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जलवायु संकट से निपटने के लिए बेहद जरूरी हो गया है जल प्रबंधन

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण तीन दशक के भीतर विश्व की आधी जनसंख्या को जल संकट से जूझना पड़ सकता है।
<p>Young girls at a dug well in a remote village near Thano Bula Khan in Jamshoro Dirsticrt near Karachi. Kohistan is an arid region and suffering with severe droughts for many years [image by: Zulfiqar Kunbhar]</p>

Young girls at a dug well in a remote village near Thano Bula Khan in Jamshoro Dirsticrt near Karachi. Kohistan is an arid region and suffering with severe droughts for many years [image by: Zulfiqar Kunbhar]

संयुक्त राष्ट्र ने 22 मार्च को विश्व जल दिवस के मौके पर कहा है कि वैश्विक जल चक्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण 2050 तक इस पृथ्वी पर आधी से ज्यादा मानव जाति को किसी न किसी तरह से जल संकट का सामना करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और कारकों को कम करने के लिए जरूरत इस बात की है कि हम पृथ्वी पर मौजूद सीमित जल संसाधनों के उपयोग और दोबारा उपयोग में बड़े बदलाव करें। विश्व जल विकास रिपोर्ट 2020 में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मानव की मूल आवश्यकता के जल की उपलब्धता, गुणवत्ता और मात्रा पर प्रभाव पड़ेगा और इससे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। जल और जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक उत्सर्जन में कमी लाने के लिए रोजमर्रा की जिंदगी में, कृषि कार्यों में और उद्योगों में इस्तेमाल होने वाले जल के अधिक दक्षतापूर्ण इस्तेमाल की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने संदेश में कहा, “जल वह प्राथमिक माध्यम है जिससे हम जलवायु व्यवधान के प्रभाव, सूखा, बाढ़ जैसे गंभीर मौसमी आपदाओं, खारे पानी का अंतर्वेधन और समुद्री जल स्तर में इजाफे इत्यादि को देखते हैं।“ तापमान में वैश्विक वृद्धि और अरक्षणीय इस्तेमाल की वजह से जल संसाधनों के लिए अभूतपूर्व प्रतिस्पर्धा पैदा होगी जिससे लाखों लोगों का विस्थापन होगा। इसका उत्पादकता और स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ेगा। साथ ही इससे संघर्ष और अस्थिरता के खतरे को और ज्यादा बढ़ावा मिलेगा।

रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक जल उपयोग पिछले 100 वर्षों के भीतर 6 गुना से ज्यादा तक बढ़ा है और करीब 1 फीसदी की दर से तेजी से लगातार बढ़ता जा रहा है। वैश्विक स्तर पर, 1960 से 2000 के बीच भूजल स्तर में आने वाली गिरावट की दर दोगुना हो गई है। यूएन वाटर के सहयोग से यूनेस्को द्वारा संकलित रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर अच्छी प्रबंधन रणनीतियों से जरूरी कदम नहीं उठाये गये तो इन स्थितियों से जीवन को खतरा होने से कोई नहीं रोक सकता।

यूनेस्को महानिदेशक आंद्रे एंजेलो ने अपने वक्तव्य में कहा है कि दुनिया का जल शायद ही अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संधि में शामिल हुआ हो, जबकि खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा उत्पादन, आर्थिक विकास और गरीबी में कमी लाने जैसे कदमों में ये एक अहम भूमिका का निर्वहन करता है।

उष्णकटिबंधीय क्षेत्र और ग्लेशियर्स

जल और जलवायु में परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों और ऊंचाई वाले स्थानों, जहां ग्लेशियर्स हैं, में महसूस किया जाएगा। तापमान और वर्षण प्रत्यक्ष तौर पर स्थलीय जल की स्थिति को प्रभावित करेगा। रिपोर्ट में कहा गया है, “ग्लेशियर्स के तेजी से पिघलने से पर्वतीय क्षेत्रों के जल संसाधनों और उनके निकटवर्ती तराई क्षेत्रों के जल संसाधनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका है, क्योंकि उष्णकटिबंधीय पर्वतीय क्षेत्र सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्रों में शामिल हैं।” दक्षिण एशिया में, हिंदु कुश हिमालय क्षेत्र में समय से पहले हिमपात और हिमनदों के नुकसान से उपमहाद्वीप की बहुत बड़ी आबादी को मौसमी जल आपूर्ति की समस्या का सामना करना पड़ेगा। साथ ही, इस समस्या की उग्रता और आवृत्ति बदल जाएगी। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक विश्व की 40 फीसदी आबादी को गंभीर जल संकट का सामना करना पडेगा जिनमें मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया के साथ-साथ चीन और उत्तरी अमेरिका के एक बड़े हिस्से की तकरीबन पूरी आबादी शामिल है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया जलवायु की वजह से होने वाली आपदाओं और मौसम संबंधी विपदाओं के मामले बेहद संवेदनशील है, इस क्षेत्र में बहुत बड़ी आबादी गरीब और वंचित समूहों की है। अकेले अगस्त, 2017 में भारत, नेपाल और बांग्लादेश में भारी मानसूनी बारिश के कारण 4 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। इसमें करीब 1300 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और करीब 11 लाख लोगों को राहत शिविरों में पहुंचना पड़ गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक हर साल बाढ़ के कारण दक्षिण एशिया को 215 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ेगा। रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ के कारण जल स्रोतों के दूषित होने के खतरा है, वाटर प्वांइट्स और साफ-सफाई संबंधी सुविधाएं नष्ट हो सकती हैं और इससे सभी के लिए सतत जल और साफ-सफाई सेवाओं की उपलब्धता के सामने एक बड़ी चुनौती होगी।

जलवायु परिवर्तन और पानी की बढ़ती मांग भी भूजल संसाधनों पर दबाव डालती है क्योंकि जलवायु परिवर्तनशीलता बढ़ने से सतही जल की उपलब्धता प्रभावित होती है। भूजल का उपयोग 2050 तक 30 फीसदी तक बढ़ सकता है। सिंचाई की मांग में वृद्धि से पहले से ही कुछ क्षेत्रों – विशेष रूप से एशिया के दो प्रमुख खाद्य उत्पादन क्षेत्रों उत्तरी चीन का मैदान और उत्तर-पश्चिम भारत- में गंभीर रूप से भूजल तनाव बढ़ गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूजल के अधिक उपयोग से आर्सेनिक, लोहा, मैगनीज और फ्लोराइड जैसे प्रदूषकों की सांद्रता बढ़ती है। ये उन इलाकों (भारत और बांग्लादेश के अलावा उत्तर व लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के कुछ स्थान) के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है जहां भूजल की गुणवत्ता पहले से ही कम है।

ट्रांसबाउंड्री बेसिंस

रिपोर्ट में एशिया में विभिन्न सीमाओँ के आर-पार नदी घाटियों को लेकर गवर्नेंस, निवेश और सूचना में क्षेत्रीय सहयोग की बात कही गई है। ये नदी घाटियां विकास, जिनमें शहरीकरण, जल विद्युत परियोजना व प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं, की वजह से अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं। उदाहरण के लिए बांग्लादेश में दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा है। ये भूटान, चीन, भारत और नेपाल की तीन प्रमुख नदियों के संगम पर स्थित है लेकिन इन नदी घाटियों का केवल 7 फीसदी जलग्रहण क्षेत्र है। हालांकि, जल साझेदारी समझौता केवल एक गंगा नदी के साथ है जबकि 57 ट्रांसबाउंड्री नदियां हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि हाल के दशकों में कृषि में पानी का उपयोग कई गुना बढ़ गया है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में कृषि उत्पादन में उभरती सौर पंपिंग तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। भारत में 2014-2015 में लगभग 18,000 सौर-आधारित सिंचाई परियोजनाएं थीं जो 68 फीसदी सालाना विकास दर से हाल के वर्षों तक बढ़कर लगभग 200,000 हो गई हैं। भारत सरकार ने इस मॉडल में अपनी  21 बिलियन डॉलर की KUSUM योजना को शामिल किया है, जिसका उद्देश्य 20 लाख सौर-आधारित सिंचाई परियोजनाएं स्थापित करना है।

गुटेरेस कहते हैं, “हमें पानी के उपयोग की दक्षता में तेजी से सुधार के साथ वाटरशेड और पानी के बुनियादी ढांचे में निवेश को तुरंत बढ़ाना चाहिए और सबसे पहले हमें इस वर्ष का और ग्लासगो में COP26 का उपयोग उत्सर्जन वक्र को मोड़ने और पानी की सतत उपलब्धता के लिए एक सुरक्षित नींव बनाने के लिए करना चाहिए।” इस साल नवंबर में ग्लासगो वार्षिक संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन 2015, पेरिस समझौते के बाद सबसे महत्वपूर्ण है, जब पहली बार देशों की तरफ से लिये गये संकल्प की समीक्षा की जाएगी। यह भी उम्मीद है कि ग्लासगो शिखर सम्मेलन भविष्य के लिए एक रोडमैप तैयार करेगा। रिपोर्ट के अनुसार, “पेरिस समझौते के अनुसार पानी का उल्लेख नहीं है, लेकिन यह लगभग सभी शमन और अनुकूलन रणनीतियों का एक अनिवार्य घटक है।”

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