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विचार: हिमालय की नदियां, एक्विफ़र और पर्माफ्रॉस्ट आपदाओं को कम करने का रास्ता दिखाती है

अगर हम चाहते हैं कि जोशीमठ जैसी आपदा दोबारा न आए तो हिमालय में नदियों, एक्वीफर्स और पर्माफ्रॉस्ट की गहरी समझ की आवश्यकता है।
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<p>उत्तराखंड के जोशीमठ में कई इमारतों में दरारें आने के बाद अफरा-तफरी के हालात पैदा हो गए। जनवरी 2023 में एनडीआरएफ यानी नेशनल डिजास्टर रेस्पॉन्स फोर्स के वर्कर्स ने ऐसे ही एक होटल को ध्वस्त किया। हिमालय को आमतौर पर पत्थरों की प्राचीर के रूप में माना जाता है, लेकिन यह ग्लेशियरों, नदियों और एक्वीफर्स में छिपा हुआ पानी ही है जो पहाड़ों को जोड़े रखता है। (फोटो: अनुश्री फड़नवीस / अलामी)</p>

उत्तराखंड के जोशीमठ में कई इमारतों में दरारें आने के बाद अफरा-तफरी के हालात पैदा हो गए। जनवरी 2023 में एनडीआरएफ यानी नेशनल डिजास्टर रेस्पॉन्स फोर्स के वर्कर्स ने ऐसे ही एक होटल को ध्वस्त किया। हिमालय को आमतौर पर पत्थरों की प्राचीर के रूप में माना जाता है, लेकिन यह ग्लेशियरों, नदियों और एक्वीफर्स में छिपा हुआ पानी ही है जो पहाड़ों को जोड़े रखता है। (फोटो: अनुश्री फड़नवीस / अलामी)

उत्तराखंड में बसे एक बेहद प्राचीन तीर्थ स्थल जोशीमठ चर्चा में है क्योंकि ज़मीन धंसने और मकानों में दरारें आने की घटनाओं के बाद लोगों का यहां से विस्थापन शुरू हो गया है। इस बीच, एक और हिमालयी बस्ती ऐसे ही हादसे के चपेट में आ गई। पिछले हफ्ते जम्मू-कश्मीर के डोडा ज़िले के एक गांव में ज़मीन धंसने का मामला सामने आया। ऐसे चिंताजनक हादसे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि हिमालय क्षेत्र में लोगों की सुरक्षा और आजीविका किस तरह से खतरे में है। दरअसल, हिमालय क्षेत्र यानी दुनिया के सबसे ऊंचे ये पहाड़ बेहद नाज़ुक नज़र आने लगे हैं। 

भूवैज्ञानिकों और इस क्षेत्र का अध्ययन करने वालों के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हिमालय दुनिया की सबसे नई पर्वत श्रृंखला है, जो एशिया में पांच करोड़ वर्ष पहले भारतीय उपमहाद्वीप के ज़मीन के एक टुकड़े के रूप में बना। अब भी टेक्टोनिक फ़ोर्स पहाड़ों के विकास को आगे बढ़ा रही है।(टेक्टोनिक फ़ोर्स का मतलब है वो जियोलाजिकल बल जिसकी वजह से पृथ्वी की सबसे बाहरी लेयर यानी क्रस्ट पर परिवर्तन और गतिविधियां होती हैं: जैसे, पर्वतों का निर्माण, महासागरों का निर्माण, महाद्वीपों का विकास इत्यादि।)

दरअसल, जिस तरह के विशाल काल खंड में ऐसी भूवैज्ञानिक घटनाएं होती हैं, उसकी तुलना में अगर हम अपने छोटे से जीवन काल को देखते हैं तो पाएंगे कि स्थिरता जैसी स्थिति एक मानवीय भ्रम रही है। 

इन पहाड़ों को किसी ठोस चट्टान के रूप में कल्पना करना भी इसी भ्रम का एक हिस्सा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि ये पहाड़, पानी के विभिन्न रूपों मसलन, ग्लेशियरों, नदियों और जलीय चट्टानी पर्त (एक्वीफर्स) के रूप में भी हैं जो कि न केवल जीवन के लायक स्थितियां बल्कि स्थिरता भी प्रदान करते हैं। 

हिमालय को एशिया का “वॉटर टावर” कहा गया है। हिमालय में मौजूद बर्फ़ और ग्लेशियर पर लोगों का ध्यान हमेशा रहा है। लेकिन पानी यहां अन्य रूपों में भी मौजूद है। पर अक्सर लोग और नीति निर्माता इन अन्य सोर्सेज़ पर ध्यान नहीं देते। इसका एक उदाहरण है हिमालय में मौजूद झरने। झरने पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए प्रमुख जल स्रोत हैं।

सूखते झरनों पर लोगों का ध्यान जाना बस हाल ही में शुरू हुआ है। पहले इन झरनों पर लोगों का ध्यान क्यों नहीं गया? इसके दो कारण हो सकते है: पहले यह कि हिमालयी क्षेत्र में पर्वतीय समुदाय आमतौर पर गरीब हैं और दूसरा ये कि पानी लाने का मुख्य बोझ महिलाओं पर पड़ता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि एक्सपर्ट्स और एक्टिविस्ट्स ने इन मुद्दों की उपेक्षा की है। दरअसल, वे कुछ समय से “छिपे हुए पानी” के बारे में चेतावनी दे रहे हैं।

उदाहरण के लिए, उत्तराखंड सरकार के डिज़ास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर के कार्यकारी निदेशक पीयूष रौतेला ने जोशीमठ के मामले में, 2010 में, एक जर्नल, ‘करेंट साइंस’ में अपने एक सहयोगी के साथ मिलकर इस बात को रेखांकित करते हुए लिखा था कि जलविद्युत परियोजना के लिए एक सुरंग खोदने की प्रक्रिया में पास के एक एक्वीफर को पंक्चर कर दिया गया। इससे झरनों और इकोसिस्टम पर गंभीर प्रभाव पड़ने की आशंका है। 

दूसरे शब्दों में, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह केवल चट्टान और मिट्टी नहीं है जो आपदाओं के लिहाज़ से मायने रखती है, बल्कि यहां पानी भी है। वैसे तो, जोशीमठ और डोडा के गांव की इस आपदा के पीछे सटीक कारणों को पूरी तरह से समझने में कुछ समय लगेगा, फिर भी रौतेला की बात को बेहतर ढंग से समझने की ज़रूरत है।

हिमालय में ‘छिपे हुए’ पानी पर कैसे ध्यान दें

द् थर्ड पोल के नेपाल संपादक रमेश भुशाल ने, अक्टूबर 2022 में, दक्षिण एशियाई पत्रकारों के एक समूह के लिए एक फील्ड ट्रिप का आयोजन किया था। इस दौरान, नेपाल के पूर्व जल मंत्री दीपक ग्यावली ने भूजल को फिर से भरने के लिए एक परियोजना के बारे में बताया। पारंपरिक पद्धतियों के आधार पर पुनर्भरण तालाब यानी रिचार्ज पॉन्ड्स, पर्वतीय ढलानों पर विशिष्ट स्थानों पर खोदे जाते हैं। वे बारिश के बहते हुए पानी की गति को धीमा करने के हिसाब से डिज़ाइन किए गए हैं ताकि नीचे की ओर तेज़ी से बहने और मिट्टी के कटाव को तेज़ करने के बजाय, पानी, पहाड़ में फिल्टर हो जाए, जिससे झरनों के फिर से भरने का काम हो सके।

वैश्विक तापमान में जिस तेज़ी से वृद्धि हो रही है ऐसे में प्रत्येक पहाड़ी को एक ‘वाटर टावर’ के रूप में समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसे हर ‘वाटर टावर’ एक जलाशय के रूप में दोबारा से भरने के साथ-साथ इसको बेहतर करने की भी ज़रूरत है। 

हवा जितनी गर्म हो जाती है, उतना ही अधिक पानी वह धारण कर सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि सूखे वाला मौसम लंबा चलता है और बारिश वाले दिन अधिक प्रचंड होते हैं। लंबे समय तक सूखी रहने वाली मिट्टी, कम पानी को सोखने की क्षमता रखती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जलवायु परिवर्तन का एक प्रभाव एक्वीफर के रिचार्ज में गिरावट है। यह स्थिति इस तथ्य के बावजूद है जबकि बारिश का मौसम तो छोटा होता है लेकिन उस दौरान भारी मात्रा में बारिश होती है।

गहरे या छिपे हुए पानी की समझ को लेकर कमी भी जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा किए गए नुकसान में एक बड़ी भूमिका निभाती है। 

रन-ऑफ-द-रिवर परियोजनाओं के समर्थक, इसे पारिस्थितिकी के लिहाज से अच्छा बताते हुए इसका पक्ष लेते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि रन-ऑफ-द-रिवर परियोजनाएं अभी भी मूल नदी से 95 फीसदी पानी को डायवर्ट करती हैं। इन परियोजनाओं की सीमेंट वाली सुरंगें पानी को मिट्टी के भीतर नहीं जाने देती हैं। इनका डिजाइन कुछ इस तरह से होता है कि पहाड़ का वातावरण पानी से वंचित होने लगता है जिसकी वजह से एक्वीफर्स को दोबारा दुरुस्त करने के लिहाज से जरूरी पानी उनको नहीं मिल पाता है। इसके अलावा, पौधों की जड़ों के पोषण के लिए जरूरी पानी की कमी हो जाती है। साथ ही, पहाड़ियों को स्थिर रखने के लिए जरूरी पानी नहीं मिल पाता है। 

अधिक ऊंचाई पर, इस बात का अधिक डर है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण वहां छिपे हुए पानी यानी पर्माफ्रॉस्ट पर क्या असर होगा। पर्माफ्रॉस्ट वह मिट्टी है जो 2 वर्षों से अधिक अवधि से शून्य डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर जमी हुई अवस्था में है।

हाल ही में आर्कटिक से चिंताजनक निष्कर्ष आए हैं। दरअसल, वर्तमान वैज्ञानिक मॉडल के हिसाब से जिन झीलों को एक सदी तक गायब नहीं होना चाहिए था, वे गायब हो गई हैं। वैज्ञानिक मॉडल द्वारा इसका अंदाजा लगाने में शायद इसलिए चूक हुई क्योंकि उन्होंने यह शामिल नहीं किया कि कैसे गर्म बारिश पर्माफ्रॉस्ट को प्रभावित करेगी। जैसे ही पर्माफ्रॉस्ट गायब हुआ, मिट्टी ढीली हो गई और झीलें सूख गईं।

जोशीमठ आपदा के बाद इन मुद्दों पर गंभीर चर्चा होना जरूरी है

हिमालय में, अब तक ज़्यादातर ध्यान ग्लेशियरों पर रहा है। पाकिस्तान, चीन, भारत, नेपाल और भूटान जलविद्युत परियोजनाएं स्थापित कर रहे हैं। इन परियोजनाओं के पीछे यह मानना है कि पानी की कुल मात्रा कम नहीं होगी और कुछ वर्षों तक मामूली रूप से बढ़ सकती है। लेकिन इसमें इस बात पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है कि ग्लेशियरों के पीछे हटने और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से हिमालय की ढलानों की स्थिरता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

जोशीमठ के धंसने की बात सामने आने के बाद, मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा इस बात पर ध्यान दिया जा रहा है कि हिमालय में मानव सुरक्षा एक लंबे समय से उपेक्षित मुद्दा है। उम्मीद है कि इन मुद्दों पर और गहरी चर्चा होगी कि एशिया का वाटर टावर के सामने किस तरह के खतरे हैं। और, जैसा कि नेपाल के झरनों को रिचार्ज करने की परियोजना के उदाहरण से पता चलता है, अगर हम चाहते हैं कि पहाड़ हमारा पोषण करते रहें, तो हमें उन्हें अस्थिर नहीं करना चाहिए। इसकी शुरुआत करने में अभी बहुत देर नहीं हुई है।