जंगल

क्या भारत और शहरी वन विकसित कर सकता है?

राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और पुराने नियमों की वजह से शहरी वन विकसित करने में दिक्कतें आ रही हैं लेकिन कई अच्छे और सफल उदाहरण भी हैं, उनसे सीखकर शहरी वन विकसित किये जाने चाहिए।
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<p>Forests in and around urban areas, such as in Dharamsala, India, keep cities habitable, but they are increasingly being removed to make space for real estate [image: Alamy]</p>

Forests in and around urban areas, such as in Dharamsala, India, keep cities habitable, but they are increasingly being removed to make space for real estate [image: Alamy]

विश्व पर्यावरण दिवस यानी 5 जून को एक वर्चुअल उत्सव के दौरान, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने नगर वन परियोजना की शुरुआत की। इस योजना का लक्ष्य अगले पांच वर्षों में देश भर के 200 शहरों में शहरी वन क्षेत्र विकसित करना है। हैरानी की बात है कि 2016 में, जावड़ेकर ने मुंबई के बोरीवली में संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में एक समारोह में भी यही योजना शुरू की थी। विशेषज्ञों में से किसी ने भी www.thethirdpole.net संवाददाता से इस पर बात नहीं की कि उन्हें उस योजना की किसी प्रगति के बारे में जानकारी है। ऐसा कोई सरकारी आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है जिससे यह पता चल सके कि 2016 से 2020 के बीच 200 सिटी फॉरेस्ट वाली योजना के लक्ष्यों में कितना हासिल किया जा चुका है।

ये अलग बात है कि इस ओर कोई प्रगति नहीं हुई है लेकिन शहरी जंगलों के लाभ और शहरी जीवन को बेहतर बनाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। पेड़, शहरों में तापमान को कम करने में मदद करते हैं क्योंकि वहां कंक्रीट से बनी इमारतों और सड़कों से निकलने वाली गर्मी उन्हें आसपास के देहात के इलाकों की तुलना में अधिक गर्म बना देती है। वे ओजोन, सल्फर डाइऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर के स्तर को भी कम कर देते हैं। इसके अलावा वायुमंडल से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइ ऑक्साइड को हटाकर ऑक्सीजन देते हैं।

दुनिया भर में बड़े शहरों में इस प्रकार के शहरी वन बहुत तेजी से विकसित किये जा रहे हैं। सियोल, सिंगापुर और बैंकॉक ने अपने शहर के निवासियों के जीवन में सुधार करते हुए प्रकृति और वन्य जीवन के लिए जगह प्रदान करने वाले ग्रीन कॉरिडोर्स बनाए हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, इस तरह की पहल लाजिमी है क्योंकि 2050 तक शहर दुनिया की 68 फीसदी आबादी की मेजबानी करेंगे।

खतरे में शहरी हरित क्षेत्र

दुर्भाग्य से, भारत में अभी भी मौजूदा शहरी हरित क्षेत्र खतरे में हैं। अक्टूबर 2019 में, उपनगरीय मुंबई में, आरे मिल्क कॉलोनी, जिसे शहर के ‘ग्रीन लंग’ के रूप में जाना जाता है, को पारिस्थितिकी बनाम बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के एक कर्कश राष्ट्रव्यापी बहस में घसीटा गया था। यह सब एक योजना के चलते शुरू हुआ जिसमें मुंबई मेट्रो रेल कॉरपोरेशन ने ट्रेन डिपो के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए इस क्षेत्र में 3,000 पेड़ों को काट दिया था। एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार, यह जगह तितलियों की 86 प्रजातियों, मकड़ियों की 90 प्रजातियों, सरीसृपों की 46 प्रजातियों, जंगली फूलों की 34 प्रजातियों और नौ तेंदुओं का घर है। इसको लेकर सार्वजनिक आक्रोश सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। लेकिन तब तक मुंबई मेट्रो ने आवश्यक भूमि को खाली करने के लिए पर्याप्त पेड़ काट दिए थे।

कभी भारत के सबसे हरित शहर के रूप में पहचाने जाने वाले दक्षिण बेंगलुरु में, बेंगलुरु विकास प्राधिकरण ने, अपने निर्माण कार्यों के लिए शहरी जंगलों को उजाड़ दिया। दक्षिण बेंगलुरु में तुराहल्ली के जंगल को एक देशव्यापी एडवोकेसी फोरम,

एनवायरन्मेंटल सपोर्ट ग्रुप (ईएसजी), द्वारा शुरू की गई कानूनी कार्रवाई की बदौलत कचरा डालने और बर्बरता से बचाया जा रहा है। ईएसजी ने कर्नाटक वन विभाग के साथ मिलकर तुराहल्ली को एक ऐसे स्थान में बदल दिया है, जहां पर अतिक्रमण किए बिना क्लाइम्बिंग, बर्डवॉचिंग, प्राकृतिक इतिहास अध्ययन  इत्यादि जारी रह सकते हैं।

सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च, एनजीओ के सीनियर फेलो चेतन अग्रवाल के अनुसार, भारत में सबसे बड़ी चुनौती शहरी वनों के लिए भूमि चिन्हित करना है। आवास, उद्योग, वाणिज्यिक क्षेत्रों से भूमि पर प्रतिस्पर्धा है जो राजस्व उत्पन्न करते हैं। साथ ही सार्वजनिक बुनियादी ढांचे जैसे सड़क और पानी के काम भी करते हैं। वह कहते हैं, “हरित क्षेत्रों और प्राकृतिक बुनियादी ढांचे के रूप में जंगलों के मूल्य की बहुत कम समझ है जो शहर के निवासियों को स्वच्छ हवा, भूजल पुनर्भरण, बाढ़ नियंत्रण, वन्यजीव आवास और प्राकृतिक मनोरंजन क्षेत्रों जैसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करता है। वन विभाग, जिनके पास यह समझ है, उसकी हैसियत राज्यों और शहरों के टाउन प्लानिंग वाले विभागों की तुलना में कम है। जो मंत्री खूब पैसा पैदा करने वाले विभागों को चलाते हैं, आखिरकार वही शहरों और कस्बों में भूमि के उपयोग संबंधी निर्णयों में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं।

शहर और वन योजना की समझ

जावड़ेकर के नगर वन परियोजना के लिए, अग्रवाल ने कहा कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा चिन्हित किए जाने वाले 200 शहरों को क्षेत्र के भीतर और आसपास के जंगलों के वर्तमान स्तर को चिह्नित करने की आवश्यकता है। इसको एकड़ के अर्थ में और प्रति व्यक्ति के अर्थ में करने की जरूरत है। इसके बाद फिर सुनिश्चित करें कि वे न्यूनतम मानकों को पूरा करते हों। उन्होंने कहा कि मंत्रालय को शहरी मास्टरप्लान और भूमि-उपयोग योजनाओं में वनों के तहत कुल क्षेत्रफल और प्रति व्यक्ति क्षेत्रफल को बढ़ाने की योजना भी बनानी चाहिए। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को इसकी अनिवार्यता करनी चाहिए कि शहर के मास्टरप्लान और क्षेत्रीय योजनाएं अनिवार्य रणनीतिक पर्यावरण आकलन से गुजरें। उन्होंने कहा कि इससे शहरों को अपने सीमित पर्यावरणीय संसाधनों के संरक्षण और संवर्द्धन की योजना बनाने और उन्हें अधिक रहने योग्य बनाने में मदद मिलेगी।

अग्रवाल ने एक और रणनीति का सुझाव दिया, शहर की सीमाओं के पास के गांवों में आम भूमि की पहचान करना और उन्हें जंगलों के लिए चिन्हित करना ताकि जब तक शहर इन क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले उससे पहले से ही वे जंगलों के लिए आरक्षित हो जाएं। कुछ पर्यावरणविदों का सुझाव है कि नीति निर्माताओं को भारत में क्षेत्रीय योजनाओं में उपयोग किए जाने वाले एनवायरनमेंट जोनिंग मैनडेट्स को देखने की आवश्यकता है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र  के लिए रीजनल प्लान फॉर द डेल्ही नेशनल कैपिटल रीजन 10 फीसदी वन क्षेत्र की अनिवार्यता करती है। इसे प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र कहा जाता है। बाद में उन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता होती है और इसमें अरावली पहाड़ियों, जंगलों, जल निकायों और नदी तटों के पास निर्माण प्रतिबंधित होता है।

राजनीतिक इच्छाशक्ति

दुर्भाग्य से, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी प्रतीत होती है। ईएसजी के लियो सल्दान्हा ने कहा, “जावड़ेकर विशेष रूप से सभी प्रकार के वादे करने और उन्हें पूरा  नहीं करने के लिए जाने जाते हैं। नगर वन योजना ऐसी ही एक और योजना है। शहरी वनों को वास्तविकता बनाने के लिए बस नगरपालिका अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने की आवश्यकता होती है, जहां वार्ड समितियां उन वनों की रक्षा के लिए योजनाएं विकसित कर सकती हैं जिन्हें शहरीकृत किया जा रहा है। इन योजनाओं को जिला / महानगरीय विकास योजना में भी एकीकृत किया गया है और संवैधानिक रूप से सशक्त रूप में अनुमोदित किया गया है।”

बेंगलुरु के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सस्टेनेबिलीटी की प्रोफेसर, हरिनी नागेंद्र के अनुसार, फॉरेस्टर्स और आधिकारिक शहर नियोजकों के बीच जो मानसिकता बदलने की जरूरत है, वह यह है कि वन शहरों के साथ सह-अस्तित्व में नहीं रह सकते। वह कहती हैं, “वन कानूनों का वर्तमान बहुत कुछ प्रतिबंधात्मक, रुढ़िवादी और क्षेत्रीय है। हमें ऐसे शासन पद्धतियों को विकसित करने की आवश्यकता है, जहां शहरी जंगलों को स्थानीय सरकारी साधनों, जैसे वार्ड समितियों के माध्यम से निर्देशित किया जाता है, जैसा कि नगरपालिका अधिनियम, 1992 में परिकल्पित किया गया था।

कई अच्छे उदाहरण

नागेंद्र कहती हैं कि पुणे में वारजे शहरी वन के मॉडल पर काम किया जा सकता है। यह महाराष्ट्र की पहली शहरी वानिकी परियोजना है जिसे टेरी द्वारा विकसित किया गया था, जो एक गैर-लाभकारी संस्था है। इसको टाटा मोटर्स के साथ एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के तहत एक कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी पहल के तहत इसे विकसित किया गया था। झुग्गियों और बिल्डरों द्वारा वन विभाग की 16 हेक्टेयर बंजर जमीन का अतिक्रमण कर लिया गया था जिसे जैव विविधता के सम्पन्न रमणीय स्थल में तब्दील कर दिया गया। यह 10,000 से अधिक स्वदेशी पौधों की प्रजातियों, 29 स्थानीय पक्षी प्रजातियों, 15 तितली प्रजातियों, 10 सरीसृप प्रजातियों और तीन स्तनपायी प्रजातियों की मेजबानी करता है। कई अन्य अच्छे उदाहरण हैं। शिमला में लगभग 1,000 हेक्टेयर के एक अभ्यारण्य है जो 1890 के दशक में नगर निकाय द्वारा प्रबंधित शिमला पेयजल जलग्रहण वन के रूप में शुरू हुआ था। दक्षिण-पूर्व दिल्ली में, असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य को गांव की आम भूमि से आरक्षित वन क्षेत्र में ले जाया गया और फिर इसे एक अभयारण्य के रूप में तब्दील कर दिया गया। दिल्ली के अरावली और यमुना जैव विविधता पार्क ने भी शहर में इन क्षेत्रों के प्राकृतिक आवासों और पारिस्थितिकी प्रणालियों को सफलतापूर्वक दोबारा स्थापित किया है।

इसी तरह, गुड़गांव के अरावली जैव विविधता पार्क को नगर निगम, नागरिक समाज, निगमों और निवासियों के बीच एक अनूठी साझेदारी द्वारा वनों को देशी प्रजातियों के लिए एक आश्रय के रूप में तब्दील गया था। अब इसमें लगभग 200 पक्षी प्रजातियों को आकर्षित करने वाले सैकड़ों फूल, पेड़ और झाड़ियाँ हैं। सलदान्हा ने कहा कि समस्या कानूनों की कमी नहीं हो सकती है। कर्नाटक टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट 1961 में ट्री पार्क और इस तरह के अन्य बिना स्ट्रक्चर वाले लकड़ी के स्थान के निर्माण का सुझाव दिया गया है, लेकिन इसका उपयोग बड़े पैमाने पर औपचारिक रूप से किया गया है  और यहां तक ​​कि कानूनी रूप से परिभाषित खुले और जंगली स्थानों को प्रदान नहीं करके, इसका पर्याप्त उल्लंघन किया गया है।

शहरी जंगलों को बढ़ावा देने वाले समूह, ग्रीन यात्रा के संस्थापक प्रदीप त्रिपाठी ने कहा कि जगह और नगर पालिका बजट में कमी को देखते हुए, शहरी जंगल के विचार को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। एक अच्छा और टिकाऊ शहरी वानिकी मॉडल, मियावाकी पद्धति है। इसे जापानी वनस्पति शास्त्री अकीरा मियावाकी द्वारा निर्देशित किया गया है। इसे स्थानीय परिस्थितियों के लिए स्वदेशी प्रजातियों के साथ अनुकूलित किया जा सकता है। त्रिपाठी कहते हैं, “मियावाकी वन एक उष्णकटिबंधीय वर्षावन की प्रतिकृति बनाते हैं। इसमें छोटे वृक्ष नीचे और ऊँची-ऊँची छतरियों वाली प्रजातियां ऊपर होती हैं। पारंपरिक वानिकी में, एक एकड़ में लगभग 1,000 पेड़ उगाए जाते हैं। हम मियावाकी के तहत इतने ही क्षेत्र में 12,000 पौधे लगाते हैं, जो 10 वर्षों में 100 साल पुराने जंगल का लाभ पैदा करता है। त्रिपाठी कहते हैं कि इस वर्ष की शुरुआत में ग्रीन यात्रा ने जोगेश्वरी, मुंबई में सेंट्रल रेलसाइड वेयरहाउस कंपनी द्वारा वन के लिए निर्धारित 10,000 वर्ग फुट क्षेत्र में 3,000 पौधे लगाए। कोरोना महामारी के बाद दिल्ली में दो मियावाकी वन बनाने के लिए योजनाएं बनाई गई हैं। यह घना जंगल आने वाले समय में कार्बन सिंक और भूजल पुनर्भरण इकाई की तरह काम करेगा।

सल्दान्हा ने जोर देकर कहा कि जलवायु संकट को देखते हुए, दिल्ली, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगरों में ग्रीन कॉरिडोर की योजना, डिजाइन करना और उस पर काम करना महत्वपूर्ण है, जबकि तटीय शहरों में समुद्र तटों की रक्षा के लिए सख्त नियम होने चाहिए और  शहर के खुले और हरित हिस्सों को बाकी हिस्सों के साथ एकीकृत करना चाहिए। इसी तरह, झीलों और नहरों को शहरी हरित क्षेत्र के रूप में दोबारा विकसित किया जाना चाहिए। यह कंक्रीट से बनी नहरों को एक हरे भरे स्थान के रूप में बदलने में मददगार होगा। प्रदूषित पानी की प्राकृतिक तरीके से सफाई में वृद्धि होगी जो कि पौधों और जीवों द्वारा होगा। साथ ही भूजल स्तर भी रिचार्ज होगा। सल्दान्हा का कहना है कि इस तरह के दृष्टिकोण से लाखों नए रोजगार भी पैदा होंगे। हमारे शहरों को इस तरह से आकार देने से बिल्डरों, मालिकों, नागरिकों और सरकारी एजेंसियों की बहुत अधिक लागत नहीं आने वाली है।

नीता लाल, नई दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार और संपादक हैं। उनका ट्विटर @neeta_com है।