी सड़कों पर दौड़ पड़ीं।

बाती देवी कहती हैं, “हमने पेड़ों को कसकर पकड़ लिया और उनसे चिपक गए… हमने उनसे [लकड़हारों] पेड़ों से पहले अपनी कुल्हाड़ियों को हमारे ऊपर चलाने के लिए कहा। उन्हें वापस जाना पड़ा। वन विभाग ने हमें डांटा भी था।” 

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1978 में चमोली के भूंदर गांव में एक सभा (बैठक) हुई। पूरे चमोली में कई चिपको आंदोलन हुए। (फोटो: वर्षा सिंह)
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चमोली के जिला मुख्यालय गोपेश्वर में लोग ढोल बजाते हैं और पारंपरिक गीत गाते हैं। यह जश्न इसलिए मनाया जा रहा है क्योंकि एक खेल उपकरण निर्माता द्वारा काम पर लगाए गए लकड़हारों को लोगों ने मार्च 1974 में जंगल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। (फोटो: वर्षा सिंह)
*मूल तस्वीरें चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा ली गई थीं और अनुमति के साथ यहां दोबारा लगाई गई हैं।
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बाती देवी 1970 के दशक में गौरा देवी के साथ चिपको आंदोलन में शामिल थीं। अब वह 75 साल की हैं और रैणी में रहती हैं। (फोटो: वर्षा सिंह)

भट्ट कहते हैं कि वनों की कटाई और बाढ़ के बीच संबंध को लेकर ग्रामीणों की आशंका की पुष्टि दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता वाली एक समिति ने की है। 

भट्ट कहते हैं कि चिपको आंदोलन के कारण ही 1927 के वन अधिनियम में संशोधन किया गया और वन संरक्षण अधिनियम 1980 को अपनाया गया। 1981 में, उत्तर प्रदेश सरकार (उत्तराखंड, तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा था) ने समुद्र तल से 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाले पेड़ों को काटने पर 10 साल का प्रतिबंध लगाया था, जिसे बाद में 10 साल के लिए इस प्रतिबंध को और बढ़ा दिया गया था। दिसंबर 1996 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया, जो आज भी जारी है।

रैणी में रहना मुश्किल हो चुका है

फरवरी 2021 में आई बाढ़ ने रैणी में भारी नुकसान किया। वहां के निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि यह अब रहने के लिए सुरक्षित जगह नहीं है। उनके घरों में दरारें आ गई हैं और गांव जिस ढलान पर बना है वह अस्थिर हो गया है। नीचे की ओर, ऋषि गंगा नदी, भूमि का क्षरण कर रही है।

द् थर्ड पोल ने जिन लोगों से बात की है, वे सभी कहते हैं कि उनको दूसरी जगह भेज दिया जाए। यही 2021 आपदा के बाद की एक आधिकारिक रिपोर्ट की सिफारिश भी थी।

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रैणी गांव में ऋषि गंगा नदी (फोटो: वर्षा सिंह)
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अक्टूबर 2022 में चमोली में भूस्खलन (फोटो: वर्षा सिंह)
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2021 में बाढ़ ने रैणी गांव में कई घरों और खेतों को क्षतिग्रस्त कर दिया (फोटो: वर्षा सिंह)

गौरा देवी की बहू जूठी देवी इस बात पर ज़ोर देती हैं कि पुनर्वास एक आसान समाधान नहीं है। गांव लोगों की पहचान के केंद्र में है और वे इसे छोड़ देने के लिए इच्छुक नहीं हैं। 

वे 1970 के दशक में बचाए गए जंगलों से दूर जाने से भी निराश हैं।

जूठी देवी बताती हैं कि इस क्षेत्र के हर गांव का अपना जंगल है और लोग केवल अपने निर्धारित जंगलों से ही संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। उन्हें ऐसे स्थानों पर स्थानांतरित किया जा सकता है, जहां सभी वनों को पहले ही आवंटित किया जा चुका है। वह कहती हैं, “अगर सरकार हमारा पुनर्वास करती है, तो हम अपने जंगलों में नहीं जा पाएंगे और अन्य गांव हमें अपने जंगलों में नहीं जाने देंगे।”

ग्रामीणों ने द् थर्ड  पोल को बताया कि इस सबके बावजूद अपने पोते-पोतियों को एक सुरक्षित भविष्य देने की आवश्यकता के कारण, वे एक नए स्थान पर जाने के लिए तैयार हैं। 

रैणी गांव में जंगल ग्रामीण जीवन के केंद्र में हैं

बाती देवी कहती हैं कि रैणी के आसपास के जंगल, संसाधनों के स्रोत से कहीं अधिक महत्व के रहे हैं। वह कहती हैं, “हमने अपने जंगलों, अपनी पृथ्वी और अपनी आजीविका को बचाने के लिए [चिपको] आंदोलन शुरू किया। यह हमारा मायका है। हमने जंगल में अपने दुखों को साझा किया। जब तक जंगल हमारा था, तब तक सब ठीक था। जब वन विभाग ने जंगल की रखवाली शुरू की, तो चीजें बदल गईं।” 

वनों को लेकर वर्षों से जारी प्रतिबंध 

1927 से ग्रामीणों को जंगलों से लकड़ी लेने के लिए वन विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है। इस अधिनियम ने सरकार को वन उपज और इमारती लकड़ी पर नियंत्रण करने के लिए अधिकृत किया। यह “वन अपराधों” को भी परिभाषित करता है और किसी भी उल्लंघन के लिए दंड सूचीबद्ध करता है।

यह अधिनियम की अनुसूची I, II, III और IV में उल्लिखित जंगली जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगाता है। यह वन भूमि या किसी संरक्षित क्षेत्र से किसी निर्दिष्ट पौधे को उखाड़ने और नुकसान पहुंचाने पर भी प्रतिबंध लगाता है।

कानून के इस हिस्से ने प्रतिबंधों की कठोरता को बढ़ा दिया। अधिनियम का उद्देश्य किसी भी “गैर-वन उद्देश्य” के लिए वन भूमि के उपयोग को कम करना था और राज्य सरकारों को वन भूमि के उपयोग से संबंधित निर्णय लेने से पहले केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। रैणी निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि एक्ट के बाद जंगल से चारा-लकड़ी लेने को लेकर ग्रामीणों और वन विभाग के बीच विवाद बढ़ गया।

इन कानूनों के परिणामस्वरूप, ग्रामीणों को मछली पकड़ने, शिकार करने, फल इकट्ठा करने, मवेशियों को चराने, लकड़ी इकट्ठा करने और वन भूमि पर खेती करने जैसी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाना पड़ा है।

परंपरागत रूप से, रैणी के ग्रामीणों को जंगल में अपनी जरूरत की हर चीज मिल जाती थी; सब्जी, मसाले या दवाई खरीदने के लिए बाजार जाना, कभी भी दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं था। लेकिन, विशेष रूप से 1980 के बाद, वन विभाग द्वारा लागू किए गए बढ़ते प्रतिबंधों का मतलब है कि अब वे आवश्यक सामान खरीदने के लिए नियमित रूप से स्थानीय बाजार जाते हैं।

महिलाएं द् थर्ड पोल को बताती हैं कि जब भी वे जंगलों में जाती थीं, तो वे सूखी लकड़ियां (जिससे जंगल की आग का खतरा कम हो जाता था) हटा देती थीं। साथ ही नए पेड़ों की देखभाल भी करती थीं। इससे उन्हें अपने स्थानीय परिवेश के प्रति उत्तरदायित्व का बोध होता था। 

बाती देवी कहती हैं, “हम नहीं जानते थे कि बाहरी लोगों से बचाए गए पेड़ों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होगा। जब हमें जंगल से सूखी लकड़ी की आवश्यकता होती है, तो हमें वन विभाग से रसीद लेनी पड़ती है।” 

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रैणी की दुका देवी (बाएं), जैता देवी (दाएं) और अन्य महिलाओं का कहना है कि इलाके के जंगलों को अपना घर मानकर बड़े हुए निवासी अब रोजगार और अवसरों की तलाश में शहर की तरफ़ जा रहे हैं। (फोटो: वर्षा सिंह)

रैणी में बची ज़मीन को आजीविका का साधन ना बना पाने की वजह से पुरुषों ने दिल्ली और देहरादून जैसे शहरों का रुख करना शुरू कर दिया है। उनकी बेटियां और बहुएं उनके साथ या बच्चों के लिए शिक्षा की तलाश में जोशीमठ-तपोवन जैसे आस-पास के इलाकों में चली गई हैं।

हाल की आपदाओं से उनके हौसले पस्त हो गए हैं। रैणी के बचे निवासी, युवाओं के नक्शेकदम पर चलने की तैयारी कर रहे हैं। वे उन जंगलों को पीछे छोड़ रहे हैं जिनकी रक्षा के लिए वे और उनके वंशज कभी लड़े थे।