जलवायु

विचार : भारत में जी 20 बैठक के बावजूद, जलवायु पर दक्षिण एशियाई आवाज उठने का कोई संकेत नहीं है

हाल की जलवायु आपदाओं से दक्षिण एशिया का अधिकांश हिस्सा पीड़ित रहा है। इसके बावजूद, जलवायु पर समन्वय के साथ एक क्षेत्रीय आवाज नहीं उठ पा रही है।
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<p>इंडोनेशिया के बाली में नवंबर 2022 में जी 20 शिखर सम्मेलन के स्वागत समारोह के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। 2023 के अध्यक्ष के रूप में, भारत जी 20 शिखर सम्मेलन के लिए अपनी राजधानी में विश्व के नेताओं के स्वागत के लिए तैयार है। (फोटो: अलामी)</p>

इंडोनेशिया के बाली में नवंबर 2022 में जी 20 शिखर सम्मेलन के स्वागत समारोह के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। 2023 के अध्यक्ष के रूप में, भारत जी 20 शिखर सम्मेलन के लिए अपनी राजधानी में विश्व के नेताओं के स्वागत के लिए तैयार है। (फोटो: अलामी)

इस बार भारत, जी 20 शिखर सम्मेलन का आयोजन कर रहा है। कई देशों के प्रमुखों, प्रतिनिधियों और मेहमानों का जमावड़ा नई दिल्ली में होने जा रहा है। इस वजह से 9-10 सितंबर को शहर तकरीबन बंद सा रहेगा। इस मेगा इवेंट से पहले, इस शिखर सम्मेलन के लिए, भारत के दृष्टिकोण को देखना और यह सवाल पूछना महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या उसने अपने लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा किया है। 

बात जब ग्लोबल साउथ के सामने आने वाली जलवायु चुनौतियों की हो, तो यह सवाल खासतौर पर अहम हो जाता है। 

भारत की जी 20 की अध्यक्षता 1 दिसंबर, 2022 को शुरू हुई। अपनी अध्यक्षता के दौरान, भारत सरकार ने संकेत दिया है कि वह ग्लोबल साउथ की आवाज बनना चाहता है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक निष्पक्ष रास्ते पर जोर देना भारत के लिए एक आदर्श स्थिति है। यह बात इस मायने में अहम है कि 2022 में, भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद, जी 20 देशों में से सबसे कम क़रीब 2 लाख रुपए था।

इस तरह की स्थिति का मतलब यह भी है कि जी 20 शिखर सम्मेलन और संयुक्त राष्ट्र जलवायु बैठक कॉप 28 के बीच तालमेल भी होगा। कॉप 28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जाबेर ने जी 20 देशों से जलवायु पर नेतृत्व करने का आह्वान किया था। जलवायु लक्ष्यों पर वैश्विक प्रगति पर चर्चा के लिए कॉप 28 की बैठक 30 नवंबर से 12 दिसंबर तक संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित होने वाली है।

लेकिन यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद से जी 20 की विभिन्न बैठकों को लेकर गतिरोध बना हुआ है। इसके अलावा, सर्वसम्मति वाला कोई बयान भी नहीं आया है। इंडोनेशिया की अध्यक्षता में हुए पिछले जी 20 शिखर सम्मेलन में एक बयान आया था जिसमें यूक्रेन युद्ध पर एक पैराग्राफ शामिल था, लेकिन रूस और चीन ने इससे खुद को अलग कर लिया था। भारत की अध्यक्षता के दौरान, अमेरिका के नेतृत्व वाले देशों के एक समूह ने बयानों में युद्ध को शामिल करने पर जोर दिया है, जबकि चीन और रूस ने इनकार कर दिया है। 

परिणामस्वरूप, मार्च में जी 20 के विदेश मंत्रियों की बैठक बिना किसी सर्वसम्मति वाले बयान के ही समाप्त हो गई। ऐसा ही जी 20 के वित्त मंत्रियों की बैठक में हुआ था। पर्यावरण के लिहाज से गंभीर, पर्यावरण मंत्रियों और जी 20 के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकारों की बैठकें भी सर्वसम्मति के किसी बयान के बिना ही संपन्न हुई हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जी 20 शिखर सम्मेलन का परिणाम अलग होगा।

क्या है जी 20?

जी 20 एक ऐसा मंच है जो आर्थिक मुद्दों पर सहयोग के लिए जगह प्रदान करता है। इसमें दुनिया की अधिकांश सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, 

इसके वर्तमान सदस्य अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूके और अमेरिका हैं। यूरोपीय संघ भी इसमें शामिल है। 

काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशंस के अनुसार, जी 20 देशों का “वैश्विक आर्थिक उत्पादन में लगभग 80 फीसदी, वैश्विक निर्यात में लगभग 75 फीसदी और दुनिया की आबादी में लगभग 60 फीसदी” योगदान है।

मार्च में जी 20 विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यूक्रेन में युद्ध के संदर्भ में कहा था कि “कुछ मतभेद थे जिन्हें हम सुलझा नहीं सके”।

रूस और यूक्रेन के इस मुद्दे पर, जी 20 किसी आम सहमति तक पहुंचने में लगातार असफल रहा है। इस वजह से, जी 20 में ‘ग्लोबल साउथ की आवाज’ बनने को लेकर भारत के दृष्टिकोण पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। 

आम सहमति वाले बयानों के बिना, यह साबित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि वाकई में इस तरह की किसी आवाज़ को शामिल किया गया है। 

वैसे, एक नेतृत्वकर्ता के रूप में, भारत की भूमिका उसके घर के पास ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जी 20 के नेता कम से कम आपस में मिल तो रहे हैं, दक्षिण एशिया के मामले में यह स्थिति बिल्कुल विपरीत है। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का 2014 के बाद से कोई शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है। चर्चा के लिए कोई मंच न होने से क्षेत्रीय सहमति बनने की कोई संभावना भी नहीं है।

दक्षिण एशिया के देशों में काफी समानताएं हैं, इसके बाद भी आम सहमति की कमी है, यह बात ज्यादा चौंकाने वाली है। 

पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में म्यांमार तक, दक्षिण एशियाई देशों की प्रति व्यक्ति जीडीपी काफी हद तक समान है। इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाएं भी एक जैसी हैं जो कृषि और मानसून पर निर्भर हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि वे सभी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं।

दक्षिण एशिया के साझा जलवायु जोखिम

पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश तीनों देशों को अगस्त 2023 में भयानक बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ा। इन देशों के लिए ये खतरे एक जैसे हैं। दक्षिण एशियाई देश तेजी से अनियमित जलवायु से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। 

भयानक बाढ़ के कारण पाकिस्तान में 100,000 से अधिक लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा। भारत के पर्वतीय प्रांत हिमाचल प्रदेश में बाढ़ के कारण 360 से अधिक लोग मारे गये और 12,000 घर नष्ट हो गये। वहीं, बांग्लादेश में भी इस आपदा से 50 लोग मारे गए और 200,000 लोग विस्थापित हुए।  

भारत में एक तरफ बाढ़ का प्रकोप रहता है तो दूसरी तरफ होने वाली कुल बारिश में कमी देखी जा रही है। इस वजह से बीता अगस्त, 1901 के बाद सबसे सूखे वाला अगस्त बन गया। मौसम संबंधी इसी तरह के उतार-चढ़ाव पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी स्पष्ट रूप से नजर आ रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा असर खाद्य सुरक्षा पर देखने को मिलता है। 

इन नदी-घाटियों के देश एक साथ फलते-फूलते हैं और परेशानियां भी झेलते हैं, लेकिन वे आपस में सहयोग नहीं करते हैं। 

हकीकत तो यह है कि इन देशों का मानसून तंत्र और उनकी जीवन रेखा, नदियां आपस में जुड़ी हुई हैं। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र को पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश साझा करते हैं। ये नदियां हिमालय के ग्लेशियरों से पोषित होती हैं जो जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारी बदलाव से गुजर रहे हैं। 

इन नदी-घाटियों के देश एक साथ फलते-फूलते हैं और परेशानियां भी झेलते हैं, लेकिन वे आपस में सहयोग नहीं करते हैं। इनके पास कोई ऐसा हिमायती भी नहीं है जो एक अरब से अधिक लोगों के संयुक्त दक्षिण एशियाई दृष्टिकोण को वैश्विक मंचों पर आगे बढ़ा सके। 

चूंकि इस क्षेत्र की सभी अर्थव्यवस्थाएं, जलवायु संबंधी एक्शन होने या न होने से समान तरीकों से प्रभावित होती हैं, ऐसे में इस क्षेत्र के लिए क्लाइमेट एक्शन के लिए एक समेकित दृष्टिकोण की बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है। 

और अभी तक, ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि तीनों देशों में से किसी एक ने भी समान तरह से इस ट्रांस बाउंड्री खतरे से निपटने को प्राथमिकता देते हुए रीजनल एक्शन की तरफ कदम बढ़ाए हों।  

जलवायु पर दक्षिण एशियाई समन्वय से ध्यान भटकाती है राजनीति 

दरअसल, तीनों देशों का ध्यान पूरी तरह से अपनी राजनीति पर है। पाकिस्तान में चुनाव से पहले एक कार्यवाहक सरकार है। चुनावों की तारीख का अभी पता नहीं है। यह देश अपने नए जनगणना नतीजों के आधार पर पुनर्वितरण का विकल्प चुन सकता है। 

भारत में चुनाव 2024 की शुरुआत में होने की उम्मीद है। लेकिन मौजूदा सरकार को मणिपुर में हिंसा की स्थिति पर संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। हालांकि इसमें सरकार की ही जीत हुई। दरअसल, मणिपुर में मई की शुरुआत से हिंसा का माहौल है। दो समुदाय एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं। इसके कारण वहां 150 से अधिक लोग मारे गए हैं और 50,000 से अधिक लोग विस्थापित हो गए हैं। 

बांग्लादेश में चुनाव 2023 के अंत या 2024 की शुरुआत में होने हैं। विपक्ष यह सुनिश्चित करने के लिए कार्यवाहक सरकार की मांग कर रहा है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हों। इस मांग को वर्तमान सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है।

इस तरह की राजनीतिक उठापटक के कारण दक्षिण एशिया में किसी भी प्रकार के समन्वय की राह कठिन हो जाती है। इसके अलावा, जलवायु इत्यादि को लेकर इस क्षेत्र की बार्गेनिंग पावर यानी मोल भाव की शक्ति भी उन मचों पर कमजोर हो जाती है जहां प्रभावशाली देश पहले से ही आसानी से इन मुद्दों पर आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं। 

मार्च 2024 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मुकदमे की सुनवाई के साथ, अमेरिका पहले से ही अपने सबसे आक्रामक तरह के चुनाव अभियानों में से एक के बीच में है। यूरोप अपना ज्यादातर ध्यान और फंडिंग यूक्रेन में चल रहे युद्ध पर केंद्रित कर रहा है। और चीन की विकास दर ने उम्मीदों से कमतर प्रदर्शन किया है। 

आंतरिक कलह, युद्ध और आर्थिक संघर्षों से विचलित इन बड़े देशों को इस बात के लिए सहमत करना मुश्किल होगा कि वे त्याग और फंडिंग करें जिससे ग्लोबल साउथ को जलवायु संकट से निपटने में मदद मिल सके। लेकिन इस तरह की मांग उठानी चाहिए। 

दुर्भाग्य से, अपनी राजनीतिक समस्याओं से विचलित होकर, दक्षिण एशियाई देश प्रयास भी नहीं कर रहे हैं। साल 2009 में जरूर इस तरह का प्रयास दिखा था, जब भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दक्षिण एशियाई पर्यावरण मंत्रियों को संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता में संयुक्त रुख अपनाने के लिए राजी किया था। हालांकि वह प्रयास जल्द ही विफल हो गया था। लेकिन फिलहाल उस तरह के प्रयास के भी कोई संकेत नहीं हैं। 

जी 20 से कॉप 28 की राह 

दुबई में कॉप 28 से पहले बाकी बचे महीनों में, आम तौर पर विकासशील देश और विशेष रूप से दक्षिण एशिया, शिखर सम्मेलन में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे: जलवायु वित्त पर एक संयुक्त स्थिति पर बातचीत करने के लिए संघर्ष करेंगे। 

इस मुद्दे के महत्व पर, हाल ही में कॉप 28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जाबेर ने जोर दिया था। भारतीय सांसद अनिल अग्रवाल द्वारा सह-लिखित कॉप 28 के लिए भारत के दृष्टिकोण पर एक लेख में यह भी कहा गया है: “जलवायु न्याय का मैंडेट है कि कमजोर देशों को जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों से निपटने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता और मजबूत बुनियादी ढांचा प्राप्त हो।”

भारत ने इस साल की जलवायु आपदाओं को आपस में जुड़ी हुई दक्षिण एशियाई त्रासदी के रूप में चित्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया है। पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी ऐसा नहीं किया है।

लेकिन अगर यह मुद्दा इतना ही अहम है तो दक्षिण एशिया की इन मौजूदा आपदाओं पर कहीं अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए था। 

इन पर, जी 20 शिखर सम्मेलन में मुख्य रूप से चर्चा होनी चाहिए थी। इसके अलावा, कॉप 28 के लिए ये समस्याएं महत्वपूर्ण होनी चाहिए। 

ऐसी आपदाओं से निपटने, लचीले बुनियादी ढांचे के निर्माण और नुकसान की भरपाई के लिए जलवायु वित्त की आवश्यकता है। 

प्रभावी जलवायु वित्त सहयोगात्मक होना चाहिए। पारिस्थितिकी क्षेत्रों पर लक्षित होना चाहिए। और राजनीतिक सीमाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए।

दुर्भाग्य से, भारत ने इस साल की जलवायु आपदाओं को आपस में जुड़ी हुई दक्षिण एशियाई त्रासदी के रूप में चित्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया है। पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी ऐसा नहीं किया है। 

इससे बाकी दुनिया को यह संकेत मिलता है कि यह क्षेत्र सहयोगात्मक जलवायु कार्रवाई को प्राथमिकता बनाने में रुचि नहीं रखता है। अगर ऐसा है तो बाकी दुनिया आपदाओं को नजरअंदाज करती रहेगी। आखिरकार, ये उनके नागरिक तो हैं नहीं, जो मर रहे हैं, विस्थापित हो रहे हैं, या गरीबी में धकेल दिए गए हैं।