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क्या हिमालयी क्षेत्र के सीमा विवाद से जलवायु अनुसंधान पर असर पड़ेगा?

वैज्ञानिकों को उम्‍मीद है कि हाल ही में सीमा पर हुए संघर्ष और कोरोना महामारी की वजह से पिछले एक दशक के अनुसंधान में हुई सीमित प्रगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
<p>Long-term, consistent data monitoring is needed in the Himalayas for evidence-based policymaking [image by: Ashley Cooper/Alamy]</p>

Long-term, consistent data monitoring is needed in the Himalayas for evidence-based policymaking [image by: Ashley Cooper/Alamy]

अप्रैल के अंत में, हिन्दु कुश हिमालय क्षेत्र के आठ देशों के पर्यावरण मंत्रियों की एक बैठक होने वाली थी। वे सहयोग और विज्ञान आधारित नीति निर्माण पर चर्चा करने वाले थे, लेकिन दुर्भाग्य से कोविड-19 महामारी की वजह से यह बैठक नहीं हो पायी, जिसका आयोजन क्षेत्रीय अंतर सरकारी संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केन्द्र (आईसीआईएमओडी) करने जा रहा था, जो काठमांडू में है।

आयोजकों को चीन,  भूटान, नेपाल, भारत, बांग्‍लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार के मंत्रियों को एक साथ पर्यावरण के मुददों पर चर्चा करने के लिए तैयार करने में दो साल लगे।

आयोजन के समन्वयक और द् हिन्दू कुश हिमालयन एसेसमेन्‍ट: माउनटेंस, क्लाइमेट चेंज, सस्टनेबिलिटी एंड पीपुल के संपादक फिलिपस बैस्‍टर कहते हैं ” हम उम्मीद करते हैं कि अगले साल सभी देशों के प्रतिनिधियों के साथ और अधिक सहयोग के साथ बैठक करेंगे।” एक मंच पर अलग-अलग देशों के नीति निर्माताओं को एक साथ लाना अत्‍यंत कठिन कार्य है जहां अत्यधिक विविधताएं और गहरे विवाद मौजूद हैं।

महामारी के बीच, लद्दाख के हिमालय क्षेत्र में भारत और चीन सीमा विवाद भड़का हुआ है। ये 45 साल का सबसे खराब संघर्ष हैं जिसमें दोनों देशों के सैनिक मारे गए। पिछले कुछ महीनों से नेपाल और भारत के बीच सीमा पर तनाव काफी बढ़ गया है, जिसमें दोनों देश अपनी सीमाओं का दावा कर रहे हैं, जो उत्तर पश्चिमी पहाड़ी के महाकाली नदी बेसिन में लिपुलेख के पास का इलाका है, जो भारत, नेपाल और चीन तीनों की सीमाओं से लगा है। नेपाल की संसद में एक नए नक्शे को पास किया है जिसमें विवादित क्षेत्र को शामिल किया है,  जो भारत ने भी पिछले साल किया था।

हिंदू कुश हिमालय एशिया की 10 सबसे बड़ी नदियों का स्रोत है और जो विश्‍व की सबसे उच्च जैव विविधता क्षेत्र है। इस क्षेत्र में 36 में से चार वैश्विक जैव विविधता हॉटस्‍पॉट हैं और 35,000 से ज्‍यादा प्रजातियां और 200 से ज्‍यादा जीवों की विविधता मौजूद है। एक ओर यह क्षेत्र जैव विविधता में समृद्ध है, वहीं दूसरी ओर आपसी सहयोग और साहचर्य से प्राकृतिक संपदा को बचाने के लिए और इस पर आश्रित लाखों लोगों की आजीविका को बचाने में काफी पीछे है।

लुप्तप्राय स्नो लेपर्ड उन जानवरों में हैं जो हिमालय को जैव विविधता में समृद्ध बनाते हैं
लुप्तप्राय स्नो लेपर्ड उन जानवरों में हैं जो हिमालय को जैव विविधता में समृद्ध बनाते हैं [image by: Himachal Pradesh Wildlife Department]

विज्ञान भुगत रहा है

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के चौथे मूल्‍यांकन रिपोर्ट में वैज्ञानिक असहयोग का पता चला था। रिपोर्ट में कहा गया कि पूरे हिमालयन क्षेत्र में डाटा की कमी है  और समावेशी निगरानी व्‍यवस्‍था भी नहीं है, वो भी उस क्षेत्र में, जो ग्‍लोबल औसत से ज्‍यादा तेजी से गर्म हो रहा है। रिपोर्ट प्रकाशित होने के कॉपरेशन ऑफ रीजलन कमेटी पर्यावरणीय प्रभाव को मापने पर शोध करने में लग गई। लेकिन पिछले एक दशक में बहुत थोड़े प्रयास किए गए। 2014 में जब आईपीसीसी ने अपनी पांचवीं मूल्‍यांकन रिपोर्ट प्रकाशित की तब भी यही समस्‍या बनी रही।

अंतरराष्ट्रीय आलोचना ने इन सरकारों पर कुछ दबाव डाला, लेकिन इसके बावजूद भी कोई विशेष प्रगति देखने को नहीं मि‍ली और वैज्ञानिक समुदाय की चेतावनियों के बाद भी प्रमाण आधारित नीति निर्माण में भी कोई प्रगति नहीं दिखायी दी।

छोटे कदमों के साथ प्रगति

इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के वर्षों में थोड़ा सुधार हुआ है। नीदरलैंड में यूट्रेक्ट विश्वविद्यालय के हिमालयी जल विज्ञान विभाग का नेतृत्व कर रहे और कई वर्षों से हिमालय पर शोध कर रहे वाल्‍टर इमरजील का कहना हैं कि मेरे अनुभव से, क्षेत्र के अधिकांश वैज्ञानिक एक साथ मिलकर काम करते हैं और हमारे पास एक साझा लक्ष्य है, जो यह समझने की कोशिश कर रहा है कि वातावरण, क्रायोस्फीयर और जलमंडल कैसे आपस में संवाद करते हैं। इसके अलावा, हम सभी यह निर्धारित करना चाहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से क्षेत्र के जल संसाधनों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जो इस क्षेत्र में लाखों लोगों के लिए महत्वपूर्ण है। वह आगे कहते हैं कि निश्चित रूप से देशों के बीच डाटा साझा करने का एक पुराना मुद्दा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चीजें बेहतर हुई हैं, धीरे-धीरे  और हर कोई एक दूसरे की बाधाओं का सम्मान करता है।

देशों के बीच डाटा साझा करने की प्रक्रिया,  डाटा-गोपनीयता नीतियों की वजह से कमजोर और बाधित है। शोधकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता ओपन डाटा साझा करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों के साथ संबंधित सरकारें ऐसा करने से पीछे हट जाती हैं। कुछ वैज्ञानिकों का है कि कहने से ज्‍यादा सहयोग करना आसान है और सीधे तौर पर बोला जाए तो इस क्षेत्र में वैज्ञानिक सोच का अभाव है। समस्या यह है कि देश सोचते हैं कि कोई और व्यक्ति उस विज्ञान का उपयोग करेगा जैसा वे कर रहे हैं  और यह गलत है। नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री और एक प्रसिद्ध जल संसाधन विशेषज्ञ दीपक ग्यावली ने कहा कि विज्ञान अंततः सीमाओं से परे दूसरों को लाभान्वित करता है। इस क्षेत्र की कूटनीति में वैज्ञानिक संस्कृति को अभी स्थान दिया जाना है और यह एक बड़ी समस्या है।

पहाड़ों का सैन्यीकरण

यह क्षेत्र दुनिया में सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक है। अनुसंधान संगठन फ़ंड फ़ॉर पीस 2017 फ्रैज़ाइल स्टेट्स इंडेक्स ने एचकेएच क्षेत्र के आठ में से पांच देशों को अलर्ट का स्टेटस दिया। उसी वर्ष, थिंक-टैंक इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस ने आपसी शांति के संबंध में उनमें से चार देशों को कम से ज्यादा कम की श्रेणी में रखा।

2017 में प्रकाशित पत्र में आईसीआईएमओडी के महानिदेशक डेविड मोल्डन ने लिखा, “इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, साझा संसाधनों को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिए एक साथ काम करने से महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त हो सकते हैं जो देशों और दीर्घकालिक शांति निर्माण के बीच बेहतर समझ के सा‍थ तत्काल विकास के लाभ से आगे बढ़ते हैं।

हजारों किलोमीटर की सड़कें और सैन्य बुनियादी ढांचे हिमालय में पहले से मौजूद हैं। अरबों डॉलर का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना चल रही है, जो चीन के शिनजियांग प्रांत को अरब सागर में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ेगी और 3,000 किलोमीटर लंबी सड़कें, रेलवे और तेल पाइपलाइनें बिछा सकती है। इसी तरह, भारत का सीमा सड़क संगठन भी 3,400 किमी की रणनीतिक सीमा सड़कों का निर्माण कर रहा है।

पिछले साल प्रकाशित, शिक्षाविद् पीटर एंगेल्के और डेविड मिशेल ने अपनी पुस्तक इकोलॉजी में लिखा है, राजनीतिक नेता अंदर की समस्याओं से लोगों का ध्यान बांटने के लिए बाहरी खतरों का उपयोग करने में व्यस्त हैं। “बाहरी खतरे को शामिल करना राजनेताओं के लिए घरेलू आलोचना को दूर करने की एक बेहतर कोशिश होती है, खासकर हिमालयी एशिया के उन हिस्सों में जहां इस तरह के काम आसानी से किए जा सकते हैं।

विज्ञान पुलों को बनाता है

वेस्टर ने कहते हैं कि भले ही सरकारें पंगु हों, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि वैज्ञानिक सहयोग आगे भी छोटे-छोटे कदम उठाएंगे। “पिछले 37 वर्षों में आईसीआईएमओडी  स्थापित होने के बाद से, मुझे नहीं लगता कि सदस्य राष्ट्रों के बीच किसी भी तनाव ने हमारे काम को रोक दिया है लेकिन निश्चित रूप से चीजें थोड़ी मुश्किल हो सकती हैं”। “हालांकि, कोविड -19 ने दिखाया है कि यह पहले से कहीं ज्यादा जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि देश मौजूदा उथल-पुथल के बावजूद सहयोग को बढ़ावा देते रहेंगे।“

दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक महाराज के. पंडित ने लिखा कि एचकेएच क्षेत्र की आबादी लगभग 250 मिलियन है और लगभग दो अरब लोग हैं जो उन नदियों पर निर्भर हैं और उनसे होकर और नीचे बहती हैं। यह विशेष रूप से जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्र है। ये सभी खतरे में हैं। “सैन्यीकरण, भूमि उपयोग में बदलाव  और हिमालय के आसपास के विनाश और विखंडन से कई प्रजातियों की छोटी आबादी के विलुप्त होने की आशंका है। कूटनीति उनकी एकमात्र उम्मीद है।“

अंतहीन सीमा विवादों के अलावा, विशेषज्ञों का मानना है कि महामारी के मद्देनजर वैश्विक सहायता व्यवस्था में बदलाव से अंतरसीमा वैज्ञानिक सहयोग पर असर पड़ेगा। “सहयोग की वर्तमान रूपरेखा न केवल सीमा तनाव के कारण हैं बल्कि वायरस-प्रेरित आर्थिक उथल-पुथल के कारण भी बदल सकती है, विशेष रूप से पश्चिम में, जो कई सीमा पहल का समर्थन करने के लिए महत्वपूर्ण रही है। ग्‍यावली ने कहा कि सदस्य देशों से अधिक धनराशि की संभावना नहीं है  क्योंकि वायरस की चपेट में और पश्चिम से कम ब्याज या समर्थन प्राप्त होता है, इसी कारण से विज्ञान निश्चित रूप से प्रभावित होने वाला है।

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