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मधुमक्खी पालन ने बदल दी असम के किसानों की तकदीर

विश्व मधुमक्खी दिवस पर हम बता रहे हैं कि किस तरह से मधुमक्खी पालन से सभी को लाभ होता है
<p>Nitul Bhuyan shows off his swarm of honeybees [image by: Kasturi Das]</p>

Nitul Bhuyan shows off his swarm of honeybees [image by: Kasturi Das]

उत्तरी असम एक छोटे से गांव जैंडखोवा में 100 से अधिक घरों में मधुमक्खी पालन से उनकी आय बढ़ी है। इतना ही नहीं, मधुमक्खी पालन न करने वाले किसानों को भी लाभ हुआ है क्योंकि मधुमक्खियों की गतिविधियों से आसपास की फसलों और फलों के पेड़ों की उर्वरता बढ़ी है। लगभग 12 साल पहले, लखीमपुर जिले में मधुमक्खी पालन शुरुआत करने वाले, नितुल भुयान कहते हैं, “मधुमक्खियों की उपस्थिति के कारण गांव में सरसों, नारियल, सुपारी, लीची और आम जैसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ रहा है। यह मधुमक्खियों के महत्व के बारे में लोगों को जागरूक कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, मधुमक्खियां और परागकण वाले अन्य कीट मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं, जो दुनिया की करीब 75 फीसदी खाद्य फसलों को पैदा करते हैं।

मधुमक्खियों के छत्ते को दिखाते नितुल भुयान [image by: Kasturi Das]
अस्तित्व के लिए खतरा

एफएओ के मुताबिक मधुमक्खियों और अन्य कीटों की भूमिका कृषि, खाद्य सुरक्षा और पोषण तक ही सीमित नहीं है। उनके बिना, जंगली पौधे और पारिस्थितिकी तंत्र, जो पृथ्वी को जीवों के रहने योग्य बनाते हैं, का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। अभी तक यह पाया गया है कि परागणकारी अकशेरुकीय प्रजातियों की लगभग 30,000 प्रजातियों में से 40 फीसदी कीटनाशकों के इस्तेमाल, भूमि-उपयोग में बदलाव और जलवायु परिवर्तन के कारण विलुप्त हो रही हैं।

स्कॉट मैकआर्ट ने एबीसी न्यूज को बताया कि मधुमक्खियों की आबादी दुनिया के कई हिस्सों में अप्रत्याशित रूप से गिर गई है। मधुमक्खियों की आबादी के सालाना नुकसान का स्तर एक जैसा नहीं है और यह नियमित हो चुका है और यह अभी भी बढ़ रहा है। चीन के कुछ हिस्सों में, किसानों को फलों के पेड़ों को परागण करने के लिए सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता है। यूएन कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी ने 2000 में इंटरनेशनल पॉलिनेटर इनीशिएटिव (आईपीआई) की स्थापना की, जो कृषि का एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने के लिए मधुमक्खियों की रक्षा और संरक्षण की मांग कर रही है।

मधुमक्खियों के साथ जुड़े अंधविश्वासों के कारण भुयान के लिए अपने साथी ग्रामीणों को यह समझाना आसान नहीं था कि वह मधुमक्खी पालन करें।

बाधाएं

भुयान कहते हैं, “लोग देवताओं के साथ मधुमक्खियों को जोड़ते थे और उन्हें अपने घरों में पीछे लगाने से हिचकिचाते थे। उन्होंने पर्यावरण और मनुष्यों के लिए मधुमक्खियों के लाभों को समझाने के लिए कड़ी मेहनत की। धीरे-धीरे यह बात फैलती गई और गांव में अब 600 घरों में से 100 घरों में 800 छत्तों के साथ यह काम फैल चुका है। 38 साल के भुयान अकेले मधुमक्खी पालन कर अपने 6 सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण करते हैं। मधुमक्खियों के उनके पास 340 छत्ते हैं, वह इनसे शहद निकालकर बेचते हैं। इसके अलावा वह मधुमक्खियों के छत्ते तैयार करते हैं। साथ ही दूसरों को प्रशिक्षित करने के लिए कार्यशालाएं भी चलाते हैं।

नितुल भुयान के बच्चे [image by: Kasturi Das]
वह दुर्घटनावश मधुमक्खी पालन वाले क्षेत्र में गिर गये जब वह एक जंगली मधुमक्खी का छत्ता लेकर आ रहे थे, जो कि उन्हें एक पेड़ की कटाई के दौरान मिला था। मधुमक्खियां मर गईं। उस समय उन्होंने असम एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रीजनल एग्रीकल्चरल रिसर्च स्टेशन से मदद मांगी थी, जहां से उन्हें पता चला कि किस तरह से मधुमक्खियों पालन वाले क्षेत्र को प्रबंधित करना है। उनकी पहली उपज केवल आधा किलोग्राम शहद थी। इस साल ग्रामीणों को कम से कम 1,000 किलोग्राम (या 10 क्विंटल) शहद मिलने की उम्मीद है। शहद लगभग 400 रुपये प्रति किलोग्राम (5.2 अमेरिकी डॉलर) बिकती है। इस तरह गांव के कुल मधुमक्खी उत्पादन से तकरीबन 4 लाख रुपये (5,200 अमेरिकी डॉलर) की आय होगी।

प्रशिक्षण का विस्तार

भुयान अक्सर आस-पास के जिलों जैसे सिलापत्थर और धेमाजी में मधुमक्खी पालन का वर्कशॉप चलाते हैं। यहां लोगों को मधुमक्खी पालन का प्रशिक्षण देते हैं। साथ ही वह आरएआरएस के बाहर होने वाले कामों के लिए एक रिसोर्स पर्सन की तरफ काम भी करते हैं। उनके प्रैक्टिकल सेशंस में विषय की पेचीदगियों के बारे में विस्तार से सरल शब्दों में समझाया जाता है जोकि उन्होंने ग्रामीणों की दिनचर्या से हासिल किया है। नवनिर्मित, खाली मधुमक्खी बक्से को उनके घर के बरामदे में इकट्ठा किया जाता है। भुयान कहते हैं, “मधुमक्खी के डब्बों को बनाने के लिए सबसे अच्छी लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए उटेंगा लकड़ी सबसे अच्छी है। इसके अलावा हम कटहल के पेड़ों की लकड़ी का भी उपयोग करते हैं। लेकिन यह मानसून के दौरान उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि मधुमक्खियां बारिश के दौरान कटहल के लकड़ी के बक्से में नहीं रहती हैं। हम आम, नीम और सिमोलु (सिल्क कॉटन) के पेड़ों से भी लकड़ी का उपयोग करते हैं, जो गांव में उपलब्ध हैं।”

भुयान केवल उन्हीं लोगों को छत्ते बेचते हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। वह कहते हैं, “हम उन लोगों को प्रशिक्षित करने की पेशकश करते हैं जिन्हें मधुमक्खी पालन में कोई अनुभव नहीं है। मधुमक्खियों को एक छत्ते को लगाने के लिए शुरुआती मूल लागत 2500 रुपये (33 अमेरिकी डॉलर) और मधुमक्खी के लिए खाली बॉक्स की कीमत 1500 रुपये है।

फायदों का प्रसार हो रहा है

पिछली सर्दियों में, भुयान और उनके साथी मधुमक्खी पालकों ने सरसों की फसल बढ़ाने के लिए स्थानीय किसानों को अपनी मधुमक्खियों को ऋण पर दिया था। वे अपने घरों से दिसंबर और जनवरी के दौरान लगभग 100 मधुमक्खियों को पास के सरसों के खेतों में ले गए, जब फूलों का मौसम होता है, और उन्हें 100 बीघा (लगभग 50 एकड़) में फैला दिया। सरसों के फूल खुद परागण नहीं कर सकते हैं और विभिन्न फूलों के बीच पराग ले जाने के लिए कीड़ों की मदद की आवश्यकता होती है। इस परियोजना से जुड़े आरएआरएस-एएयू के चीफ साइंटिस्ट प्रबल सैकिया कहते हैं, “सरसों एक पार-परागण वाली फसल है और पार-परागण स्वाभाविक रूप से नहीं होता है। इन जगहों पर मधुमक्खियां आईं। यह स्पष्ट रूप से पाया गया है कि इससे फसल उत्पादन में लगभग 30 फीसदी की वृद्धि हुई है।

सरसों के खेत में रखा मधुमक्खी पालन वाला बॉक्स [image by: Kasturi Das]
सर्दियों के बाद में सरसों के खेतों में रहने वाली मधुमक्खियां सालाना शहद उत्पादन बढ़ाने में मददगार हैं। साथ ही ऐसे किसानों की भी सहायता करती हैं जिनके पास अपनी मधुमक्खियां नहीं हैं। सर्दियों के मध्य में, मधुमक्खी पालन करने वालों के घरों के पास कुछ फूल होते हैं, जिससे मधुमक्खियों को भोजन मिलता है। इस तरह सरसों की फसल सबके लिए मददगार है। सैकिया कहते हैं कि मधुमक्खियों का पालन करने वालों ने साल के बाकी समय में अपने घर के पास फल इत्यादि के उत्पादन को भी बढ़ावा दिया है। ग्रामीण असम के अधिकांश घरों में पर्याप्त फल और फूलों के पेड़ हैं। उत्तरी असम बहुत ज्यादा ग्रामीण इलाका है और यहां पर जंगली फूलों और फलों की संख्या बहुतायत है। यहां प्रदूषण बहुत कम है जो मधुमक्खी पालन के लिए बेहद अनुकूल है। फसलों के प्रति अनुकूलता की वजह से तब भी गांव वालों ने लगातार उत्पादन बनाये रखा जब कोविड-19 के दौरान जब राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू किया गया।

 

कस्तूरी दास, असम की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं

 

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