जलवायु

विचार: दिल्ली की बाढ़ के बाद क्या भारतीय नीति निर्माता जलवायु अनुकूलन सबक पर ध्यान दे रहे हैं?

दिल्ली में आई विनाशकारी बाढ़ जलवायु प्रभावों को ध्यान में रखते हुए नगर निगम से जुड़ी सेवाओं पर ध्यान न देने, चेतावनियों को अनदेखा करने और राजनीतिक टकराव की कहानी है।
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<p>दिल्ली की बाढ़ से सबसे ज्यादा वे क्षेत्र प्रभावित हैं जहां गरीब रहते हैं, और जहां जल निकासी सहित जन सुविधाएं कमजोर हैं। (फोटो: अमरजीत कुमार सिंह / अलामी)</p>

दिल्ली की बाढ़ से सबसे ज्यादा वे क्षेत्र प्रभावित हैं जहां गरीब रहते हैं, और जहां जल निकासी सहित जन सुविधाएं कमजोर हैं। (फोटो: अमरजीत कुमार सिंह / अलामी)

दिल्ली में आई बाढ़, पिछले सप्ताह से ही, भारत में, खबरों में बनी हुई है। इस बाढ़ के चलते, दिल्ली में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच, सियासी तकरार और आरोप-प्रत्यारोप तेज हो गया है। साथ ही, न्यूज चैनलों के स्टूडियो में भी रोजाना अच्छा-खासा वाक युद्ध देखने को मिल रहा है। 

लेकिन इस चीख-चिल्लाहट वाली बयानबाजी के बीच असली मुद्दा कहीं खो गया है। असली मुद्दा यही है कि यह सब क्या हो रहा है और ऐसा क्यों हो रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनौतियों से निपटने के लिए अल्पावधि और दीर्घकाल यानी शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म, दोनों में क्या किया जा सकता है। लेकिन राजनीति के चक्कर में यह सब मुद्दे डूब रहे हैं।

दिल्ली पर अत्यधिक ध्यान

ऐसे कई कारण हैं, जिसकी वजह से दिल्ली में मौजूदा बाढ़ ने बहुत अजीब तरह से देश-दुनिया का ध्यान खींचा है। इसका एक कारण यह है कि नई दिल्ली, भारत की राजधानी है और वह दिल्ली राज्य में स्थित है। दिल्ली में निर्वाचित विधायिका के जरिए आम आदमी पार्टी (आप) का शासन है। इसके अलावा, शासन व्यवस्था के कुछ प्रमुख हिस्सों – जिनमें पुलिस और भूमि इत्यादि शामिल हैं– पर केंद्र सरकार का अधिकार है। केंद्र की सत्ता में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) काबिज है। 

दिल्ली की बाढ़ पर इतनी चर्चा का एक कारण यह भी है कि ज्यादातर प्रमुख मीडिया घरानों के दफ्तर यहां हैं। विभिन्न टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर में हैं। एनसीआर में दिल्ली और उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कुछ आसपास के क्षेत्र शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बात जब दिल्ली के मुद्दों को लेकर रिपोर्टिंग की आती है तो कुछ हद तक एक भौगोलिक पूर्वाग्रह आ ही जाता है।

दिल्ली को लेकर यह असंतुलित फोकस, इस तथ्य को धुंधला कर देता है कि मौजूदा बारिश एक व्यापक घटना है। इसमें अकेले दिल्ली की बारिश केवल एक छोटी सी भूमिका निभाती है।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार, 1 से 16 जुलाई, 2023 की समयावधि में दिल्ली में 66 फीसदी अधिक वर्षा हुई। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि दिल्ली एक छोटा सा क्षेत्र है। यह केवल 1,483 वर्ग किलोमीटर में है। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड जैसे बड़े अपस्ट्रीम प्रांतों में इसी अवधि में क्रमशः 156 फीसदी, 93 फीसदी और 63 फीसदी अधिक वर्षा हुई। इनमें से प्रत्येक प्रांत में, कई जिले दिल्ली के कुल क्षेत्रफल से बहुत बड़े हैं। इसका अर्थ यह है कि वहां अधिक वर्षा का, दिल्ली में संचयी वर्षा की तुलना में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

यहां तक कि अलग-अलग राज्यों के हिसाब से वितरण भी महत्वपूर्ण विसंगतियों को छिपा देता है। हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में 100 फीसदी की कमी देखी गई। यहां शून्य वर्षा की स्थिति रही। इसके अलावा, बिलासपुर में 83 फीसदी की कमी देखी गई। वहीं, शेष 10 जिलों में अधिक वर्षा देखी गई। कुल्लू, जो दिल्ली से 3 गुना बड़ा है, वहां 630 फीसदी अधिक वर्षा हुई।

बारिश का असर भारत की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। पाकिस्तान में सतलुज बेसिन के कुछ हिस्सों में “मध्यम बाढ़” देखी गई। इसकी वजह से 26,000 से अधिक लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया और 1,500 से अधिक जानवरों को बचाया गया। उत्तरी बांग्लादेश में भी, बाढ़ की स्थिति गंभीर है। यहां 250,000 से अधिक लोग “लालमोनिरहाट, कुरिग्राम, नीलफमरी और रंगपुर” जिलों में फंसे हुए हैं।

इसलिए, अधिक बारिश होने के कारण उससे जुड़े प्रबंधन की मौजूदा चुनौतियों को प्रांतीय सीमाओं के चश्मे से देखना गलत होगा। पानी के बहाव का प्रभाव, इंसानों द्वारा बनाई गई सीमाओं से परे है। मतलब इसका प्रभाव हर तरफ पड़ता ही है। अहम बात यह है कि इन सीमाओं के भीतर भिन्नताएं भी बहुत ज्यादा होती हैं। 

ऐसे मौके पर अन्य राजनीतिक दलों पर दोषारोपण का राजनीतिक अवसर उपलब्ध होना लाजिमी है। दरअसल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड, इन तीनों राज्यों में, आम आदमी पार्टी नहीं बल्कि अन्य पार्टियां सत्ता में हैं। लेकिन इससे इनमें से किसी भी राज्य के लोगों को कोई फायदा नहीं है। 

दिल्ली के भीतर मतभेदों को नजरअंदाज करना

राजनीतिक विवादों के कारण एक और मुद्दे पर अस्पष्टता के बादल मंडरा रहे हैं। वह है भारी बारिश और बाढ़ की स्थिति में दिल्ली में जलभराव से कैसे निपटा जाना चाहिए। दिल्ली में पिछली बार 2016 में बड़ी बाढ़ आई थी। लेकिन ऐसा लगता है कि उस अनुभव से कोई सबक नहीं सीखा गया। 

दिल्ली स्थित थिंक टैंक, द् एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के लिए 2017 की एक रिपोर्ट में, प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर रहे, संजय गुप्ता कहते हैं, “दिल्ली के भीतर बारिश या बाढ़ वाले पानी के निकासी प्रणाली के प्रबंधन को लेकर, स्पष्ट रूप से, कोई भी ऐसा संस्थान नहीं है जो संपूर्ण व्यवस्था की समग्र जिम्मेदारी वहन करता हो।” 

गुप्ता बताते हैं कि इस सबके लिए अलग-अलग 10 एजेंसियों और संस्थानों का जिम्मा है। इनमें से कुछ केंद्र सरकार के अधीन काम करते हैं। कुछ की देखरेख का जिम्मा राज्य सरकार के पास है। इसके अलावा, एनजीटी जैसे स्वायत्त निकाय भी इसमें शामिल हैं। साथ ही, सिविल सोसाइटी ग्रुप्स भी इस जिम्मेदारी का कुछ हिस्सा वहन करते हैं। 

राजनीतिक झगड़े में, जल निकासी व्यवस्था के प्रबंधन के लिए वास्तव में कौन जवाबदेह है, जनता के लिहाज से देखें तो पाएंगे कि यह किसी को नहीं पता है। 

वर्ष 2016 में आई बाढ़ के पहले से ही केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। नगर निगम में भी यही स्थिति रही है। दिल्ली नगर निगम में हाल तक भाजपा की ही सरकार रही है। इसी तरह, वर्ष 2016 में आई बाढ़ के पहले से ही राज्य में आम आदमी पार्टी की सरकार है। कुल मिलाकर 2013 से जनता ही इन सब मुद्दों पर दोनों के बीच पिस रही है। 

वर्ष 2016 में आई बाढ़ के दौरान जो दिक्कतें पैदा हुईं, जो मुद्दे सामने आए, उनका समाधान खोजने के लिहाज से दोनों पार्टियों के पास पर्याप्त समय था लेकिन अभी तक पिछली बाढ़ के बाद से बाढ़ प्रबंधन में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। 

दरअसल, मौजूदा बाढ़ से ठीक पहले, दोनों राजनीतिक दलों के बीच इस बात को लेकर मतभेद था कि यमुना के प्रदूषण स्तर को दुरुस्त करने का प्रबंधन कौन करेगा। और अब ये दो अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें, बाढ़ के कथित कुप्रबंधन को लेकर आमने-सामने हैं। राजनीतिक झगड़े में, जल निकासी व्यवस्था के प्रबंधन के लिए वास्तव में कौन जवाबदेह है, जनता के लिहाज से देखें तो पाएंगे कि यह किसी को नहीं पता है। 

हालात और बदतर होने वाले हैं

दो अन्य मुद्दे हैं जिन्हें 2016 में आई बाढ़ के बाद आई रिपोर्ट ने उजागर किया है। इन दोनों पर नीति निर्माताओं को ध्यान देना चाहिए। एक है वर्षा का पैटर्न, और दूसरा है भूमि उपयोग का पैटर्न।

1901-2016 की अवधि के आईएमडी के आंकड़ों का हवाला देते हुए गुप्ता कहते हैं कि वार्षिक वर्षा और बारिश के दिनों की संख्या बढ़ रही है। वर्षा की वास्तविक अवधि कम हो गई है, जिससे वर्षा की तीव्रता 1986 में 13.2 मिमी/घंटा से बढ़कर 2016 में 22.9 मिमी/घंटा हो गई है। इससे 2016 में महज तीन घंटे में ही आधी से ज्यादा दिल्ली जलमग्न हो गई। 

यह बिल्कुल, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की हालिया वाटर, आइस, सोसाइटी और इकोसिस्टम्स रिपोर्ट के अनुरूप है। इसमें कहा गया है कि इस सदी में पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में वर्षा में काफी वृद्धि होने की संभावना है।

साथ ही, दिल्ली में भूमि उपयोग के पैटर्न में एक आश्चर्यजनक बदलाव देखा गया है। इससे राजधानी बाढ़ के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील हो गई है। साल 1989 से 2011 तक उपग्रह डेटा का उपयोग करते हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि दिल्ली में निर्मित क्षेत्रों में भारी वृद्धि हुई है। यह सब, वाटरशेड्स यानी जलक्षेत्रों, वन आवरण की हानि और कृषि भूमि में बदलाव की कीमत पर हुआ है। ये वे क्षेत्र हैं जो अतिरिक्त पानी को सोख लेते, लेकिन इनको सीमेंटेड कर दिया गया और अब बाढ़ में योगदान दे रहे हैं।

इनमें से कई मुद्दे नगर निगम की प्रकृति के हैं। उदाहरण के लिए, शहरी बाढ़ से निपटने के लिए एक समाधान के रूप में, पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के वाटर रिचार्ज कुओं का है। 

इसका नेतृत्व नगर निगम प्राधिकरण, कैपिटल डेवलपमेंट अथॉरिटी (इस्लामाबाद) ने किया है। बाढ़ के कुप्रबंधन को लेकर मचे घमासान में, यह चौंकाने वाली बात है कि नगर निगम के अधिकारियों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है।

गरीबों पर हमेशा सबसे खराब असर पड़ता है

शक्ति के असमान वितरण का मुद्दा भी हमेशा मौजूद रहता है। दिल्ली में यमुना बेसिन के आसपास से निकाले गए 20,000 से अधिक लोग मुख्य रूप से गरीब समुदायों से हैं। वर्षों पहले, दक्षिण भारतीय शहर बेंगलुरु में शहरी संसाधनों के आवंटन पर चर्चा करते हुए, एक थिंक टैंक, जनाग्रह के शोधकर्ताओं ने मुझे बताया था कि शहर के जिन वार्डों में गरीब लोग रहते थे और सुविधाओं की हालत खराब थी, उन पर कम ध्यान और पैसा दिया गया था। ऐसा इसलिए था क्योंकि शहर के समृद्ध हिस्सों में रहने वाले लोगों के पास संसाधनों की मांग करने की क्षमता और प्रभाव अधिक था। 

जैसे-जैसे बाढ़ का पानी घटेगा, ये लोग अपने घरों को लौट जायेंगे, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या जन सुविधाओं में सुधार होगा? क्या जल निकासी व्यवस्था से निपटा जाएगा? या फिर ये लोग और ये क्षेत्र, शहर में आने वाली अगली आपदा का शिकार बनेंगे?

जिनके पास इन सब कामों की जवाबदेही थी, उन्होंने 2016 में शहर में आई आखिरी बाढ़ से कुछ नहीं सीखा है। हर तरह के वैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि दुनिया के गर्म होने के साथ ऐसी घटनाओं के अधिक आवृत्ति में होने की संभावना है। इन घटनाओं का प्रभाव भी अधिक होगा। यदि बाढ़ से कोई जबरदस्त सबक है तो वह यह है: जल चक्र बदल रहा है और शासन प्रणालियों को तत्काल अनुकूलित करना होगा। जिम्मेदारियों की स्पष्ट रेखाएं खींचनी होंगी। या फिर नीति-निर्माता वही करते रह सकते हैं, जो वे अभी कर रहे हैं: एक-दूसरे पर चिल्लाएं, भले ही गरीब डूब जाएं।