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भारत की नेट-जीरो प्रतिज्ञा पर क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

क्या भारत की घोषणा ने उम्मीद जगाई है? या यह भविष्य में बहुत दूर की बात है? विकास के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर एक विकासशील देश इस तरह की प्रतिज्ञा को कैसे पूरा करेगा? इन सब मुद्दों पर हमने विशेषज्ञों के एक पैनल से चर्चा की।

कॉप26 वर्ल्ड लीडर्स समिट में आगमन पर यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई दी (Image: Karwai Tang / UK government)

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 नवंबर को कॉप26 में एक घोषणा की, जिसने सुर्खियां बटोरीं। इसमें उन्होंने कहा है कि भारत 2070 तक नेट-जीरो हो जाएगा। इसके अलावा, उन्होंने निकट-अवधि की कई अन्य प्रतिज्ञाओं पर भी अपनी बात रखी, जिनमें सबसे महत्वाकांक्षी प्रतिज्ञा 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 1 बिलियन टन कम करना है। साथ ही, यह भी कहा गया है कि इस दशक के अंत तक भारत की आधी ऊर्जा, नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र से आएगी और अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में 45 फीसदी की कमी आएगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के मुख्य अंश:

• 2030 तक 500 GW गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता स्थापित करना

• 2030 तक 50 फीसदी ऊर्जा, अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त होगी

• 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 1 अरब टन की कमी

• 2030 तक अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता में 45 फीसदी की गिरावट

• 2070 तक भारत नेट-जीरो हो जाएगा

• विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त में 1 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता है

• जलवायु वित्त को शमन (mitigation) की तरह ट्रैक करने और वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं करने वालों पर दबाव डालने की जरूरत है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस भाषण के संदर्भ में हमने विशेषज्ञों और विश्लेषकों से भारत की प्रतिज्ञा पर उनकी राय प्राप्त की है।

‘भारत अब दुनिया में विकास की सबसे बड़ी प्रयोगशाला’

ओमेर अहमद, प्रबंध संपादक, दक्षिण एशिया, द् थर्ड पोल

Omair Ahmad, The Third Pole

लोगों को यह अंदाजा भी नहीं है कि भारत की नेट-जीरो प्रतिज्ञा कितनी बड़ी है। एक झटके में, वैश्विक जनसंख्या के 17 फीसदी प्रतिनिधित्व वाले देश, जिसकी प्रति व्यक्ति आय 2,200 अमेरिकी डॉलर है, ने विकास की एक नई पद्धति के लिए प्रतिबद्धता जाहिर कर दी है।

प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का अमेरिकी आंकड़ा काफी स्पष्ट है, लेकिन यहां तक ​​कि चीन के विकास मॉडल ने भी कार्बन मॉडल का अनुसरण किया। भारत को इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रगति का एक नया रास्ता खोजना होगा और यह बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। इस कथन के साथ, हम दुनिया में विकास की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बन गए हैं। क्या यह हरित हो सकता है, क्या यह टिकाऊ हो सकता है? क्या यह यथार्थवादी है? ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें हमें पूछते रहने की जरूरत है।

कहा गया है कि भारत के पास नेट-जीरो प्रतिज्ञा करने के अपने कारण हैं। सबसे पहला, क्योंकि हमारे पास दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर हैं और बहुत से लोग इससे मर रहे हैं। दूसरा, हमें यह पता लगाने की जरूरत है कि हाशिए पर रहने वाले समुदाय इस विकास मॉडल का हिस्सा कैसे हो सकते हैं, इसलिए हमें धन की आवश्यकता है। इस तरह की प्रतिबद्धताएं बड़े वित्त को आकर्षित करती हैं और भारत को इस बदलाव के लिए उस वित्त की आवश्यकता है। अगर हम कोयला खदानों को बंद करते हैं, तो हमें रोजगार के अन्य रूपों का पता लगाने की जरूरत है। इस तरह के किसी भी निर्णय के लिए भारत में राज्य सरकारों को साथ लेने और उनके उत्साह दोनों की आवश्यकता होती है, और यह तभी होगा जब हरित संक्रमण के विशिष्ट घटकों को नौकरियों और समृद्धि के मार्ग के रूप में दिखाया जाएगा। केंद्र सरकार और नौकरशाही अपने दम पर ऐसे लक्ष्य हासिल नहीं कर सकती।

‘भारतीय उद्यम नेट-जीरो को हकीकत बनाएंगे’

किरण कुमार अल्ला, ऊर्जा क्षेत्र विशेषज्ञ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निश्चित रूप से 2070 तक नेट-जीरो लक्ष्य प्राप्त करने की घोषणा करके बेहद चतुराई दिखाई है। चीन के 10 साल बाद यह लक्ष्य निर्धारित कर भारत ने दिखा दिया कि वह ऊंचा लक्ष्य रखने में पीछे नहीं है।

क्या यह व्यावहारिक है? कुछ भी संभव है, यह देखते हुए कि यह भविष्य में एक लंबा समय है। यह कैसे संभव होगा? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर भारत के निजी उद्यमों द्वारा दिया जाएगा और यह भी बताया जाएगा कि कैसे निवेश होगा और इसे कैसे आगे बढ़ाया जाएगा। यह एक प्रमुख लक्ष्य है। और यह सार्वजनिक और निजी उद्यमों, केंद्रीय और राज्य नौकरशाही दोनों को एक दृष्टि प्रदान करेगा। स्पष्ट रूप से इस बिंदु पर या सटीक मार्ग को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है, लेकिन अंततः भारतीय उद्यम ही इसे क्रियान्वित करेगा। इस घोषणा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को सुर्खियों में ला दिया है और गेंद विकसित देशों के पाले में कर दिया है।

किसी का यह भी तर्क हो सकता है कि विकसित देशों की तुलना में, भारत के पास चरम उत्सर्जन से नेट-जीरो के लिए कम समय होगा। लेकिन जलवायु, आजीविका और इसमें शामिल लोगों की संख्या के मामले में भारत बहुत नाजुक स्थिति में है। यह भारत के हित में है कि स्वयं को बचाने और दुनिया का नेतृत्व करने के लिए वह खुद को स्वच्छ ऊर्जा में परिवर्तन करे।

कोयले इत्यादि का इस्तेमाल बंद करना निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण है। लेकिन भारत सौर क्षमता निर्माण में एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। भारत ने उपलब्ध सहायता का इस्तेमाल करके प्रगति की है। इसे भले ही परफेक्ट नहीं माना जा सकता, लेकिन इसकी प्रगति महत्वपूर्ण है।  

नेट जीरो भले ही अभी असंभव लगता है, लेकिन पहली बार भारत ने इसके लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है और यह ऐसी नीतिगत दिशा प्रदान करेगा कि उद्योग जगत को ऐसा करने की आवश्यकता है। हम देखेंगे कि उद्योग, कोयले से अलग हटकर अन्य समाधानों की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि यह सब टुकड़ों में है। यदि भारत सही नीतिगत उपायों के साथ घोषणा का पालन करता है, तो मुख्य रूप से आकार और फिर नीति की स्पष्टता के कारण प्रौद्योगिकी खिलाड़ी भारत में निवेश करने के इच्छुक होंगे।

‘कम- कार्बन संक्रमण में तेजी लाने का अवसर’

चिराग गज्जर, सबनेशनल क्लाइमेट एक्शन के प्रमुख, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट इंडिया

आईपीसीसी की 2018 की ऐतिहासिक रिपोर्ट के अनुसार, 2 डिग्री सेल्सियस (पूर्व-औद्योगिक स्तर से ऊपर ग्लोबल वार्मिंग) के भीतर रहने के लिए, वैश्विक कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन में 2010 से 2030 तक लगभग 25 फीसदी की गिरावट और 2070 के आसपास नेट-जीरो तक पहुंचने की आवश्यकता है।

भारत का 2070 का नेट-जीरो लक्ष्य, बिजली उत्पादन क्षेत्र में, अक्षय ऊर्जा की बड़े पैमाने पर क्षमता वृद्धि के साथ, 2030 के अपने नये लक्ष्यों पर निर्मित होगा। नेट-जीरो लक्ष्य जीवाश्म आधारित भारी उद्योगों को भी बाधित कर सकता है, लेकिन यह निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में संक्रमण को तेज करने का एक अवसर भी होगा।

‘भारत चाहता है कि ऊर्जा संक्रमण में तेजी का बोझ विकसित देशों पर अधिक पड़े’

विभूति गर्ग, ऊर्जा अर्थशास्त्री और भारत के प्रमुख, ऊर्जा अर्थशास्त्र और वित्तीय विश्लेषण संस्थान

भारत ने 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन की हिस्सेदारी को 50 फीसदी तक बढ़ाने का वादा किया है। इससे अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता भी 2005 के स्तर से कम से कम 45 फीसदी कम हो जाएगी। भारत जलवायु कार्रवाई में अग्रणी है, यह अपने उचित हिस्से से अधिक कर रहा है। भारत अब 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए भी प्रतिबद्ध है।

भारत जलवायु न्याय की मांग कर रहा है और विकसित देशों से तकनीकी हस्तांतरण और वित्त प्रदान करने के अपने वादे को पूरा करने के लिए कह रहा है। अतीत में, विकसित राष्ट्र अपने वादे को पूरा करने में विफल रहे हैं। भारत चाहता है कि इस तरह की प्रतिज्ञाओं के पूरी होने की अपेक्षा, समानता लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारी के सिद्धांतों पर आधारित हो, जहां ऊर्जा संक्रमण को तेज करने का बोझ विकसित दुनिया पर समय के संदर्भ में अधिक पड़ना चाहिए और उन्हें तकनीकी हस्तांतरण की सुविधा और वित्त भी देना चाहिए।

‘भारत ने विकसित दुनिया के पाले में डाली गेंद’

अरुणाभा घोष, मुख्य कार्यकारी, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद

भारत ने स्पष्ट रूप से गेंद को विकसित दुनिया के पाले में डाल दिया है। यह वास्तविक जलवायु क्रिया है। भारत ने अब जल्द से जल्द जलवायु वित्त में 1  ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की है। साथ ही, भारत की यह भी मांग है कि न केवल जलवायु कार्रवाई बल्कि जलवायु वित्त की भी निगरानी हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत ने एक बार फिर जीवनशैली में बदलाव का आह्वान किया है। अगर हम यह तय नहीं कर सकते कि हम कैसे रहते हैं, तो हम यह तय नहीं कर सकते कि हम इस ग्रह पर किस तरह से जीवन जिएंगे।

डिकार्बोनाइजेशन रणनीति जरूरी है’ 

अपूर्वा मित्रा, राष्ट्रीय जलवायु नीति के प्रमुख, विश्व संसाधन संस्थान भारत

समावेशी नीतियों और कार्यों के मजबूत और समन्वय से परिपूर्ण एक व्यापक दीर्घकालिक डिकार्बोनाइजेशन रणनीति को सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में व्यापक रूप से लागू करने की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में हमारे सामने विभिन्न व्यापारिक अदला-बदली हो सकते हैं जिनका मुकाबला इन व्यापारिक अदला-बदली को संतुलित करने वाली नीतियों के उपयोग से किया जाना चाहिए।

उदाहरण के लिए, डिकार्बोनाइजेशन के परिणामस्वरूप घटते सरकारी कर राजस्व की भरपाई के लिए उपयुक्त तरीके से चरणबद्ध कार्बन टैक्स, अर्थव्यवस्था के भीतर जीडीपी और नौकरियों को बढ़ाने के लिए आवश्यक हो सकता है।

नेट-जीरो पर डिलीवर करने का मतलब, अंततः कार्बन कैप्चर और स्टोरेज डिप्लॉयमेंट के लिए लंबी अवधि में वित्त जुटाना भी होगा। यह चुनौतीपूर्ण है क्योंकि सीसीएस केवल तभी किफायती हो सकता है जब परिणामी कार्बन का उपयोग उच्च मूल्य वाले उत्पादों के उत्पादन के लिए किया जा सकता है, क्योंकि यह एक महंगी प्रक्रिया है। और परिणामी कार्बन का सावधानीपूर्वक भंडारण भी चुनौतीपूर्ण है।

क्या हम भारत के लक्ष्य के साथ वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकते हैं?

श्रुति शर्मा, वरिष्ठ नीति सलाहकार, IISD

भारत की नेट-जीरो प्रतिबद्धता, एक सकारात्मक और महत्वपूर्ण प्रतिबद्धता है जो डिकार्बनाइजिंग पर काम करने की गंभीरता का संकेत देती है। यह उन तरीकों द्वारा समर्थित है जिनसे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। अगर हम तरीकों की बात करें तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेट-जीरो के लिए दो व्यापक आउटपुट पर जोर दिया: 1. स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेजी से बढ़ना – हमारे पास पहले से ही 450 GW का लक्ष्य था, जिसमें से 100 GW इस साल अगस्त में हासिल किया गया था और 2) ऊर्जा तीव्रता में कमी, जो 2005 से घट रहा है।

इस प्रतिबद्धता में दिलचस्प बात यह है कि इसे नेट-जीरो के लिए बनाया गया है लेकिन इसका लक्ष्य 2070  का है। क्या इस तारीख तक भारत के नेट-जीरो तक पहुंचने के साथ ग्लोबल वार्मिंग की सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस तक हासिल करना संभव होगा?

इस प्रश्न का उत्तर देना जटिल है, लेकिन कई लोगों का मानना है, ‘हम इतने निश्चित नहीं हैं।’ दूसरे, इनमें से कई लक्ष्य – आरई की वृद्धि, ऊर्जा की तीव्रता में कमी – पिछले कुछ वर्षों से बिना नेट-जीरो ब्रांडिंग के स्वतंत्र रूप से किए जा रहे थे। इसलिए शायद जब हम लक्ष्य की तारीख का आकलन करते हैं और प्रगति को ट्रैक करते हैं, तो हम यह पता लगा सकते हैं कि क्या अधिक किया जा सकता है, इसका आकलन करते समय अधिक महत्वाकांक्षा की गुंजाइश है। बड़ा सवाल यह सुनिश्चित करना है कि यह प्रतिबद्धता, और महत्वाकांक्षा में और बढ़ोतरी, जलवायु न्याय की भावना से पूरी की जा सके। चूंकि 2070 बहुत दूर है, यह लक्ष्य मानता है कि 2035 और 2040 के बीच कहीं  जीवाश्म ईंधन के उपयोग का चरम होगा। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण निकट-अवधि का लक्ष्य है। निजी क्षेत्र की भागीदारी के साथ-साथ उप-राष्ट्रीय लक्ष्यों और क्षेत्रवार नेट-जीरो लक्ष्यों पर जल्द ही अधिक विवरण की उम्मीद की जा सकती है।

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