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विशेषज्ञों का कहना है कि प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता को और भी बढ़ाया जा सकता था

प्रोजेक्ट टाइगर शुरू होने के 50 साल बाद, भारत दुनिया के 75 फीसदी जंगली बाघों का घर है लेकिन शोधकर्ता एक नए दृष्टिकोण की वकालत करते हैं, जो अन्य प्रजातियों और वन समुदायों के अधिकारों के लिहाज से बेहतर साबित हो सकता है।
<p>दुनिया में जंगली बाघों की सबसे बड़ी आबादी भारत में है (फोटो: आदित्य डिक्की सिंह / अलामी )</p>

दुनिया में जंगली बाघों की सबसे बड़ी आबादी भारत में है (फोटो: आदित्य डिक्की सिंह / अलामी )

भारत में प्रोजेक्ट टाइगर को शुरू हुए 50 साल से अधिक हो चुके हैं। मौजूदा वक्त में भारत, दुनिया के 75 फीसदी जंगली बाघों का घर है। बाघों की स्थिति को लेकर 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 से 2022 के बीच इनकी संख्या 2,967 से बढ़कर 3,167 हो गई है। हालांकि यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि संख्या में बढ़ोतरी के बावजूद यह तथ्य पीछे छूट जाता है कि यह इजाफा भारत में हर जगह नहीं है। 

इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बाघों के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करने में अन्य लुप्तप्राय प्रजातियों और जंगल में रहने वाले मानव समुदायों की उपेक्षा की गई है। बावजूद इन सबके, जंगली बाघों की संख्या बढ़ाने के मामले में भारत की सफलता निर्विवाद है। 

जंगली बाघों के संरक्षण के लिए समर्पित एक इंटरनेशनल बॉडी, ग्लोबल टाइगर फोरम के सेक्रेटरी जनरल, राजेश गोपाल कहते हैं, “भारत, बाघ संरक्षण के क्षेत्र में अग्रणी है। अन्य देश – बाघ और गैर-बाघ श्रेणी के देश – ऐसी संख्या लाने के लिए भारत के प्रयासों और उपयोगी अनुभवों की ओर देख रहे हैं।” 

प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत कैसे हुई?

साल 1972 से बाघों की संख्या में बड़ा बदलाव आया है, जब पहली बार पूरे भारत में बाघों की गणना हुई थी तो उस समय इनकी संख्या केवल 1,827 आई थी। यह संख्या बीसवीं सदी की शुरुआत में अनुमानित 40,000 की संख्या से काफी कम थी। 

भारत सरकार ने 1972 में वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम लागू करके प्रोजेक्ट टाइगर के दिशा में ठोस प्रयास शुरू किए। यह देश के जंगली जानवरों, पक्षियों और पौधों की प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करता है। 

विशेष रूप से बाघों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोजेक्ट टाइगर लॉन्च किया, जिसका उद्देश्य बिग कैट के लिए वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र बनाना था। इसमें ‘कोर’ जोन हैं जहां किसी भी मानव गतिविधि की अनुमति नहीं है, और इनके आसपास ‘बफर’ जोन हैं, जहां अनुमति के साथ कुछ मानव गतिविधियां हो सकती हैं। 

अपने उद्घाटन संदेश में 26 मार्च, 1973 को श्रीमती गांधी ने कहा था कि बाघों को अलग-थलग करके संरक्षित नहीं किया जा सकता। यह एक बड़े और जटिल बायोटोप (बायोटोप को एक भौगोलिक क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें जैविक पर्यावरण एक समान है, और वनस्पतियों व जीवों का वितरण भी एक समान है) के शीर्ष पर है। इनके निवास स्थान यानी हैबिटेट को इंसानों की घुसपैठ, वाणिज्यिक वानिकी और मवेशियों की चराई से खतरा है। सबसे पहले इसको दुरुस्त करने की जरूरत है।

प्रोजेक्ट टाइगर के प्रमुख चुनौतियों में बड़े पैमाने पर अवैध शिकार के साथ-साथ निवास स्थान का नुकसान भी था। इसके लिए ‘कोर’ जोन बनाया गया जिससे बाघों की निगरानी की जा सके। साथ ही, उनके आवास की सुरक्षा की जा सके। प्रोजेक्ट टाइगर के जरिए इन खतरों का हल निकाला गया। 

इन प्रयासों के तुरंत बाद, बाघों की आबादी बढ़ने लगी और बाघ अभयारण्यों की संख्या 1973 में नौ थी जो बढ़कर 2022 में 53 हो गई है।

लेकिन यह हमेशा इतना आसान नहीं रहा है। इस परियोजना को 2005 में अब तक की सबसे बड़ी सार्वजनिक आपदा का सामना करना पड़ा, जब सरिस्का बाघ अभयारण्य के सभी बाघों का – लगभग 20 गायब हो गए – संभवतः शिकार हो गया। 

इसके जवाब में, भारत सरकार वन्य जीवन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 लाया गया। इस संशोधन तक, बाघ अभयारण्य, प्रशासनिक इकाइयां थीं, जिनका सरकारी वित्त पोषण होता था। लेकिन अब वे कानूनी रूप से परिभाषित स्थान भी बन गए हैं। 

इस संशोधन ने एक राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की भी स्थापना की। एनटीसीए के पास अवैध शिकार की जांच करने का अधिकार है। टाइगर टास्क फोर्स की स्थापना के माध्यम से बाघों की आबादी को संरक्षित करने का अधिकार है। इसके अलावा, एनटीसीए को, डेजिग्नेटेड ‘प्रोटेक्टेड एरियाज’ यानी नामित ‘संरक्षित क्षेत्रों’ से गांवों के पुनर्वास के लिए, धन उपलब्ध कराने का अधिकार दिया गया है। 

टाइगर टास्क फोर्स ने, भारत में बाघ संरक्षण को प्रभावित करने वाले प्रमुख मुद्दों पर गौर किया। इन मुद्दों में प्रणालीगत संस्थागत विफलता, बाघों की संख्या की गलत रिपोर्टिंग और बाघ संरक्षण योजना के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता इत्यादि शामिल हैं। 

टास्क फोर्स की सिफारिशों में कैमरा ट्रैप, भौगोलिक सूचना प्रणाली और ग्लोबल पोजीशन सिस्टम डेटा का उपयोग करना था। 2004 तक इस्तेमाल किए गए पिछले तरीकों से डेटा की गुणवत्ता में अंतर – जो काफी हद तक बाघों के पदचिह्न, मल और अन्य संकेतों पर निर्भर था – बहुत महत्वपूर्ण रहा।

भारतीय वन्यजीव संस्थान-एनटीसीए टाइगर सेल के एक नोडल अधिकारी, क़मर क़ुरैशी, जो कि निगरानी तकनीक के पीछे अग्रणी वैज्ञानिक थे, और इन प्रगतियों को शामिल करने वाली 2008 की बाघ निगरानी रिपोर्ट के एडिटर्स में से एक थे, कहते हैं, “प्रोजेक्ट टाइगर ने पूरे वन विभाग को आधुनिक वैज्ञानिक सोच में ला दिया।”

प्रोजेक्ट टाइगर के बावजूद शिकार का खतरा अब भी बना हुआ है

इन सब बदलावों के बावजूद, अवैध शिकार का खतरा बना हुआ है। एक एनजीओ, ट्रैफिक की 2022 की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2000 और 2022 के बीच भारत में अवैध व्यापार से संबंधित 893 बाघों को जब्त किया गया था। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया (डब्ल्यूपीएसआई), नामक एक एनजीओ, जो पुलिस को अवैध शिकार से निपटने के लिए खुफिया जानकारी प्रदान करता है, द्वारा इकट्ठा किए गए डेटा से पता चलता है कि अभी हाल के वर्षों में भी दर्जनों बाघ मारे गए हैं।

डब्ल्यूपीएसआई के कार्यक्रम प्रबंधक टीटो जोसेफ कहते हैं,“संगठित और मौका पाकर शिकार करने वाले दोनों तरह के शिकारियों दोनों के कारण हर साल कई बाघों की मौत की सूचना मिलती है। जब तक देश के बाहर, बाघ के शरीर के अंगों की मांग बनी रहती है, तब तक संगठित अवैध शिकार फलता-फूलता रहता है।” 

वह यह भी कहते हैं कि कुछ बाघ भी, जब शिकार के लिए बाहर आते हैं, तो उस समय ग्रामीणों द्वारा जानवरों को पकड़ने के लिए लगाए गए जाल का शिकार हो जाते हैं।  

जोसेफ स्वीकार करते हैं कि एनटीसीए, वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो, राज्य वन विभाग और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा उठाए गए सहयोगात्मक कदमों के कारण पिछले दशक के दौरान अवैध शिकार पर अंकुश लगाने में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। वह हालांकि यह भी कहते हैं कि जब विभिन्न राज्य सरकारों और भारत के पड़ोसी देशों के साथ जानकारी साझा करने की बात आती है तो अभी भी कमियां मौजूद हैं।

 जोसेफ बताते हैं, “हमें इनमें से प्रत्येक मामले की गहराई से जांच करने के लिए अपनी जानकारी पड़ोसी देशों के साथ साझा करने की जरूरत है। इससे पता चल सकता है कि ऐसा व्यापार क्यों हो रहा है, शरीर के अंग कहां जा रहे हैं और कौन खरीद रहा है इत्यादि।” वह कहते हैं कि ऐसा करने का एक तरीका, वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन के तहत, मैकेनिज्म के उपयोग का है। वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन, अवैध व्यापार को खत्म करने के लिए सरकारों के बीच एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है। 

हालांकि, ऐसा सहयोग अच्छे राज्य-दर-राज्य संबंध पर निर्भर है। गुवाहाटी स्थित कंजर्वेशन से जुड़े एक एनजीओ, अरण्यक के लीगल एंड एडवोकेसी डिवीजन के सीनियर मैनेजर जिमी बोरा कहते हैं कि भारत और भूटान व भारत और बांग्लादेश के बीच, एक-दूसरे को सूचना साझा करने का काम अच्छा चल रहा है। हालांकि, म्यांमार के साथ हमारा ट्रांस बाउंड्री कंजर्वेशन, वहां हालिया तख्तापलट के कारण प्रभावित हो रहा है।

टाइगर रिकवरी पूरे भारत में समान नहीं है

राजनीतिक स्थिरता का एक आंतरिक आयाम भी होता है। ‘स्टेटस ऑफ टाइगर्स रिपोर्ट’ 2022 में कहा गया है कि बाघों की आबादी में बढ़ोतरी ज्यादातर देश के पश्चिमी हिस्से में हुई है। वहीं, “झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बाघों की आबादी में सुधार के लिए गंभीर संरक्षण प्रयासों की आवश्यकता है।”

मध्य, पूर्वी और दक्षिणी राज्य भी लंबे समय से चल रहे चरम वामपंथी विद्रोह की जमीन रहे हैं। जैसा कि 2021 के पेपर नोट्स में कहा गया है कि इस स्थिति ने बाघों के संरक्षण से संबंधित कानूनों सहित अन्य कानूनों को लागू करने के लिए चुनौतियां पैदा की हैं। ऐसी समस्याएं केवल बाघों के मामले में अनोखी नहीं हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ नेपाल में भी उग्रवाद के हालात, गैंडों के अवैध शिकार में भारी बढ़ोतरी को दर्शाता है। 

अगर एक बड़े लैंडस्केप या पूरे भारत में बाघों की कुल आबादी कम हो रही है तो महज कुछ संरक्षित क्षेत्रों में इनकी संख्या में बढ़ोतरी को संरक्षण की सफलता का सही पैमाना नहीं माना जा सकता। 
रज़ा काज़मी, वाइल्ड लाइफ हिस्टोरियन

वाइल्ड लाइफ हिस्टोरियन, रज़ा काज़मी कहते हैं, ”1972 में, इन राज्यों में देश की बाघों की आबादी का लगभग आधा हिस्सा था।”

रिपोर्ट में उजागर की गई एक और समस्या यह है कि दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट लैंडस्केप, जैसे संरक्षित क्षेत्रों में बाघों की आबादी स्थिर रह सकती है या बढ़ सकती है, लेकिन इन अभयारण्यों के बाहर संख्या कम हो रही है, जहां भारत के अनुमानित 35 फीसदी बाघ रहते हैं। काज़मी का मानना है कि अगर एक बड़े लैंडस्केप या पूरे भारत में बाघों की कुल आबादी कम हो रही है तो महज कुछ संरक्षित क्षेत्रों में इनकी संख्या में बढ़ोतरी को संरक्षण की सफलता का सही पैमाना नहीं माना जा सकता। 

बाघों को ‘विकास’ से बचाना जरूरी हो गया है

एक बड़ी चुनौती, कानून होने के बावजूद, बड़े क्षेत्रों को वन क्षेत्र के अंतर्गत बनाए रखना है, खासकर उस स्थिति में जब विकास से संबंधित लक्ष्यों के प्राप्त करने के लिए इससे तीव्र टकराव की स्थिति उत्पन्न हो रही हो। 

उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क के मामले में, 2022 की ‘स्टेटस ऑफ टाइगर्स रिपोर्ट’ में साफ तौर पर कहा गया है कि राजा जी नेशनल पार्क के पश्चिमी और पूर्वी हिस्से के बीच भीड़भाड़ वाले गलियारे में, इस क्षेत्र के बड़े मांसाहारी पशुओं और हाथियों की आवाजाही तकरीबन विलुप्त हो गई है। इसकी वजह लीनियर इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स जैसे राजमार्ग इत्यादि हैं। इस खंडित लैंडस्केप में बाघों की आबादी को फिर से हासिल करने के लिए ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर को अपनाने की आवश्यकता है।


मुद्दे का मूल, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और साथ ही कानूनों का लगातार कमजोर होते जाना है। 
प्रेरणा बिंद्रा, कंजर्वेशनिस्ट

वन और पर्यावरण के लिए लीगल इनीशिएटिव की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) की स्थायी समिति ने अकेले वर्ष 2021 की पहली छमाही में अपनी चार बैठकों में लीनियर और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए नौ परियोजनाओं के तहत बाघों के आवास से 780.24 हेक्टेयर भूमि को डायवर्ट कर दिया था

एक प्रमुख कंजर्वेशनिस्ट, प्रेरणा बिंद्रा, जो पूर्व में एनबीडब्ल्यूएल की स्थायी समिति में कार्यरत थीं, द् थर्ड पोल को बताती हैं, “अगर बाघों के आवास खंडित होते रहे, तो हमारे बाघ और तेंदुए कहां जाएंगे? इसकी वजह से, [मनुष्यों के साथ] संघर्ष होंगे।”

वह आगे कहती हैं, “मुद्दे का मूल राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है [साथ ही] कानूनों का लगातार कमजोर होना भी है, [जैसे] वन (संरक्षण अधिनियम, 1980) में प्रस्तावित संशोधन; और राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड जैसे संस्थान, बाघों के आवासों में विनाशकारी विकास परियोजनाओं को स्थापित करवा देते हैं।”

क्या बाघों के संरक्षण से अन्य जीवों को लाभ होता है?

प्रोजेक्ट टाइगर का उद्देश्य बाघों को बचाना और इसके जरिए बड़े पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने में मदद करना था। 

लेकिन 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि देश की आजादी के बाद से, बाघों ने अनुसंधान पर अपना दबदबा बना लिया है। और यह रेगिस्तानी लोमड़ी, रेगिस्तानी बिल्ली, धारीदार लकड़बग्घा और भारतीय भेड़िया, जैसी कम करिश्माई प्रजातियों की कीमत पर हुआ है। इन्हें संरक्षण कानूनों से उतना लाभ नहीं हुआ है।

सौम्य बनर्जी, एक शोधकर्ता हैं, जिन्होंने पहले सुंदरबन टाइगर रिजर्व में काम किया है, द् थर्ड पोल को बताते हैं कि इसमें शामिल मुद्दों में, अन्य लुप्तप्राय प्रजातियों पर  ध्यान देना, पैसे का इंतजाम और आवास हैं जो केवल बाघ रिजर्व के रूप में संरक्षित क्षेत्रों के साथ ओवरलैप होते हैं। 

बनर्जी ने यह भी कहा, “कुछ बाघ अभयारण्य ऐसे हैं जहां भूमि के कुछ हिस्सों पर बाघों का कब्जा नहीं है जैसे कि ड्राईलैंड हैबिटेट्स। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड या लेसर फ्लोरिकन यानी खरमोर पक्षी जैसी प्रजातियां [जो लुप्तप्राय प्रजातियां भी हैं] इन क्षेत्रों में पनपती हैं। लेकिन इनको बाघ के समान सुरक्षा नहीं दी जाती है।

Black Capped Kingfisher perched on thin tree branch, such fauna are not the focus of Project Tiger
सुंदरबन बाघ अभयारण्य में ब्लैक कैप्ड किंगफिशर (फोटो: अलामी)

बनर्जी कहते हैं कि मूल मुद्दा यह है कि वन विभाग की संरक्षण प्रबंधन योजना, मुख्य रूप से संरक्षित क्षेत्रों में काम करती है। जबकि कुछ ऐसे लुप्तप्राय जानवर हैं, जैसे कि भेड़िये और ऊदबिलाव की कुछ प्रजातियां, जो ज्यादातर संरक्षित क्षेत्रों के बाहर और एंथ्रोपोलॉजिकल गड़बड़ियों की वजह से हैबिटेट्स में पलती-बढ़ती हैं।   

उनका सुझाव है कि योजना में “बाघ अभयारण्य के पास स्थित भूमि और दूर स्थित भूमि के हिस्से भी शामिल होने चाहिए जो विभिन्न पारिस्थितिकी और एंथ्रोपोलॉजिकल कारकों के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं।” इससे उन प्रजातियों को मदद मिलेगी जिनके आवास बाघों से बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं।

हालांकि, अब तक, विपरीत ही प्रतीत होता है। राजकमल गोस्वामी और अबी टी वनक द्वारा वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 (सबसे संरक्षित श्रेणी) में सूचीबद्ध 43 स्तनपायी प्रजातियों का एक चौंकाने वाला विश्लेषण यह रेखांकित करता है कि अन्य प्रजातियों पर ध्यान देना इतना आवश्यक क्यों है। विश्लेषण में पाया गया कि, 43 प्रजातियों में से, 37 (86 फीसदी) खतरे में हैं और 32 (74 फीसदी) में गिरावट जारी है, जबकि प्रोजेक्ट टाइगर आगे बढ़ रहा है। उनका कहना है कि इनमें से मालाबार सिवेट संभवतः विलुप्त हो चुका है।

बेंगलुरु स्थित संरक्षण संगठन, एटीआरईई के वरिष्ठ संरक्षण जीवविज्ञानी, गोस्वामी कहते हैं कि बाघों की लुप्तप्राय प्रजातियां हैं [लेकिन] चीनी पैंगोलिन और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियां हैं। उनकी वर्तमान स्थिति के अनुपात में… उनकी सुरक्षा के लिए दिया जाने वाला धन बहुत कम है। 

अब भी संरक्षण की कीमत चुका रहे हैं मूल निवासी 

बाघ की तुलना में, अगर अन्य प्रजातियों की उपेक्षा की गई है, तो पारंपरिक रूप से बाघ अभयारण्यों में और उसके आसपास रहने वाले समुदाय खुद को अधर में पाते हैं। 

पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले पुणे स्थित एक सिविल सोसाइटी ऑर्गनाइजेशन, कल्पवृक्ष के एक शोधकर्ता अक्षय छेत्री ने द् थर्ड पोल को बताया कि पुनर्वास के लिए पहचाने गए महत्वपूर्ण बाघ आवासों में से 751 गांवों में से केवल 177 को स्थानांतरित किया गया है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि एनटीसीए के आंकड़ों के अनुसार, सभी गांव मुख्य क्षेत्रों में नहीं हैं। 

छेत्री कहते हैं, ”सरकार ने मुख्य क्षेत्रों के लिए डेटा दिया है लेकिन बफर क्षेत्रों में भी स्थानांतरण हुए हैं।” 

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि किसी बाघ अभयारण्य के चिन्हित, मुख्य या क्रिटिकल हैबिटेट्स में ही लोगों के स्वैच्छिक स्थानांतरण की जरूरत है।

छेत्री का कहना है कि 26 बाघ अभयारण्यों में उनके दस्तावेज से पता चलता है कि जहां भी पुनर्वास हुआ है, वहां कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। हालांकि अधिनियम के अनुसार, एक परिवार को मुआवजे में 15 लाख रुपये तक मिलना चाहिए

2006 में, ऐतिहासिक अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम भी पारित किया गया। इसे आमतौर पर केवल वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के रूप में जाना जाता है। इसी साल, भारत सरकार ने वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया। 

यह कानून, भारत में वनों में निवास करने वाले 10 करोड़ मूल निवासियों को वन भूमि पर अधिकार प्रदान करने वाला था। व्यवहार में, अधिनियम के पारित होने से, लुप्तप्राय जानवरों की रक्षा के लिए जंगल में रहने वाले समुदायों को उनके द्वारा बसाई गई भूमि तक पहुंचने के अधिकार से वंचित करने की ऐतिहासिक विरासत को बदलने में बहुत कम योगदान हुआ है।

छेत्री ने द् थर्ड पोल को बताया, “एफआरए को केवल 5-10 [टाइगर] रिजर्वों में लागू किया गया है और वह भी केवल कुछ क्षेत्रों में।” 

एफआरए के तहत प्रथागत वन अधिकार और व्यक्तिगत वन अधिकार, जो वन में रहने वाले समुदायों को अपने गांवों की पारंपरिक सीमाओं के भीतर से लकड़ी, औषधीय जड़ी-बूटियों और सुगंधित पौधों को इकट्ठा करने की अनुमति देते थे, को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज कर दिया गया है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर की प्रोफेसर अंबिका अय्यादुरई ने द् थर्ड पोल से कहा, “संरक्षित क्षेत्र मॉडल के माध्यम से किसी भी प्रकार के वन्य जीव संरक्षण की एक मानवीय लागत होती है, विशेष रूप से इन संरक्षित क्षेत्रों में और उसके आसपास रहने वाले लोगों द्वारा भुगतान किया जाता है। ये लोग अक्सर वंचित तबके के होते हैं, गरीब होते हैं और जिनके पास सौदेबाजी की कोई शक्ति नहीं होती है। जबकि हम प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता का जश्न मनाते हैं, हमें जंगलों के मूल निवासियों की सामाजिक लागत को स्वीकार करना चाहिए और संरक्षण मॉडल पर फिर से विचार करना चाहिए।”

क्या सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र आगे बढ़ने का रास्ता हो सकते हैं?

प्रोजेक्ट टाइगर को जिस मौजूदा तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है, उसके आलोचकों, जैसे राजकमल गोस्वामी और अंबिका अय्यादुरई के कुछ तर्क हैं। इनका कहना है कि  सरकार इस बात पर विचार करने में विफल रही है कि भारत में, जंगलों के मूल समुदायों द्वारा प्रबंधित जंगलों के ऐसे उदाहरण भी हैं, जहां लोगों ने अपनी पैतृक भूमि पर अधिकार नहीं खोए हैं और वहां बाघों की आबादी भी पनपी है। इसका उदाहरण अरुणाचल प्रदेश की दिबांग घाटी में बाघों की स्वस्थ आबादी है, जहां संभवत: 50 से अधिक बाघ हैं। घाटी एक वन्यजीव अभयारण्य है – जो बाघ अभयारण्य के विपरीत, ‘मुख्य क्षेत्रों’ में लोगों के प्रवेश को सीमित नहीं करता है।

अय्यादुरई बताती हैं कि मिश्मी समुदाय के लोग बाघों को अपने बड़े भाई के रूप में देखते हैं और आत्मरक्षा के लिए बाघ को मारना, एक गंभीर अपराध के रूप में देखा जाता है। ऐसी वर्जनाओं को लागू करते हुए, मिश्मी समुदाय, संरक्षण मॉडल के तहत अपने जंगल की रक्षा कर रहे हैं। और इसे आधिकारिक तौर पर 1988 में वन्यजीव अभयारण्य के रूप में मान्यता दी गई थी। हाल ही में सरकार ने सुझाव दिया है कि वह, वहां एक टाइगर रिजर्व स्थापित कर सकती है।

इससे मिश्मियों में अपनी पैतृक भूमि से कट जाने की चिंता पैदा हो गई है। अय्यादुरई का तर्क है कि मौजूदा मॉडल, पहले से ही बाघों की आबादी को फायदा पहुंचा रहा है। द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में वह कहती हैं कि सामुदायिक संरक्षित क्षेत्र [सीसीए] राज्य-नियंत्रित संरक्षित क्षेत्र मॉडल से आगे बढ़ने की संभावनाओं में से एक हैं। सीसीए के उदय ने, विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत में, राज्य से पावर स्ट्रक्चर को चुनौती देकर संरक्षण को नया आकार दिया है। दुर्भाग्य से, उनके पारिस्थितिकी और सामाजिक प्रभावों पर ठीक-ठाक अध्ययन दुर्लभ रहे हैं।

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