जलवायु

मानदंडों की अनदेखी के चलते सुरंग संबंधी आपदाएं झेल रहा है उत्तराखंड

बीते साल नवंबर में, एक रोड टनल ढहने के कारण, उत्तराखंड की चर्चा दुनिया भर में हुई लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिमालय क्षेत्र में सुरंग संबंधी कई आपदाओं में से यह केवल एक ही है।
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<p dir="ltr">सिल्क्यारा-बड़कोट सुरंग का सिल्क्यारा पोर्टल, जहां नवंबर 2023 में दुर्घटना के बाद निर्माण अस्थायी रूप से रोक दिया गया था। फोटो 8 दिसंबर, 2023 की है। (फोटो: कविता उपाध्याय)</p>

सिल्क्यारा-बड़कोट सुरंग का सिल्क्यारा पोर्टल, जहां नवंबर 2023 में दुर्घटना के बाद निर्माण अस्थायी रूप से रोक दिया गया था। फोटो 8 दिसंबर, 2023 की है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

12 नवंबर, 2023 की सुबह, उत्तराखंड में एक निर्माणाधीन सड़क सुरंग यानी रोड टनल का 57 मीटर चौड़ा हिस्सा अचानक ढह गया। तलछट और पत्थरों के ढेर की वजह से सुरंग का प्रवेश द्वार अवरुद्ध हो गया। इससे 41 श्रमिक जहां के तहां फंस गए।

अगले 17 दिनों में, दुनिया ने देखा कि किस तरह से राज्य के स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की तरफ से इन सभी 41 श्रमिकों को बचाने के लिए अथक प्रयास किए गए।

इसके लिए रैट होल माइनिंग विशेषज्ञों सहित अनेक लोगों ने दिन-रात काम किया और इन सभी 41 श्रमिकों को सकुशल बचाने में कामयाबी हासिल की।

हालांकि, इस कामयाबी की वजह से, उत्तराखंड में सिल्क्यारा और बड़कोट के बीच बनाई जा रही 4.53 किलोमीटर लंबी सुरंग में डिजाइन और निर्माण को लेकर लगातार मिल रही शिकायतों की आवाज धीमी पड़ गई है।

‘बेतरतीब’ निर्माण

किसी आपदा की स्थिति में वहां से बाहर भाग निकलने वाला जरूरी रास्ता सुरंग में नहीं था। अगर यह होता तो बचाव में सहायता मिल सकती थी। इसके अलावा, सुरंग का एलाइनमेंट, कतरनी क्षेत्रों (शीयर जोन) के साथ है।सिल्क्यारा में बचाव अभियान के विशेषज्ञों में से एक इंजीनियरिंग जियोलॉजिस्ट, वरुण अधिकारी कहते हैं कि ये अत्यधिक विकृत और खराब गुणवत्ता वाली चट्टानों से बने क्षेत्र हैं। निर्माण के दौरान अच्छी तरह से सुरक्षित नहीं होने पर ये ढह सकते हैं।

द् थर्ड पोल द्वारा भेजे गए प्रश्नों के ईमेल के जवाब में, परियोजना के निष्पादन की देखरेख करने वाली एजेंसी, राष्ट्रीय राजमार्ग एवं अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) के अधिकारियों ने कहा कि निर्माण में “आईआरसी यानी भारतीय सड़क कांग्रेस के दिशानिर्देशों के अनुसार, आवश्यक समर्थन [उपाय] और सुरक्षा मानदंडों को अपनाया गया है।”

इसमें आगे कहा गया है कि “अथॉरिटी इंजीनियर [जो महत्वपूर्ण निर्माण-संबंधी निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार है] की सिफारिश के आधार पर, शीयर जोन की समस्याओं को दूर करने के लिए आवश्यक सहायक उपाय किए गए थे”।

हालांकि, इसके ढहने के एक दिन बाद, एक लिंक्डइन पोस्ट में, अधिकारी ने रिप्रोफाइलिंग कार्य में खामियों की ओर इशारा किया था। ये सुरंग में किए गए वे काम हैं जिनसे यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह जरूरी डिजाइन डाइमेंशंस से मेल खाता है। उनके पोस्ट में आरोप लगाया गया कि यह काम “अव्यवस्थित तरीके से किया गया था”।

सिल्क्यारा में बचाव अभियान के दौरान सहायता करने वाले एक विशेषज्ञ ने द् थर्ड पोल से नाम न छापने की शर्त पर कहा कि परियोजना को तेजी से पूरा करने और लागत में कटौती करने के लिए निर्माण मानदंडों की अनदेखी की गई। एनएचआईडीसीएल के साथ काम करने वाले एक इंजीनियर ने भी नाम न छापने की शर्त पर कहा कि सुरंग की लंबाई के साथ, चट्टान के गुणों का पता लगाने के लिए भू-तकनीकी जांच, तीन स्थानों पर बोरिंग होल्स द्वारा की गई थी।

वरिष्ठ इंजीनियरिंग भूविज्ञानी और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक प्रमोद सी नवानी ने कहा कि हिमालय में केवल तीन होल वाली 4.53 किलोमीटर लंबी सुरंग की भू-तकनीकी जांच “अपर्याप्त थी और स्वीकार्य नहीं” थी। यहां चट्टान के प्रकार बहुत अलग-अलग हो सकते हैं। यहां तक कि कम दूरी पर भी ये बहुत अलग-अलग हो सकते हैं।

हिमालय क्षेत्र में, कई देश, सड़क, रेलवे, जलविद्युत, सिंचाई और जल आपूर्ति प्रबंधन जैसी बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए सुरंगों का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन, सुरंग निर्माण वाली विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं के कारण, क्षेत्र में सुरंगों की संख्या और सुरंग से संबंधित दुर्घटनाओं पर सीमित आंकड़े ही उपलब्ध हैं।

भारत, पाकिस्तान, भूटान और नेपाल के हिमालयी क्षेत्रों में नौ सुरंग परियोजनाओं की समीक्षा करने वाला 2022 का एक अध्ययन, समस्या को राजनीतिक सीमाओं से परे देखता है। अध्ययन में कहा गया है कि कई भूवैज्ञानिक और भू-तकनीकी कारकों के बीच जटिल पारस्परिक प्रभाव के कारण सुरंग बनाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

सामान्य समस्याएं हैं- सुरंगों में पानी घुसना, और शीयर जोंस जैसी खराब गुणवत्ता वाली चट्टान के जरिए सुरंग बनाने से होने वाली दुर्घटनाएं।

अध्ययन से पता चलता है कि क्षेत्र में सफलतापूर्वक सुरंग बनाने के लिए जरूरी है कि ठीक ढंग से संबंधित जगह की खोज-पड़ताल की जाए और सावधानीपूर्वक योजना बनाई जाए।

सुरंग निर्माण मानदंडों का पालन क्यों किया जाना चाहिए?

बांधों, नदियों और लोगों पर दक्षिण एशिया नेटवर्क के एक समन्वयक, जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर ने इस बात पर जोर दिया कि सुरंग बनाने के दौरान और बाद में, सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ स्थानीय आबादी और पर्यावरण पर इसके प्रभाव को कम करने के लिए दिशानिर्देश मौजूद हैं। 

उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया कि वास्तविक समस्या यह थी कि दिशानिर्देशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया था, और आवश्यक आकलन- विशेष रूप से पर्यावरणीय प्रभावों से संबंधित- परियोजना को तेजी से पूरा करने और लागत में कटौती के उद्देश्यों के लिए सतही तौर पर किए गए थे।

सिल्क्यारा-बड़कोट सुरंग के मामले में, जो 825 किलोमीटर लंबे चार धाम राष्ट्रीय राजमार्ग चौड़ीकरण परियोजना का हिस्सा है, पर्यावरण आकलन को नजरअंदाज कर दिया गया है। 

किसी भी राष्ट्रीय राजमार्ग के 100 किलोमीटर से अधिक के विस्तार में, पूर्व पर्यावरणीय प्रभाव आकलन आवश्यक है। लेकिन, मूल्यांकन से बचने के लिए, चार धाम परियोजना को 53 खंडों में विभाजित किया गया है, जिनमें से प्रत्येक की लंबाई 100 किलोमीटर से कम है।

यह देखते हुए कि उत्तराखंड में सुरंग संबंधी कई आपदाएं हो चुकी हैं, मानदंडों का उल्लंघन का मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

2007 में, जयप्रकाश पावर वेंचर्स लिमिटेड की 400 मेगावाट वाली विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग से रिसाव शुरू होने के बाद, चेन गांव से 12 परिवारों को दूसरी जगह ले जाया गया था।

स्वीथ गांव के पास ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना का निर्माण कार्य चल रहा है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

2016 में, भारतीय रेल मंत्रालय की परियोजना कार्यान्वयन इकाई, रेल विकास निगम लिमिटेड (आरवीएनएल) ने ऋषिकेश और कर्णप्रयाग शहरों के बीच 125 किलोमीटर की रेलवे परियोजना पर काम शुरू किया। इसके लिए बड़े स्तर पर सुरंग बनाने की आवश्यकता थी। 

परियोजना के लिए बनाई जा रही कई सुरंगों में से, एक ऐडिट – रेलवे सुरंगों को राजमार्ग से जोड़ने वाली एक सुरंग – स्वीथ गांव से 100 मीटर की दूरी पर निर्माणाधीन है। द् थर्ड पोल से बात करते हुए, स्वीथ निवासी 41 वर्षीय अनिल तिवारी और 43 वर्षीय ग्राम प्रधान (निर्वाचित ग्राम प्रधान) राजेंद्र मोहन ने आरोप लगाया कि निर्माण के दौरान हुए विस्फोटों से कई मकान क्षतिग्रस्त हो गए हैं।

उत्तराखंड सरकार की भूविज्ञान और खनन इकाई ने 2021 में इसको लेकर एक सर्वेक्षण किया। इसमें पता चला कि गांव के लगभग 224 मकानों में मामूली से बड़े स्तर तक के डैमेज हैं। सर्वेक्षण रिपोर्ट की एक प्रति द् थर्ड पोल के पास है।

हालांकि, आरवीएनएल (ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना) के उप महाप्रबंधक ओम प्रकाश मालगुडी ने द् थर्ड पोल को बताया कि ये नुकसान, विस्फोटों से नहीं हुए थे क्योंकि इसके प्रभावों को कम करने के लिए “कंट्रोल्ड ब्लास्टिंग” नामक विधि का उपयोग किया गया था। और विस्फोटों से होने वाले प्रभावों को नियंत्रण में रखने के लिए ग्राउंड वाइब्रेशन मॉनिटरिंग परीक्षण भी किए गए थे। एक अन्य गांव, मरोदा में, 2021 में परियोजना के लिए ढलान-काटने का काम शुरू होने के बाद वहां के मकान गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए थे।

मरोदा गांव में क्षतिग्रस्त मकान (फोटो: कविता उपाध्याय)
ये मरोदा गांव की सतेश्वरी देवी हैं। सुरंग बनाने के दौरान इनका मकान क्षतिग्रस्त हो गया। 
(फोटो: कविता उपाध्याय)

उत्तराखंड में 7 फरवरी, 2021 को ऋषि गंगा और धौलीगंगा घाटियों में बाढ़ के कारण कम से कम 204 लोगों की मौत हो गई थी। इनमें सरकारी कंपनी एनटीपीसी लिमिटेड की निर्माणाधीन 520 मेगावाट वाली तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना की सुरंगों में मरने वाले 37 कर्मचारी भी शामिल थे। इस दुखद घटना ने पूर्व चेतावनी प्रणालियों की स्थापना जैसी बेहतर आपदा तैयारियों की आवश्यकता को रेखांकित किया। और फिर, नवंबर 2023 में, सिल्क्यारा-बड़कोट सुरंग ढह गई।

सुरंग के प्रभावों को समझने के लिए बेहतर वैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है

वैज्ञानिक आंकड़ों और विश्लेषण की कमी के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में सुरंग बनाने के प्रभावों का आकलन करना अक्सर कठिन होता है। इसका एक उदाहरण जोशीमठ शहर है, जहां जमीन धंसने के कारण कम से कम 868 मकान क्षतिग्रस्त हो गए हैं। यह समस्या 2021 में शुरू हुई। सबसे अधिक नुकसान जनवरी 2023 में हुआ।

7 फरवरी, 2021 की बाढ़ में, तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना में कम से कम 139 कामगार मारे गए। इनमें से लगभग 37 की मृत्यु परियोजना की सुरंगों में हुई। यह फोटो फरवरी 2022 की है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

जोशीमठ के रहने वाले एक एक्टिविस्ट अतुल सती का दावा है कि जमीन धंसने के पीछे मुख्य कारणों में से एक तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना की 12 किलोमीटर की निर्माणाधीन सुरंग थी। यह सुरंग, जोशीमठ से लगभग 1.1 किलोमीटर दूर है। सती कहते हैं कि हो सकता है कि इसमें फरवरी 2021 में धौलीगंगा नदी में आई बाढ़ का पानी जमा हुआ हो। उन्होंने दावा किया कि जनवरी 2023 में जोशीमठ के मारवाड़ी इलाके से पानी निकल गया होगा और जमीन में गड्ढे बन गए, जिससे मौजूदा भूमि धंसने की समस्या बढ़ गई।

जोशीमठ के सुनील इलाके में एक क्षतिग्रस्त मकान। यह जनवरी 2023 की तस्वीर है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

 
जोशीमठ में पोस्टर लगे हैं, जिनमें तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एनटीपीसी को यह क्षेत्र छोड़ने के लिए कहा जा रहा है। यह जनवरी 2023 की तस्वीर है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रुड़की जैसी विशेषज्ञ एजेंसियों द्वारा किए गए प्रारंभिक आकलन में जमीन धंसने के पीछे परियोजना की भूमिका से इनकार किया गया है। वैसे, इससे अन्य लोग सहमत नहीं हैं।

इस मुद्दे पर काम करने वाले वरिष्ठ जियोलॉजिस्ट नवीन जुयाल ने द् थर्ड पोल को बताया, “इस क्षेत्र में क्रिस्टलाइन और क्वार्टजाइट चट्टानें हैं। इनमें भारी मात्रा में पानी जमा करने लायक विशाल कैविटीज नहीं हैं जो कई दिनों तक मारवाड़ी में रहे पानी के भारी प्रवाह को झेल सकें।” 

जुयाल के अनुसार, एकमात्र दिखाई देने वाली कैविटी, एनटीपीसी सुरंग थी, जहां बाढ़ का पानी जमा हो सकता था। जुयाल ने कहा कि जमीन धंसने में, सुरंग की वास्तविक भूमिका को समझने के लिए स्वतंत्र एजेंसियों और विशेषज्ञों द्वारा अधिक गहन वैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ की सड़कों से बेहतर हैं सुरंगें

द् थर्ड पोल ने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनमें जुयाल, सीनियर इंजीनियरिंग जियोलॉजिस्ट नवानी और सीनियर जियोलॉजिस्ट चारु सी पंत जैसे विशेषज्ञों के बीच आम सहमति यह थी कि सुरंग बनाना – एक निर्माण तकनीक के रूप में – इतना बड़ा मुद्दा नहीं था जितना कि दिशानिर्देशों का पालन करने में चूक। 

रेलवे और सड़क से संबंधित सुरंगों के लिए, इन विशेषज्ञों ने कहा कि अगर अनुभवी एजेंसियों द्वारा पूरी तरह से वैज्ञानिक जांच करने और मौजूदा मानदंडों का पालन करने के बाद ऐसी सुरंगें बनाई जाती हैं, तो चौड़ी सड़कों के लिए पहाड़ियों और पहाड़ों के बड़े हिस्से को काटने की तुलना में ऐसी सुरंगें अधिक विश्वसनीय होती हैं।

नवानी ने कहा, “सड़कों के लिए पहाड़ियों और पहाड़ों को काटने से वे भूस्खलन के लिहाज से नाजुक हो सकते हैं, लेकिन सुरंगों के साथ यह समस्या नहीं है।”

उन्होंने यह भी कहा कि सड़कें बनाने के लिए जितनी बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए, भूमि का अधिग्रहण किया गया और जितने लोग इससे प्रभावित हुए, अगर उसकी तुलना सुरंग बनाने से होने वाले प्रभावों की हो, तो यह उससे कहीं कम है।

बुनियादी ढांचे को बढ़ावा

उत्तराखंड में बुनियादी ढांचे के विस्तार की होड़ मची हुई है। इसका एक प्रमुख कारण पर्यटन है। भारत में हुई पिछली जनगणना, जो कि 2011 में हुई थी, उसके मुताबिक उत्तराखंड की आबादी करीब एक करोड़ थी और इस राज्य ने 2022 में 5.4 करोड़ से अधिक घरेलू पर्यटकों की मेजबानी की। 

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने चार धाम जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के आधार पर इसे 7 करोड़ तक पहुंचाने के अपने इरादे की घोषणा की है। 

उत्तराखंड में हिंदुओं और सिखों के पवित्र तीर्थ स्थलों पर आने वाले तीर्थयात्रियों के साथ-साथ पर्यटकों की बड़ी आमद को पूरा करने के लिए बनाई जा रही दूसरी प्रमुख परियोजना आरवीएनएल की रेलवे परियोजना है। इसमें 213 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने का काम शामिल है। भारत सरकार के लिए, राष्ट्रीय सुरक्षा, ऐसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को शुरू करने का एक अतिरिक्त कारण है। रक्षा मंत्रालय के अनुसार, चार धाम परियोजना के तहत चौड़ी की जा रही कुल 825 किलोमीटर सड़कों में से 674 किलोमीटर सड़कें फीडर सड़कें हैं जो भारत-चीन सीमा तक जाती हैं, और इसलिए ये सामरिक महत्व की हैं।

इस क्षेत्र में बुनियादी ढांचे से संबंधित एक और प्रमुख गतिविधि जलविद्युत परियोजनाएं हैं। 2019 के एक अध्ययन से पता चला है कि हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र के चार देशों – भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश – की व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य जलविद्युत क्षमता लगभग 190 गीगावॉट है। इसमें से वर्तमान में केवल एक तिहाई का दोहन किया गया है। 

उत्तराखंड में, सरकार के स्वामित्व वाली यूजेवीएन लिमिटेड का कहना है कि 4,183.10 मेगावाट स्थापित क्षमता वाली जलविद्युत परियोजनाएं चालू हैं। इसके अलावा, 9,706.6 मेगावाट स्थापित क्षमता वाली परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। साथ ही, 27,039 मेगावाट की अनुमानित क्षमता वाली परियोजनाओं की पहचान हो चुकी है। राज्य और केंद्र सरकार, ऐसी परियोजनाओं पर जोर देती रहती हैं।

जब सुरंगों की बात आती है, तो डिजाइन के आधार पर, जलविद्युत परियोजनाओं में, बिजली उत्पादन के लिए इनटेक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने के लिए एक हेड रेस टनल हो सकती है। 

बिजली उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने वाले पानी को डाउनस्ट्रीम में नदी में वापस छोड़ने के लिए एक टेल रेस टनल हो सकती है। 

सुरंगों तक पहुंच की अनुमति देने के लिए ऐडिट (मार्ग), और सुरंग के अंदर पानी के दबाव को प्रबंधित करने के लिए सर्ज शाफ्ट्स हो सकते हैं। 

बिजली घर और गाद निकालने वाले कक्षों के लिए बड़ी भूमिगत संरचनाओं या गुफाओं के निर्माण की भी आवश्यकता हो सकती है।

इंजीनियरिंग जियोलॉजिस्ट, अधिकारी कहते हैं, “रेलवे और रोड टनल्स, लोगों और वाहनों के लिए बनाई जाती हैं। इसलिए, उनका डिजाइन – टनल डायमेंशंस से लेकर वेंटिलेशन तक, और एस्केप टनल्स जैसी आपातकालीन सुविधाओं तक – कुछ सुरक्षा सुनिश्चित करता है।”

उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा भी हो सकता है कि इस तरह के सुरक्षा उपाय, जलविद्युत सुरंगों में न हों, जो मुख्य रूप से पानी के परिवहन के लिए डिजाइन किए गए हैं। और यह स्थिति इनको बनाने वालों के लिए खतरा पैदा कर सकती है। 

जलवायु आपदाओं से नई चुनौतियां 

भारत के मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, उत्तराखंड में अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह स्थिति जटिल है। इनसे सुरंगों के निर्माण और संचालन में जोखिम बढ़ जाता है। शिवपुरी पुलिस चौकी के पुलिसकर्मियों ने द् थर्ड पोल को बताया कि 13 अगस्त, 2023 को भारी बारिश के कारण शिवपुरी में एक निर्माणाधीन रेलवे सुरंग में 114 मजदूर फंस गए थे क्योंकि सुरंग में पानी भर गया था। पुलिस की घंटों की मशक्कत के बाद उन मजदूरों को बचाया गया।

ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के लिए लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) द्वारा सुरंग का निर्माण किया जा रहा है, जहां अगस्त, 2023 में 114 श्रमिक फंस गए थे। फोटो दिसंबर 2023 की है। (फोटो: कविता उपाध्याय)

जोखिम बढ़ रहे हैं, इसके बावजूद, सुरंग निर्माण से जुड़े मौजूदा मानदंडों में अभी भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। ब्रिटेन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ प्लायमाउथ के भू-आकृति विज्ञानी, मैथ्यू वेस्टोबी, उत्तराखंड में अत्यधिक बाढ़ से संबंधित तलछट परिवहन (सेडिमेंट ट्रांसपोर्टेशन) की समस्याओं पर काम कर रहे हैं। 

उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया कि सुरंग खोदने से निकलने वाली गंदगी या कचरा, मौसम संबंधी चरम घटनाओं या अत्यधिक बाढ़ के दौरान नदियों में पहुंच कर बाढ़ के खतरे को बढ़ा सकती है। इस गंदगी या कचरे को अक्सर अवैध रूप से नालों और नदियों में या उसके किनारे फेंक दिया जाता है। 

अमेरिका स्थित पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर स्कॉट ने कहा कि सुरंग बनाने से पानी के उपसतह भूगर्भीय यानी सबसरफेस जियोलॉजिकल, प्रवाह वाले रास्ते में भी गड़बड़ी हो सकती है। इससे रिचार्ज एरिया से झरने के उद्भव के वास्तविक बिंदु तक प्रवाह बदल सकता है। 

स्कॉट, पहले इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट में माउंटेन चेयर के रूप में कार्य कर चुके हैं। आरवीएनएल की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के पूरे हिस्से में झरनों के सूखने की खबरें आई हैं।

दिसंबर 2023 में, द् थर्ड पोल की अटाली यात्रा के दौरान हमें पता चला कि वहां की निवासी और 65 साल की एक बुजुर्ग महिला, धनेश्वरी देवी, खेतों में काम करने के लिए गांव भर में कोशिश की। लेकिन, आरवीएनएल परियोजना के लिए सुरंग बनाने में गांव की सारी जमीन चली गई है, ऐसे में शायद ही कोई खेत बचा हो। और वहां के सारे झरने भी सूख गए थे। 

अटाली गांव की धनेश्वरी देवी, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के लिए सुरंग निर्माण के कारण प्रभावित लोगों में से एक हैं। (फोटो: कविता उपाध्याय)

कुछ ही मीटर की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग था जिसे चार धाम पर्यटन परियोजना के तहत चौड़ा किया गया था।

नाराज धनेश्वरी कहती हैं, “जमीन पर पर्यटकों को चौड़ी सड़कें मिल सकें, इसके लिए वे हमारी पहाड़ियों को काट रहे हैं; और हमारे पैरों के नीचे, वे सुरंगें खोद रहे हैं, यह भी उनके लिए ही है। हमारी मातृभूमि हमारे लिए है या पर्यटकों के लिए?”