जलवायु

विचार: केवल अस्थायी समाधान नहीं, बल्कि बड़े बदलाव लाने वाले जलवायु अनुकूलन की है ज़रूरत

जलवायु अनुकूलन के लिए फंडिंग बढ़ाने का वादा COP27 में किया गया है, लेकिन जरूरत के हिसाब से यह कुछ भी नहीं है। इसके अलावा, अनुकूलन के किए जाने वाले प्रयास बहुत सीमित और संकुचित हैं।
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<p dir="ltr">दक्षिण भारत में, दिसंबर 2015 में आई बाढ़ के बाद चेन्नई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तैरता एक विमान। बाढ़ से रक्षा के लिहाज से बेहतर शहरी बुनियादी ढांचे को डिजाइन करना, जलवायु अनुकूलन का एक उदाहरण है। इस तरह की पहल का मतलब यह है कि हमने स्वीकार कर लिया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ खतरनाक बन चुकी है और इस तरह के खतरों का सामना बार-बार करना पड़ रहा है। इस तरह के हालात, योजना और विकास निर्णयों में कारक की भूमिका निभा रहे हैं। (फोटो: अलामी)</p>

दक्षिण भारत में, दिसंबर 2015 में आई बाढ़ के बाद चेन्नई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तैरता एक विमान। बाढ़ से रक्षा के लिहाज से बेहतर शहरी बुनियादी ढांचे को डिजाइन करना, जलवायु अनुकूलन का एक उदाहरण है। इस तरह की पहल का मतलब यह है कि हमने स्वीकार कर लिया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ खतरनाक बन चुकी है और इस तरह के खतरों का सामना बार-बार करना पड़ रहा है। इस तरह के हालात, योजना और विकास निर्णयों में कारक की भूमिका निभा रहे हैं। (फोटो: अलामी)

जलवायु अनुकूलन के लिए वित्त के मुद्दे पर पिछले महीने COP27 के दौरान महत्वपूर्ण प्रगति हुई। विभिन्न सरकारों ने 2015 के पेरिस समझौते के तहत स्थापित अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य (ग्लोबल गोल ऑन एडेप्टेशन) की तरफ आगे बढ़ने के लिए सहमति व्यक्त की है। अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य का मकसद यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझने के दुनिया के सबसे कमज़ोर समुदायों की क्षमता बढ़ाई जा सके।   

COP27 के दौरान, अनुकूलन कोष (एडेप्टेशन फंड) में 1900 करोड़ रुपयों का नया वचन दिया गया। यह फंड संयुक्त राष्ट्र प्रणाली द्वारा 2001 में स्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की मार झेलने वाले देशों के लिए वित्तीय सहायता स्थापित करना है। लेकिन इस काम के लिए पैसे देने के वादे को पूरा नहीं किया गया। इसके अलावा, एडेप्टेशन फंड को दोगुना करने को संबंध में, यूएन क्लाइमेट चेंज की फाइनेंस पर स्टैंडिंग कमेटी को एक रिपोर्ट तैयार करने का काम सौंपा गया, जिस पर कॉप 28 में विचार किया जाएगा।

जलवायु अनुकूलन (क्लाइमेट एडेप्टेशन) क्या है?

जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन का मतलब है पर्यावरण, समाज, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और अन्य क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए समाज की तरफ से किए जाने वाले विभिन्न प्रयास। इन प्रभावों से लड़ने और आपस में तालमेल बिठाने के लिए प्रत्येक देश, क्षेत्र या समुदाय के अनुरूप व्यावहारिक समाधान की आवश्यकता होती है। जलवायु अनुकूलन की दिशा में किए जाने वाले विभिन्न प्रयासों में से एक है सूखा-प्रतिरोधी फसलों की नई किस्मों को विकसित करना और इन प्रजातियों का उपयोग करना।

इसके अलावा, तटीय शहरों या नदी के किनारे रहने वाले समुदायों की रक्षा के लिए बेहतर बाढ़-रक्षा बुनियादी ढांचे को डिजाइन करने की जरूरत होती है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली आपदाओं को लेकर अर्ली वार्निंग सिस्टम में सुधार की भी जरूरत है। इसके अलावा, इकोसिस्टम को पहले के जैसा करने की आवश्यकता है जिससे मौसम की चरम स्थितियों के दौरान यह बफर के रूप में काम करें। 

इन सभी प्रयासों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए विभिन्न सरकारों, व्यवसायों और समाज के एक बड़े वर्ग के बीच राजनीतिक इच्छाशक्ति और सहयोग की आवश्यकता होती है। निश्चित रूप से इन सब उपायों की लागत काफी अधिक हो सकती है। वैसे तो, इसमें तत्काल वित्तीय रिटर्न की कमी है लेकिन विशेषज्ञ इस बात को लेकर सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन वाला समाज बनाने के लिए जरूरी निवेश की तुलना में, इसके प्रति निष्क्रियता की लागत कहीं अधिक है।

जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली आपदाओं के कारण पहले ही बहुत ज्यादा नुकसान हो चुका है। इन सब वादों के बावजूद, सच्चाई यह है कि जरूरत के हिसाब से ये फंडिंग बहुत कम है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, अकेले भारत को 2020 में चरम मौसम (इनमें अप्रत्याशित, असामान्य, गंभीर मौसम शामिल हैं) की घटनाओं के कारण 87 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। ऐसे मौसम की स्थितियां, ज्यादातर जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुई हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण, पूर्ण सीमा तक वास्तव में क्या-क्या हो सकता है, इनके प्रभावों की परिमाण, और प्रत्यक्ष व व्यापक प्रभावों की अच्छी तरह से समझ या जानकारी नहीं है।

जलवायु परिवर्तन का ख़ामियाज़ा

विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से भारत को प्रति व्यक्ति जीडीपी का 2.8 फीसदी नुकसान हो सकता है। ये हालात देश की लगभग आधी आबादी के जीवन स्तर में कमी ला सकते हैं। रिपोर्ट का यह भी अनुमान है कि लगभग 60 करोड़ लोग भारत के उन हिस्सों में रहते हैं, जो 2050 तक मध्यम या गंभीर हॉटस्पॉट बन सकते हैं।

मध्यम या गंभीर हॉटस्पॉट्स को ऐसे क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है जहां उपभोग पर लोगों का खर्च क्रमशः 4 से 8 फीसदी या 8 फीसदी से अधिक घटता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले संकटों के कारण, पिछले कुछ दशकों के दौरान जल सुरक्षा, कृषि उत्पादकता, पारिस्थितिक तंत्र और शहरी बुनियादी ढांचे पर खतरों के साथ-साथ अन्य तरह के जोखिम उत्पन्न हो गए हैं। 

इस वर्ष, अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान ने चेतावनी दी थी कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की वजह से, कृषि उत्पादन में गिरावट और खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं। यह हालात 2030 तक बहुत सारे भारतीयों को भुखमरी की ओर धकेल सकता है। इसके अलावा, विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने भी पिछले साल कहा था कि तकरीबन पूरे भारतीय तटों के समुद्र का स्तर, वैश्विक औसत की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। यह स्थिति न केवल बड़े पैमाने पर जीवन के लिए खतरा है, बल्कि आजीविका के लिए भी इसके जोखिम हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने 2019 में एक अनुमान लगाया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से हीटवेव जैसे धीमी शुरुआत वाले संकटों के सामने मौजूदा निष्क्रियता के चलते 2030 तक भारत में 3.4 करोड़ नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। 

अपने मौजूदा स्वरूप में अनुकूलन काफ़ी नहीं है  

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एडेप्टेशन गैप रिपोर्ट के अनुसार, वैसे तो जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन हो रहा है, लेकिन यह समान नहीं है, धीरे-धीरे हो रहा है और छोटे पैमाने पर हो रहा है।

इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन को लेकर किए जाने वाले प्रयास, अगर बहुत सीमित और संकुचित हों, तो ये फायदे की जगह ज्यादा नुकसान कर सकते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन के जोखिम, अन्य क्षेत्रों को भी अपने चपेट में ले सकते हैं। यहां तक कि स्थितियों को और खराब कर सकते हैं। जलवायु आपदाओं के कारण फसलों के नुकसान के मामले में पहले ही ऐसा देखा जा चुका है। फसलों के नुकसान से कीमतों में बढ़ोतरी होती है। ऐसे में, घरेलू बाजारों में आपूर्ति बनाए रखने के लिए इन फसलों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। बदले में, यह वैश्विक बाजारों में एक व्यापक संकट पैदा कर देता है। इस प्रकार, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए किए जाने वाले प्रयासों में आपसी तालमेल न हो और ये प्रयास संकीर्ण स्वार्थों की रक्षा के लिए किए जा रहे हों तो एक क्षेत्र में अनुकूलन, दूसरे के लिए आपदा का कारण बन सकता है। 

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अधिक गंभीर होते जा रहे हैं। ऐसे प्रभावों का सामना बहुत जल्दी-जल्दी करना पड़ रहा है। ऐसे में, बड़े बदलाव के लिए अब धीरे-धीरे होने वाले अनुकूलन और स्थानीय प्रयासों से आगे बढ़ना जरूरी हो गया है। यह तभी संभव है जब अनुकूलन के लिए किए जाने वाले प्रयास, जलवायु जोखिमों पर विचार करें। इसके अलावा, केवल एक क्षेत्र वाले स्तर पर, अल्पकालिक लाभ और समायोजन पर ही ध्यान न देकर दीर्घकालिक और बड़ी तस्वीर पर ध्यान देने की आवश्यकता है।  

जलवायु अनुकूलन के लिए एक प्रणालीगत दृष्टिकोण

क्षेत्र स्तर पर (कृषि, जल, वन, तट, शहरी बुनियादी ढांचा और कमजोर समुदायों के मामले में) जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझना अनुकूलन आवश्यकताओं के मूल्यांकन और स्थानीय स्तर पर प्रयासों को गति देने के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि ठीक ढंग से अनुकूलन न हो या पर्याप्त अनुकूलन न हो, ऐसी स्थितियों से बचने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के आपसी संबंधों को पहचानना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, पूरे वाटरशेड पर विचार किए बिना, जल संचयन के लिए नदी के ऊपर चेक डैम बनाने से नीचे की ओर रहने वाले लोगों के लिए पानी की कमी हो सकती है, जो बदले में कृषि और खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है।

वर्तमान में, जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के उपाय, ज्यादातर आग बुझाने वाली स्थिति जैसे हैं। इनमें केवल तात्कालिक जोखिमों पर विचार किया जाता है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के जोखिम के बारे में स्पष्ट सूचना पर आधारित अनुकूलन की कमी है। जबकि इस तरह का अनुकूलन खतरों, जोखिम और कमजोरियों पर व्यापक रूप से ध्यान देते हुए जरूरी उपाय पर फोकस करता है। 

इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को मापने और इन प्रभावों के लिए स्पष्ट तौर पर जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराने वाले तौर-तरीके अभी भी विकसित ही हो रहे हैं। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के लिए विशेष रूप से किए जाने वाले प्रयासों या विकास गतिविधियों से साथ-साथ मिलने वाले अनुकूलन फायदों- अगर कोई है- को ट्रैक करने के तौर-तरीकों की कमी है।  

अनुकूलन के लिए किए जाने वाले प्रयास में जलवायु जोखिमों पर ध्यान देना होगा। साथ ही, केवल क्षेत्र स्तर पर शॉर्ट-टर्म लाभ और समायोजन पर ध्यान देने के अलावा लॉन्ग-टर्म उपाय और बड़ी तस्वीर पर ध्यान देने की आवश्यकता है।  

अनुकूलन उपायों में उनकी क्षमता, प्रौद्योगिकी और वित्तीय आवश्यकताओं के आकलन को एकीकृत किया जाना चाहिए। अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने के लिए, अब क्षेत्रीय (राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय) प्रयास शुरू किए जाने चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से आगे बढ़ते हुए, टुकड़ों में अनुकूलन के बजाय सिस्टमैटिक रिजिल्यन्स प्रदान करने के लिए, लक्षित निवेशों की पूलिंग, ही एकमात्र तरीका है जिससे सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं की रक्षा की जा सकती है। यह उन करोड़ों लोगों के लिए रिजिल्यन्स को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है, जो 2050 तक जलवायु प्रभावों के प्रति अधिक नाजुक स्थिति में होंगे।