जंगल

विश्लेषण: वन अधिकारों को नष्ट करने वाले कानून भारत के कार्बन सिंक के लिए हो सकते हैं नुकसानदेह

वनों के बारे में फ़ैसले लेने के मामलों में अब तक ग्राम सभाओं की भागीदारी रही है और उनके पास अधिकार रहे हैं। लेकिन द् फॉरेस्ट कंजर्वेशन रूल्स 2022 से उनकी यह शक्ति खत्म हो जाती है। एक्टिविस्ट्स और कानून विशेषज्ञों ने इस बदलाव को लेकर चेतावनी दी है। उनका कहना है कि इससे देश की क्लाइमेट-मिटिगेशन प्लेज्स (जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अपने वादे) को खतरा हो सकता है।
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<p>मध्य प्रदेश के ग्रामीणों ने सिंगरौली जिले में फरवरी 2014 में एक कोयला खनन परियोजना का विरोध किया। (फोटो: नीता भल्ला / अलामी)</p>

मध्य प्रदेश के ग्रामीणों ने सिंगरौली जिले में फरवरी 2014 में एक कोयला खनन परियोजना का विरोध किया। (फोटो: नीता भल्ला / अलामी)

द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में, कानून के कई जानकारों और एक्टिविस्ट्स का कहना है कि इस साल की शुरुआत में पारित कानून मूल रूप से इस बात को दोबारा से तय करता है कि भारत के जंगलों का शासन-प्रशासन किस तरह से किया जाना है।

भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की तरफ से 28 जून, 2022 को, 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत, वन संरक्षण नियम 2022 लाया गया। इन नये नियमों को संसद की तरफ से मंजूरी मिल गई है। इसमें जंगल के किसी हिस्से को गैर-वन उद्देश्य में बदलने के लिए परमिट दिए जाने के तरीकों में बदलाव किया गया है। इस प्रक्रिया को आमतौर पर फॉरेस्ट क्लीयरेंस कहा जाता है।  

क्या है वन संरक्षण अधिनियम, 1980 

भविष्य में जंगलों की कटाई को नियंत्रित करने के उद्देश्य से वन संरक्षण अधिनियम लाया गया था। अधिनियम का उद्देश्य था कि किसी भी “गैर-वन उद्देश्य” के लिए जंगलों की जमीन के उपयोग को नियंत्रित किया जाए और उसमें कमी लाया जाए। इसमें राज्य सरकारों को वन भूमि के उपयोग से संबंधित निर्णय लेने से पहले, केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था। 

इस अधिनियम में जंगलों व वन्य जीवन की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया था। इसके अलावा, जंगलों की कटाई के मामले में इसके बदले क्षतिपूर्ति के रूप में नए पेड़ों को लगाने के लिए आवश्यक जमीन की उपलब्धता जैसे विषयों को भी अहमियत दी गई थी। 

साल 2006 में वन अधिकार अधिनियम लागू किया गया। इसमें यह अनिवार्य किया गया कि जंगलों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जानी चाहिए। साल 2006 से पहले यह स्थिति नहीं थी। 

साल 2022 के नियम की सबसे गंभीर बात यह है कि इसमें राज्य सरकार द्वारा जंगल के किसी हिस्से को हटाने की मंजूरी देने के लिए ग्राम सभाओं (निर्वाचित ग्राम परिषदों) की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता को हटा दिया गया है।  

एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में पर्यावरण कानून और पॉलिसी पर काम करने वाली वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली का इसको लेकर कहना है, “केंद्र और राज्य दोनों सरकारें, इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट (बुनियादी ढांचे के विकास) और क्लाइमेट मिटिगेशन प्रोजेक्ट्स (जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने वाली परियोजनाएं) के लिए जमीनों का आवंटन किस तरह से करती हैं, यह बदलाव, इसको सीधे तौर पर प्रभावित करेगा।”

इस कानून को लेकर सिविल सोसाइटी और कुछ सांसदों के बीच चिंता पैदा हो गई है। विशेषज्ञों ने द् थर्ड पोल को बताया कि नए नियमों से जंगलों की कटाई बढ़ सकती है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अपने वादों को निभाने की देश की क्षमता कमजोर हो सकती है।

पहले, वन भूमि पर किसी परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए ग्राम सभाओं की सहमति जरूरी थी। लेकिन नए नियमों में ग्राम सभाओं का जिक्र तक नहीं है। यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी कि सभी दस्तावेज पूर्ण हैं और वनों में निवास करने वाले समुदायों ने सहमति दी है, अब केंद्र सरकार से राज्य सरकार को स्थानांतरित हो गई है। इस सहमति के प्राप्त होने से पहले ही अब केंद्र सरकार क्लीयरेंस दे सकती है।

जंगलों का पनपना और बर्बाद होना मूल रूप से इस पर निर्भर है कि जंगल की ज़मीन के डायवर्जन की प्रक्रियाओं को किस ढंग से लागू किया जाता है। 
कांची कोहली, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च 

सामुदायिक वन अधिकारों से जुड़ी सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करने वाले एक नेटवर्क -लर्निंग एंड एडवोकेसी- से जुड़े एक कानून विशेषज्ञ तुषार दास का कहना है कि यह बदलाव, राज्य सरकारों के वन विभागों को स्थानीय समुदायों के साथ विचार-विमर्श किए बिना फॉरेस्ट क्लीयरेंस देने को प्रोत्साहित करता है। वह कहते हैं, “राज्य सरकारों की भूमिका बहुत कम हो जाएगी। इससे [जंगल में रहने वाले समुदायों और सरकार के बीच] संघर्षों में वृद्धि होगी।”

वन अधिकार अधिनियम के साथ क्या दिक्कतें हैं? 

2006 के वन अधिकार अधिनियम में, वन संसाधनों के अधिकारों के साथ ही, जंगलों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों को भी शामिल किया गया था। इनमें ग्राम सभाओं के माध्यम से उस वन भूमि की “रक्षा, पुनर्जनन या संरक्षण या प्रबंधन” का अधिकार शामिल था, जहां पर ये समुदाय पारंपरिक रूप से थे। इस अधिनियम में यह आवश्यक किया गया था कि ग्राम सभाओं को परियोजना के प्रस्तावों का विवरण प्रदान किया जाए। साथ ही, प्रस्ताव प्रस्तुत करने से पहले उनकी सहमति की सूचना दी जाए। 

इस कानून की स्वीकार्यता धीमी रही है। इसके कार्यान्वयन में कमियां रही हैं। साल 2016 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वन अधिकार अधिनियम के पारित होने के 10 वर्षों में [सामुदायिक वन संसाधन] अधिकारों की “न्यूनतम क्षमता” का केवल 3 फीसदी ही इसे हासिल हो पाया।” 

इसके बावजूद विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून ने कम से कम निर्णय लेने में वनवासियों की भागीदारी की संभावना पैदा की।

Community members in a Maharashtra village conduct a forest survey
एक मैनेजमेंट प्लान की तैयारी के हिस्से के रूप में, जैव विविधता के लिहाज से महत्वपूर्ण पेड़ों और प्रजातियों की पहचान करने के लिए महाराष्ट्र के एक गांव के लोग नवंबर, 2022 में एक वन सर्वेक्षण कर रहे हैं। (फोटो: सुष्मिता)

कोहली ने कहा, “फॉरेस्ट डायवर्जन के लिए पहले से आवश्यक अनुमति को, वन अधिकारों की स्वीकार्यता के रूप में माना जाता था। यह स्थिति, किसी निर्णय में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने वाली मानी जाती थी। यह एक ऐसा मानक था जिसको अब, केंद्रीय वन संरक्षण नियमों में आवश्यक कानूनी समर्थन नहीं है।”

भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने, वैसे तो 10 जुलाई को जोर देकर कहा, “किसी भी अधिनियम के नियम या प्रावधानों को कमजोर नहीं किया जा रहा है”। वहीं, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के राज्य मंत्री द्वारा 28 जुलाई को इसी तरह के एक बयान में कहा गया कि “ये नियम, अन्य कानूनों में परिकल्पित प्रक्रियाओं के शुरू होने में बाधा नहीं डालते हैं।”

हालांकि, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के ही बयान में कहा गया है कि वन अधिकार अधिनियम जैसे अन्य कानूनों का अनुपालन “वन भूमि को उपयोगकर्ता एजेंसी को सौंपने से पहले किया जाना चाहिए।” 

अगर वनों को बचाने का सवाल है तो वन अधिकार अधिनियम में मजबूत सिफारिशें हैं। 
रोमा मलिक, ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल

ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (आदिवासी और दलित समुदायों का एक राष्ट्रीय संघ) में अपनी विशेष भूमिका रखने वाली रोमा मलिक का कहना है कि नए नियमों के ज़रिये विकास परियोजनाओं को तय करने में, समुदायों के हितों के साथ समझौता किया जाएगा।

अधिनियम के कार्यान्वयन को मजबूत क्यों नहीं किया गया है, इस पर सवाल उठाते हुए वह कहती हैं, “किसी भी संरक्षण कानून में कोई भी बदलाव, वन अधिकार अधिनियम और समान स्थिति के अनुकूल होना चाहिए। यदि यह जंगलों को बचाने का सवाल है, तो फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट के भीतर मजबूत सिफारिशें हैं।” 

लैंड बैंक एक प्रमुख मुद्दा है 

नए नियमों में एक दूसरा प्रमुख मुद्दा ‘लैंड बैंक’ से संबंधित है। लैंड बैंक, भविष्य में उपयोग के लिए सरकारी या निजी नियंत्रण में रखी गई भूमि के बड़े हिस्से से संबंधित है। लैंड बैंक की पहचान अक्सर उन क्षेत्रों के रूप में की जाती है जहां- नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाने के नाम पर- कहीं और वन भूमि का उपयोग का करके, नए जंगल उगाए जा सकते हैं।

एक्सप्लेंड: भारत में नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाना और लैंड बैंक 

अगर किसी क्षेत्र में जंगल की ज़मीन बर्बाद हो रही है या उस पर कोई विकास परियोजना का काम होना है तो किसी गैर-वन भूमि (या अगर नष्ट हुई वन भूमि को दोबारा से विकसित करने की बात हो तो यह काम दोगुनी जमीन पर करना होता है) पर उस क्षेत्र को दोबारा स्थापित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए विकास परियोजना स्थापित करने वाले को भुगतान करना पड़ता है। 

लैंड बैंक का मतलब भविष्य में उपयोग के लिए सरकारी या निजी नियंत्रण में रखी गई भूमि के एक बड़े हिस्से से है। इसमें सामुदायिक सामान्य भूमि, राजस्व वन भूमि या निम्नीकृत वन शामिल हो सकते हैं। इनको भविष्य में, नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाने के नाम पर आरक्षित किया जा सकता है। भूमि पर आम लोगों के अधिकार होने के बावजूद कई लैंड बैंक बनाए गए हैं।

पर्यावरण कानून की विशेषज्ञ और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अर्पिता कोडिवेरी कहती हैं, “मुख्य अंतर [अन्य पिछले प्रावधानों से, जो लैंड बैंक का उल्लेख करते हैं, जैसे कि 2016 कंपनसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड एक्ट] ग्राम सभा की भूमिका का कम होना है।” 

उनका यह भी कहना है, “[पहले के] नियमों के तहत, जब पैसा लगाया जाता है या गतिविधियां होती हैं, तो ग्राम सभाओं से परामर्श किया जाना चाहिए। इस मामले में, एक सीधी-सीधी धारणा है कि सब कुछ सामंजस्य स्थापित करने तक सीमित है। और नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाने के साथ इस तरफ बढ़ा जा सकता है।”

कोडिवेरी, जिन्होंने लैंड बैंक्स का अध्ययन किया है, कहती हैं कि “इसमें चुनौतीपूर्ण हिस्सा यह है कि यहां मान लिया गया है कि सरकार के पास पहले से ही एक मौजूदा लैंड बैंक है। उनके पास वह बैंक कैसे है, यह स्पष्ट नहीं है… देश के कई हिस्सों में, लैंड बैंक पहले से ही सामान्य भूमि पर बनाए गए हैं, जिसका उपयोग स्थानीय समुदाय विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं।”

इसके अलावा, भारी जंगलों वाले पहाड़ी राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों को लेकर नियम कहते हैं कि नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाने या एक लैंड बैंक का काम “दूसरे राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में ले जाया जा सकता है” जहां वन क्षेत्र 20 फीसदी से कम है। हिमालयी क्षेत्रों के लिए इसका विशेष प्रभाव है: कई अध्ययनों ने संकेत दिया है कि हिमाचल प्रदेश या अरुणाचल प्रदेश जैसे स्थानों में नुकसान की भरपाई के लिए जंगल लगाने के लिए जमीन मुश्किल से मिलती है। इसका मतलब यह है कि जंगल लगाने का काम उसी पारिस्थितिकी में नहीं होगा, जहां से जंगलों को खत्म किया गया है। 

भारत के जंगलों के लिए बुरी खबर

नए नियम न केवल वनों में रहने वाले समुदायों को प्रभावित करेंगे, बल्कि भारत के जलवायु लक्ष्यों के लिए भी इसके मायने हो सकते हैं। अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान में, भारत ने “2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने” का संकल्प लिया है।

पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वालों का कहना है कि इस महत्वाकांक्षा को हासिल करने और नष्ट हुए जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिए समुदायों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। एक स्वदेशी अधिकार अभियान समूह, ऑल इंडिया फोरम ऑफ फॉरेस्ट मूवमेंट्स (एआईएफएफएम) के सौमित्र घोष ने कहा कि वनों को और खतरे में डाले बिना विकास परियोजनाओं को सुरक्षित रूप से प्रबंधित करने में सशक्त स्थानीय समुदायों की भूमिका महत्वपूर्ण है।

Deforestation in Nagaland, near the border with Myanmar
म्यांमार की सीमा के पास नागालैंड में वनों की कटाई। हिमालय के जंगल, दुनिया में सबसे ज्यादा जर्जर कुछ जंगलों में से एक हैं। (फोटो: लूसी काल्डर / अलामी)

कोहली का कहना है, “जंगलों का पनपना और बर्बाद होना, मूल रूप से इस पर निर्भर है कि जंगल की ज़मीन के डायवर्जन की प्रक्रियाओं को किस ढंग से लागू किया जाता है।” उनका यह भी कहना है कि हिमालय और तटीय क्षेत्र पहले से ही जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं और आपदाओं का सामना कर रहे हैं। ऐसे में, इन जैसे क्षेत्रों में, भूमि को लेकर समुदायों की भागीदारी और निर्णय लेने में उनकी भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

द् थर्ड पोल को यह भी बताया गया कि जैसे-जैसे जंगलों को कार्बन सिंक के रूप में देखा जा रहा है, प्रकृति और समुदायों दोनों को नुकसान हो रहा है।

वन अधिकार अधिनियम के अस्तित्व में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी, में शामिल सीआर बिजॉय कहते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों को विशेष रूप से टारगेट किया जा रहा है। जंगलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना ( फॉरेस्ट डायवर्जन) और जंगल लगाना (अफॉरेस्टेशन) दोनों, “पहाड़ की पारिस्थितिकी को अपरिवर्तनीय रूप से बदल रहे हैं। और भूमि के उपयोग में, जहां स्थानीय समुदायों को बाहर रखा गया है, वहां उनकी आजीविका को खतरा है। इसके अलावा संरक्षण का एजेंडा पटरी से उतर गया है, भले ही संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाला एक अभिजात वर्ग जलवायु कार्रवाई के प्रयासों की सराहना करता है।”

कम्युनिटी फॉरेस्ट राइट्स – लर्निंग एंड एडवोकेसी से जुड़े कानूनी विशेषज्ञ दास का कहना है कि नये नियमों को निलंबित कर दिया जाना चाहिए। उनका प्रस्ताव है, “पिछली कानूनी प्रक्रियाओं को बहाल किया जाना चाहिए और विकास परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले ग्राम सभाओं की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए।”