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विश्लेषण: नए फ़ॉरेस्ट कंज़र्वेशन बिल से खतरे में भारत के हिमालयी जंगल

भारतीय संसद वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसको लेकर एक्टिविस्ट्स, शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों के बीच काफी चिंताएं हैं। इन संशोधनों का विरोध करने वालों का तर्क है कि इससे भारत के हिमालयी जंगल खतरे में पड़ जाएंगे।
<p>यह एक नया विधेयक है। इससे उन &#8216;लीनियर प्रोजेक्ट्स&#8217; (जैसे राजमार्गों) के लिए वन संरक्षण निगरानी की जरूरत खत्म हो जाएगी जो भारत की विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी के भीतर हैं। (फोटो: जरोस्लाव ज़क/ अलामी)</p>

यह एक नया विधेयक है। इससे उन ‘लीनियर प्रोजेक्ट्स’ (जैसे राजमार्गों) के लिए वन संरक्षण निगरानी की जरूरत खत्म हो जाएगी जो भारत की विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी के भीतर हैं। (फोटो: जरोस्लाव ज़क/ अलामी)

भारतीय संसद के निचले सदन, यानी लोकसभा ने, विरोध के बीच, 26 जुलाई, 2023 को, देश के वन संरक्षण अधिनियम यानी फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट (एफसीए) 1980 में संशोधन करने के लिए एक बिल पारित कर दिया। एफसीए को मूल रूप से, जंगलों की भूमि के औद्योगिक उपयोग- मसलन, खनन या जलविद्युत- को विनियमित करने के उद्देश्य से लागू किया गया था। इसको लागू करने के पीछे एक उद्देश्य यह भी था कि इस तरह के दोहन पर एक कीमत तय हो सके। 

राज्यसभा यानी संसद के ऊपरी सदन में इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद यह अधिनियम यानी कानून बन जाएगा। 

अगर ऐसा हो जाता है तो किसी भूमि को किस तरह से परिभाषित किया जाना है और किस तरह से उसका उपयोग किया जाना है, इससे संबधित नियम-कानून बदल जाएंगे। यह सब एक संयुक्त समिति के माध्यम से संभव हो जाएगा जिसमें तकरीबन सभी सदस्य सत्तारूढ़ दल के ही शामिल रहे हैं। 

इन परिस्थितियों में, पर्यावरणविदों और मूल रूप से जंगलों में रहने वाले समुदायों के बीच चिंता बढ़ रही है।

क्या हैं बदलाव 

पेश किया गया, वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023, उस भूमि से संबंधित है जिसे 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के तहत, जंगल के रूप में परिभाषित किया गया था। इसमें जंगलों को ‘संरक्षित’ या ‘आरक्षित’, या एफसीए 1980 के प्रभाव में आने के बाद सरकारी रिकॉर्ड के रूप में परिभाषित करने की प्रक्रियाएं शामिल थीं। 

भारत में जंगलों की विधायी तौर पर कोई परिभाषित, परिभाषा नहीं है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि “वन” शब्द को उसके “शब्दकोश के अर्थ” के अनुसार समझा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से कहा गया है कि सभी वन – चाहे नामित यानी डेजिग्नेटेड हों या नहीं – एफसीए के दायरे में आते हैं। 

इस बारे में 1996 के गोदावर्मन फैसले में सबसे स्पष्ट रूप से कहा गया था, जिसके मुताबिक, जंगलों के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में अधिनियमित प्रावधान और उससे जुड़े मामले, स्वामित्व या वर्गीकरण के बावजूद समझे जाने वाले सभी जंगलों पर स्पष्ट रूप से लागू होने चाहिए।

लेकिन नया बिल गोदावर्मन फैसले के बिल्कुल उलट दिशा में जा रहा है। इसका मतलब है कि निजी वन भूमि और भूमि का कोई भी टुकड़ा जो वन है – लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है – एफसीए के तहत प्राप्त सुरक्षा खो देगा।

सबसे अहम बात यह है कि “लीनियर प्रोजेक्ट्स” – जैसे कि रेलवे ट्रैक, ट्रांसमिशन लाइनें और राजमार्ग – जो “राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित” हैं, उन्हें फॉरेस्ट कंजर्वेशन स्क्रूटनी से छूट दी जाएगी यदि वे भारत की सीमा के 100 किमी के भीतर आते हैं। 

इस तरह की छूट, रक्षा परियोजनाओं, अर्धसैनिक शिविरों और सार्वजनिक उपयोगिता वाली परियोजनाओं पर भी लागू होंगी। यह अलग बात है कि सार्वजनिक उपयोगिता वाली परियोजनाएं, अपरिभाषित हैं।

एफसीए के तहत अब तक प्राप्त सुरक्षा खोने का मतलब है कि ऐसी भूमि अब प्री-क्लीयरेंस जांच के अधीन नहीं रहेगी। इसका साफ मतलब यह है कि अब मूल रूप से जंगलों में रहने वाले समुदायों से सहमति लेने या नष्ट हुए पारिस्थितिकी तंत्र के लिए प्रावधान करने की जरूरत नहीं रहेगी। 

यह विधेयक इको-टूरिज्म क्षेत्रों और चिड़ियाघरों जैसी गतिविधियों के लिए जंगलों को भी खोल देता है। जबकि भारत के पास सस्टेनेबल ईकोटूरिज्म पर एक नीति है। जबकि सच यह है कि शोध से पता चलता है कि “ईकोटूरिज्म केंद्रों में वन हानि की दर, गैर-ईकोटूरिज्म क्षेत्रों की तुलना में अधिक थी।”

संशोधन का विरोध

इन संशोधनों का विरोध करने वालों में, विपक्षी दलों के सदस्य, भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी, और पर्यावरणविद व एक्टिविस्ट शामिल हैं। ये सभी विभिन्न वजहों से इसका विरोध कर रहे हैं। 

इसको लेकर, द् थर्ड पोल ने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के पूर्व निदेशक असद रहमानी से बात की। रहमानी का कहना है कि भारत की राष्ट्रीय सीमा के 100 किमी के भीतर स्थित जंगलों में, विकास परियोजनाओं के लिए सरकार या अदालत की मंजूरी को छोड़ना “बहुत खतरनाक” है। रहमानी बताते हैं कि हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा सीमा के 100 किमी के भीतर आ जाएगा। भारत की सीमाएं भूमि पर 15,106.7 किमी तक फैली हुई हैं और इसकी तटरेखा द्वीप क्षेत्रों सहित 7,516.6 किमी तक फैली हुई है।

The team from Thanamir village on the way to set up camera traps to monitor wildlife in the community forest, Ramya Nair
नागालैंड के थानामीर गांव के निवासी, सामुदायिक जंगल में वन्यजीवों की निगरानी के लिए कैमरा ट्रैप की व्यवस्था कर रहे हैं। राज्य का आधे से अधिक भाग जंगल से ढका हुआ है। इसका अधिकांश हिस्सा भारत-म्यांमार सीमा के 100 किमी के भीतर है। (फोटो: रम्या नायर)

कानूनी मुद्दों और नीतियों पर शोध करने वाली और डेवलपमेंट ऑफ एनवायरनमेंट लॉज इन इंडिया की लेखिका, कांची कोहली ने द् थर्ड पोल से कहा कि संशोधन बड़ी तस्वीर देखने में विफल है। उनका कहना है कि हालांकि सीमावर्ती क्षेत्रों की राजनीतिक सुरक्षा चिंताओं को कमतर नहीं आंका जा सकता है, लेकिन आंतरिक और बाहरी सुरक्षा, दोनों को समझने का एक प्रगतिशील तरीका फ्रेमवर्क के भीतर पारिस्थितिकी और सामाजिक चुनौतियों को भी शामिल करना है।

यह जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता संकट के संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जिसने विभिन्न सीमाओं के आर-पार आपदाओं को प्रेरित किया है। कोहली का कहना है कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समझौते जरूरी हैं।

वहीं, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में द् क्लाइमेट एंड इकोसिस्टम्स लीड,  देबादित्य सिन्हा, “सार्वजनिक उपयोगिताओं” यानी पब्लिक यूटिलिटीज के लिए संशोधन की योजना रियायतों के बारे में चिंतित हैं। सिन्हा कहते हैं कि यह शब्द बहुत व्यापक है: “पब्लिक यूटिलिटीज की व्यापक समझ बैंकों, अस्पतालों और पार्किंग स्थलों से लेकर हवाई अड्डों तक कई परियोजनाओं को कवर कर सकती है।”

निजी जंगलों को लेकर चिंता

संयुक्त संसदीय समिति को अपने सबमिशन में, हिमाचल प्रदेश स्थित, एडवोकेसी ग्रुप, हिमधारा ने इस बात पर प्रकाश डाला कि किस तरह से कई हिमालयी राज्यों में भूमि को रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया अनियमितताओं से भरी हुई है। इसमें हिमाचल भी शामिल है, जहां औपनिवेशिक युग के भूमि हस्तांतरण के कारण, 50 फीसदी से अधिक भूमि निजी व्यक्तियों की है।

यदि इन जंगलों के तथाकथित ‘मालिकों’ को संरचनाएं खड़ी करने की खुली छूट दे दी गई तो संभावित टकराव बढ़ जाएगा। इसको देखते हुए एक व्यापक समझ की आवश्यकता है।  
हिमधारा, एनवायरनमेंटल एडवोकेसी ग्रुप

हिमधारा के सबमिशन में एक पर्यावरण अध्ययन की मांग की गई है, जिसमें कहा गया है कि निजी और डीम्ड जंगलों पर एफसीए के एप्लीकेशन को बदलने से पहले [ऐसे क्षेत्र जो जंगली दिखते हैं लेकिन इस तरह वर्गीकृत नहीं हैं], सामाजिक-आर्थिक और इकोलॉजिकल सर्विसेस की एक विस्तृत समझ की आवश्यकता है। ये निजी और डीम्ड वन अलग-अलग संदर्भों में अपनी भूमिका निभाते हैं। और यदि इन जंगलों के तथाकथित ‘मालिकों’ को संरचनाएं खड़ी करने की खुली छूट दे दी गई तो संभावित टकराव बढ़ जाएगा।

विकास बनाम जलवायु 

18 जुलाई को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में, कई एक्टिविस्ट और कैंपेन ग्रुप्स ने अपने विरोध को रेखांकित किया। इनमें इंडीजीनियस रिसर्च एंड एडवोकेसी ग्रुप, दिबांग अरुणाचल प्रदेश भी शामिल था। इसके सह-संस्थापक भानु ताटक का कहना है कि यह विधेयक, संवेदनशील जंगलों के रास्ते बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण को बढ़ावा देगा। हमारे सीमावर्ती क्षेत्रों में पूर्वोत्तर भारत के कुछ सबसे अधिक जैव विविधता से समृद्ध वन और संरक्षित क्षेत्र इसमें शामिल हैं।

भारत की सीमावर्ती भूमि की जैव विविधता में वनस्पतियों और जीवों की स्थानिक प्रजातियों के साथ-साथ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, रेड पांडा, हिम तेंदुए, कश्मीर हिरण, तिब्बती मृग, मार्खोर और हूलॉक गिब्बन सहित लुप्तप्राय प्रजातियां शामिल हैं।

जंगलों के मूल निवासियों और ग्राम परिषदों को बाहर रखा गया

एफसीए की मौजूदा फॉरेस्ट क्लीयरेंस प्रक्रियाओं में, प्रदूषण और जंगल के नष्ट होने को सीमित करने वाले आदेशों को पूरा करना शामिल है। साथ ही, यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि संबंधित भूमि के उपयोग पर कोई टकराव नहीं है। 

इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए इसे दो चरणों में विभाजित किया गया है। इनमें से एक चरण में वन भूमि पर निवासियों की सहमति की आवश्यकता होती है। भूमि के बड़े हिस्से को इस प्रक्रिया से छूट देकर, नया बिल इस सहमति को हटा देता है, भले ही 2006 के वन अधिकार अधिनियम में वन भूमि पर स्थानीय समुदाय कानूनी रूप से इसके हकदार हैं।

संशोधन में ग्राम सभाओं (निर्वाचित ग्राम परिषदों) या जंगलों में रहने वाले मूल निवासियों का उल्लेख नहीं है, न ही यह उन्हें वन मंजूरी प्रक्रियाओं में शामिल करने के उपाय प्रदान करता है। अरुणाचल प्रदेश सहित पूर्वोत्तर भारत के जंगलों में रहने वाले मूल समुदायों ने युगों से इन जंगल की रक्षा की है। ताटक कहते हैं, ”हम भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों को हमारी पारिस्थितिक विरासत को नष्ट नहीं करने देंगे।”

हिमालयी राज्यों को अधिक खतरा क्यों है?

पिछले वर्षों की तरह, 2023 में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे भारत के पहाड़ी राज्य, भारी बाढ़ और भूस्खलन की चपेट में हैं। जलवायु परिवर्तन में तेजी के साथ ही, हिमालयी क्षेत्र, भयानक हीटवेव और खतरनाक भारी बारिश का सामना कर रहे हैं। एफसीए संशोधनों का इन क्षेत्रों के पर्यावरणीय स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ना तय है।

भारतीय वन सर्वेक्षण की इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021 में पहली बार जंगलों में ‘क्लाइमेट हॉटस्पॉट‘ को देखा गया। इन्हें तापमान और वर्षा, दोनों में उच्च भिन्नता प्रदर्शित करने वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया था। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में जलवायु हॉटस्पॉट की घटनाएं बहुत अधिक पाई गईं। ये वे राज्य भी हैं जिनके साथ चीन और पाकिस्तान की सीमाएं लगी हुई हैं। यह हिमालय क्षेत्र के साथ कुल मिलाकर लगभग 4,000 किमी और 750 किमी तक फैली हुई हैं। इन सीमाओं को लेकर विवाद भी होते रहते हैं। 

इन सीमाओं के 100 किमी के भीतर ‘लीनियर प्रोजेक्टस’ को वन कानूनों से छूट देते हुए, इस नये विधेयक में महत्वपूर्ण वन क्षेत्रों – जिन्हें राज्य ने स्वयं जलवायु हॉटस्पॉट के रूप में पहचाना है – को संरक्षण निरीक्षण यानी कंजर्वेशन ओवरसाइट से छूट देने का प्रयास किया गया है।

भारतीय हिमालय दो वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट, हिमालय और भारत-म्यांमार का हिस्सा है। इसने भारत के राष्ट्रीय हिमालयी जैव विविधता मिशन को प्रेरित किया और उन्हें जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना का अभिन्न अंग बनाया। एफसीए संशोधन के आलोचकों का कहना है कि यह इन मिशनों के घोषित उद्देश्यों के साथ असंगत है।

हिमालयी इकोसिस्टम को बनाए रखने के लिए भारत का राष्ट्रीय मिशन

हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (एनएमएसएचई) को भारत के आठ राष्ट्रीय मिशनों में से एक के रूप में पहचाना गया था जब जलवायु परिवर्तन पर 2008 में इसकी राष्ट्रीय कार्य योजना शुरू की गई थी।

यह हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी और जैव विविधता को देखते हुए उस पर विशेष जोर देता है। यह मिशन पर्वतीय प्रणालियों के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए मजबूत वैज्ञानिक अध्ययन करने के साथ-साथ साक्ष्य-आधारित नीतिगत उपायों को तैयार करने के लिए अनुसंधान विकसित करने की सिफारिश करता है।

एनएमएसएचई राज्य स्तर पर “समयबद्ध” कार्य योजना तैयार करने की भी सिफारिश करता है।

भारत ने ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क पर हस्ताक्षर भी किया हुआ है। यह ग्लोबल बायोडायवर्सिटी का 8 फीसदी और चार क्रॉस-बॉर्डर ग्लोबल बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट्स का घर है। इसे उच्च स्तर की प्रजातियों की स्थानिकता वाला क्षेत्र माना जाता है। सिन्हा इस बात पर जोर देते हैं कि भारत के वन्य जीव-समृद्ध सीमावर्ती क्षेत्रों में एफसीए की नियामक निगरानी आवश्यक है।

उनका कहना है कि यदि कोई प्रजाति किसी क्षेत्र के लिए स्थानिक है, तो उस विशेष जिले में जंगल की देखभाल और प्रबंधन के लिए जिम्मेदार एक वरिष्ठ अधिकारी- प्रभागीय वन अधिकारी- एक रिपोर्ट तैयार करें और इसे [पर्यावरण] मंत्रालय को भेजें। यदि क्षेत्रों को पूर्ण अधिकार वाले क्षेत्र के दायरे से बाहर रखा गया है, तो कुछ भी निर्माण किया जा सकता है।

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